मना मनोरथ छोड़ दे तेरा किया न होय !
पानी में घी निपजे तो लूका खायन कोय !!हमारे
मन की हो जाय , भाई , बंधो , सगे , सम्बन्धी सब हमारे अनुकूल हो जाये ,
संसार में मान सम्मान, बड़ाई मिल होजाये , लोग हमे अच्छा कहे ,हमारी
प्रतिष्ठा बढ़ जाये। ये लालसा प्रत्येक व्यक्ति के भीतर रहती है पर ऐसा कभी
होता नही और कुछ समय के लिए हो भी जाये तो सदा टिकता नही |
नाश्वान शरीर को मान बड़ाई में लगने से जीव बंधन में बंधता है
और मनुष्य का पतन होता है पर जब इन सबकी लालसा छूट जाये तो जीव मुक्त होता है और मनुष्य जाती की प्रगति होती है।
संसार
में जहा मान बड़ाई प्रतिष्ठा दिखती है वो असल में बंधन का कारण है और जहा
मान बड़ाई प्रतिष्ठा की लालसा न हो वह मुक्ति का कारण है।
भगवान हमारे मन की न करे , हमे कोई मान सम्मान न दे ,
केवल
हम भगवान के है और एक भगवान ही हमारे अपने है इस के अतिरिक्त हमे जो भी
याद हो वो यादास्त ( छीन जाये ) प्रभु ऐसी कृपा करो। ये लालसा हो तो
परमात्मा की प्राप्ति उसी क्षण हो जाती है।
भगवान कहते है की जो जीव सच्चे ह्रदय से मेरी शरण में आ जाता है और कहता है की
हे नाथ ! मैं आपका हूँ ,तो में उसी क्षण उसके सारे बंधन काट कर उसे मुक्त कर देता हूँ। उस जीव पर कृपा करना सुरु कर देता हूँ ,
जो बंधन के रास्ते बने हुए है उन सब से छुड़ा कर उन्हें मेरी प्राप्ति करा देता हूँ |
जो
मेरी प्राप्ति में रोड़ा बने बैठे है उनके सगे , सम्बन्धीयो से उनकी खट -
पट करवा देता हूँ फिर वो मुझ में और मैं उनमे रमण करने लगते है......।
ये बिलकुल सच्ची और पक्की बात।
मनुष्य
शरीर परमात्माकी प्राप्तिके लिए ही मिला है बाकि सब कार्य तो पशु पक्षी की
योनिमे भी किये जा सकते है पर भगवान की प्राप्ति केवल मानव शरीर मिलने पर
ही की जा सकती है।
जय श्री राधे राधे!
अयोध्या निर्माण की कथा !
ये बात पिछले पोस्ट में लिखी हुई है की जब
प्रभु श्रीराम अपने धाम गए तब अयोध्या के पेड़ , पोधे वृक्ष , लताये जड़ के
सहित उखड- उखड कर भगवान के साथ , भगवत धाम- साकेत में चले गए। यहाँ तक की
जब पर्वतोने देखा की प्रभु श्रीराम अपने धाम जा रहे है तब ( जड़ भी चेतन बन
कर ) वे पर्वत भी प्रभु श्रीराम के साथ चल पड़े।
अयोध्या की भूमि सुनी सी
हो गयी अयोध्याजी स्त्री के रूपमे प्रकट हो कर विलाप करने लगी की , अरे !
मैं कैसी अभागन हूँ जो यहाँ पड़ी- पड़ी अपने आपको उजड़ती हुई देख रही हूँ..
एक
दिन अयोध्या जी दुखी मन से ( सरयूजी नदी )के पास जा कर विलाप करने लगी की ,
बहिन ! अब तुम्हारा होना भी व्यर्थ रह गया है , मेरे उजड़ जाने से अब हम
अकेली रह गयी है। अयोध्या जी और सरयूजी अथाह दुःख के समुन्द्र में डुबी हुई
प्रभु श्रीराम की बाते कर रही थी और आँखोसे अश्रुधार बहा रही थी।
उतने
में एक राजकुमार घोड़े पर सवार , हाथ में धनुषबाण लिए वहा से गुजर रहे थे।
उस राजकुमारने देखा की यहाँ की भूमि इतनी उजड़ी सी क्यों लग रही है ? यहाँ
के पेड़ , पोधे , वृक्ष , लताये कहा चले गए ?
राजकुमारने देखा की दो स्त्रियां सरयूजी के किनारे बैठी दुखी मन से विलाप कर रही है , उनके नेत्रों से झर - झर आसु बह रहे है |
राजकुमार घोड़े से उतरकर उन माताओ को प्रणाम करके कहा की , हे देवियो ! आप कौन है और आप रो क्यों रही हो ?
अयोध्याजी
ने कहा महाराज ! मैं यहाँ की भूमि अयोध्या हूँ और ये मेरी सखी सरयूजी है ,
आप हमारे रोनेका कारण पूछ रहे है पर क्या कहे कुछ कहने की बात नही है ,
पर आप पूछ रहे है तो हम बता देती है
अयोध्याजी
ने कहा महाराज ! कुछ काल पहले एक डाकू आया था उसने हमे खूब आनंद दिया था
हम उनके आने से धन्य हो गयी थी पर जाते समय वो डाकू यहाँ की सारी सम्पति को
लूट कर ले गया हमे उजाड़ कर चला गया
राजकुमारने धनुस पर प्रतंजा चढ़ा
कर क्रोधमे भरकर कहा , माताजी ! मैं आपको वचन देता हूँ , मैं सिग्र ही उस
डाकू को युद्धमे जीत कर आप की सम्पति आप को वापिस दिलवाकर ही जाऊंगा , आप
हमे उस डाकू का नाम बताईये ?
अयोध्या जी बोली , महाराज ! उस डाकू पर
आपके धनुस का कोई असर नही पड़नेवाला वे बहुत बलसाली है वे युद्धमे जीते नही
जा सकते , वे तो प्रेम से जीते जा सकते है।
राजकुमार आश्चर्य में पड़गए की डाकू को प्रेम से जीता जा सकता है ! ऐसा कैसा डाकू है ? पर जो भी है आप मुझे उनका नाम बताईये ?
अयोध्याजी
ने कहा "वे अखिलब्रह्मांढ नायक परब्रह्मपरमेशवर है मुझे शोभायमान करने के
लिए इस धरती पर (राजा दशरत जी के पुत्र ) बन कर आये थे जो आपके ( पिता
श्री राम है ) वहीं मुझे उजाड़ कर चले गए है।
यहाँ के पेड़ , पोधे , वृक्ष , लताये सब जड़ के सहित उखड़ कर उनके साथ चले गए और में यहाँ उजड़ कर रह गयी हूँ।
वे राजकुमार कोई और नही थे भगवान श्रीराम के छोटे ( पुत्र कुश ) थे महाराज श्री कुश ने कहा ,
माताजी
! अब मैं आप को वचन दे चूका हूँ की आपकी सम्पति आपको दिलवाकर ही जाऊंगा सो
में मेरा वचन पूरा कर के ही जाऊंगा , पर उसमे आपको मेरी सहायता करनी होगी
, आप कृपा करके मुझे बताईये , आप जिस रूप में प्रभु श्रीराम के रहने पर
शोभायमान थी , वे सभी यथा योग्य स्थान मुझे बता दीजिये ?
उसके बाद
अयोध्याजी और सरयूजी ने प्रभु श्रीराम की बाल लीलाओ का चरित्र सुना कर जहा -
जहा भगवान श्रीराम ने जो लीलाये की वे इस्थान बताये।
अयोध्याजी और
सरयूजी के बताये हुवे इस्थान को महाराज ( कुश ) ने यथा योग्य फिरसे स्थापित
किया। वे अयोध्याजी फिरसे सज गयी वहां के पेड़ ,पोधे , वृक्ष , लताये फिरसे
लहराने लगे।
अयोध्या जी की सम्पति लोटा कर कुश महाराज अपनी राजधानी ( कुशावती ) को चल दिए।
भगवान
श्री कृष्ण की उजड़ी हुयी भूमि को उनके पड़पौत्र ( व्रजनाभ जी ) ने फिरसे
बसाया था और प्रभु श्रीरामकी जन्म भूमि अयोध्याजी को उनके छोटे पुत्र
महाराज ( श्री कुश ) ने बसाया था ऐसा हमे पौराणिक ग्रंथो से मालूम होता है
और अनुभव भी....!!
जय श्री सीताराम !
{ जय जय श्री राधे !}
प्रभुश्रीराम जी का अपने धाम पधारना और श्रीसीताजी की निंदा करने वाले धोबी पर श्रीराम जी की कृपा !
जब
भगवान श्रीराम अपने धाम को चले उस समय उनके साथ अयोध्याके सभी पशु -
पक्षी, पेड़- पोधे मनुष्य भी उनके साथ चल पड़े। उन मनुष्यो में श्रीसीताजी की
निंदा करने वाला धोबी भी साथ में था , भगवान ने उस धोबी का हाथ अपने हाथ
में पकड़ रखा था और उनको अपने साथ लिए चल रहे थे।
जिस - जिस ने भगवान को जाते देखा वे सब भगवान के साथ चल पड़े कहते है की वहां के पर्वत भी उनके साथ चल पड़े।
सभी
पसु पक्षी पेड़ पोधे पर्वत और मनुष्यों ने जब साकेत धाम में प्रवेश होना
चाहा तब साकेत का द्वार खुल गया पर जैसे ही उस निंदनीय धोबी ने प्रवेश करना
चाहा तो द्वार बंद हो गया।
साकेत द्वारने भगवानसे कहा महाराज ! आप
भलेही इनका हाथ पकड़ले पर ये जगतजननी माता श्रीसीताजी की निंदा कर चूका
है इसलिए ये इतना बड़ा पापी है की मेरे द्वारसे साकेत में प्रवेश नही कर
सकता।
जिस समय भगवान सब को लेकर साकेत जा रहे थे उस समय सभी देवी -
देवता आकाश मार्ग से देख रहे थे ,
की माताजी की निंदा करने वाले पापी धोबी को
भगवान कहा भेजते है।
भगवान ने द्वारबन्द होते ही इधर - उधर देखा तो
ब्रह्माजीने सोचा की कही भगवान इस पापि को मेरे ब्रह्मलोक में न भेजदे , वे
हाथ हिला - हिला कर कहने लगे , महाराज ! इस पापिके लिए मेरे ब्रह्मलोक में
कोई स्थान नही है।
इन्द्रने सोचा की कही मेरे इन्द्रलोक में न
भेजदे , इंद्र भी घबराये , वे भी हाथ हिला - हिला कर कहने लगे , महाराज !
इस पापिको मेरे इन्द्रलोक में भी कोई जगह नही है।
ध्रुवजीने सोचा
की कही इस पापी को मेरे ध्रुवलोक में भेज दिया तो इसका पाप इतना बड़ा है की
इसके पापके बोझसे मेरा ध्रुवलोक घिर कर निचे आ जायेगा ऐसा विचार कर ध्रुवजी
भी हाथ हिला - हिला कर कहने लगे महाराज ! आप इस पापिको मेरे पास भी मत
भेजिएगा।
जिन - जिन देवताओंका एक अपना अलगसे लोक बना हुआ था उन सभी देवताओंने उस निंदनीय पापी धोबीको अपने लोकमे रखने से मना कर दिया।
भगवान खड़े - खड़े मुस्कुराते हुए सबका चेहरा देख रहे है पर कुछ बोलते नही |
उस
देवताओ की भीड़ में यमराज भी खड़े थे , यमराजने सोचा की ये किसी लोक में
जानेका अधिकारी नही है अब इस पापी को भगवान कहि मेरे यहाँ नही भेजदे और
माता की निंदा करनेवाले को में अपनी यमपुरी में नई रख सकता वे घबराकर
उतावली वाणीसे बोले ,
महाराज ! महाराज ! ये इतना बड़ा पापी है की इसके लिए मेरी यमपुरी में भी कोई जगह नही है।
उस समय धोबीको घबराहट होने लगी की मेरी दुर्बुद्धीने इतना निंदनीय कर्म करवादिया की यमराज भी मुझे नही रख सकते!
भगवान
ने धोबी की घबराहट देख कर धोबी की और संकेत से कहा तुम घबराओ मत ! मैं अभी
तुम्हारे लिए एक नए साकेत का निर्माण करता हूँ , तब भगवानने उस धोबीके
लिए एक अलग साकेत धाम बनाया।
यहाँ एक चोपाई आती है !
सिय निँदक अघ ओघ नसाए ।
लोक बिसोक बनाइ बसाए ।।
ऐसा
अनुभव होता है की आज भी वो धोबी अकेलाही उस साकेत में पड़ा है जहा न कोई
देवी देवता है न भगवान , न वो किसी को देख सकता है और न उसको कोई देख सकते
है।
तात्पर्य यह है की भगवान अथवा किसी भी देवी देवता की निंदा करने वालो के लिए कही कोई स्थान नही है।
जय श्री सीताराम !!
{ जय जय श्री राधे }
पूरकनाम राम सुख रासी !
मनुजचरित कर अज अबिनासी !!
अर्थार्थ पूर्णकाम, आनंद की राशि, अजन्मा और अविनाशी श्री रामजी मनुष्यों के चरित्र कर रहे थे
उस समय रावणकी विधवा बहिन शूर्पणखा रामजी का सुन्दर रुप देख कर नवयुवती का रूप धारण कर रामजी से कहने लगी की
( तुम सम पुरुष मौसम नारी....)
हे युवराज इस धरती पर तुम जैसा कोई सुन्दर पुरुष नही है और मेरे जैसी कोई सुंदरी नही है चलो हम विवाह कर लेते है।
उस
समय लक्ष्मण जी ने शूर्पणखा को अपमानित करके नाक -कान काट कर वहाँ से
निकाल दिया और रामजी ने खर-दूषण और उनकी सेना को मार गिराया तब शूर्पणखा
रोती बिलखती रावण के पास पहुंची। वह अनेको भड़काऊ शब्द बोलती हुए कहने लकी
की देख रावण ! तुम जैसे कायर की बहन कहलाने से मेरी क्या दसा हुई है।
शूर्पणखा
के वचन सुनते ही सभासद् अकुला उठे। रावण ने शूर्पणखा की बाँह पकड़कर उसे
उठाया और समझाया की तू अपनी बात तो बता, किसने तेरे नाक-कान काट लिए।
(वह
बोली-) अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र, जो पुरुषों में सिंह के समान हैं,
वन में शिकार खेलने आए हैं। मुझे उनकी करनी ऐसी समझ पड़ी है कि वे पृथ्वी
को राक्षसों से रहित कर देंगे।
वे शोभा के धाम हैं, 'राम' ऐसा उनका नाम है ,
राम.... राम.......!
राम का नाम सुनते ही रावण चौक उठा की राम आ गये !
राम आ भी गए !
राम जी का नाम सुन कर रावण मानो मूर्तिमान सा हो गया। वो नी शब्द हो गया मुखसे कुछ बोला नही जाता
उनको अपने मन में ग्लानि होने लगी की अरे ! नारायण नर रूप में आ भी गए और मैं भजन नही कर पाया।
रावण का मन खिन सा हो गया और
शूर्पणखा राम लक्ष्मण और श्री सीता जी का गुणगान किये जा रही है उनका चित निर्मल हो गया , कंठ गदगद हो गया , शरीर पुलकायमान है।
वे
फिरसे कहने लगी की हे दशमुख! जिनकी भुजाओं का बल पाकर मुनि लोग वन में
निर्भय होकर विचरने लगे हैं। वे देखने में तो बालक हैं, पर हैं काल के
समान। वे परम धीर, श्रेष्ठ धनुर्धर और अनेकों गुणों से युक्त हैं
दोनों
भाइयों का बल और प्रताप अतुलनीय है। वे दुष्टों का वध करने में लगे हैं और
देवता तथा मुनियों को सुख देने वाले हैं। वे शोभा के धाम हैं, 'राम' ऐसा
उनका नाम है।
हे भाई !
उनके साथ एक तरुणी सुंदर स्त्री है ,-विधाता
ने उस स्त्री को ऐसी रूप की राशि बनाया है कि सौ करोड़ रति (कामदेव की
स्त्री) उस पर निछावर हैं। उन्हीं के छोटे भाई ने मेरे नाक-कान काट डाले।
मैं तेरी बहिन हूँ, यह सुनकर वे मेरी हँसी करने लगे और
मेरी पुकार सुनकर खर-दूषण , त्रिशिरा सहायता करने आए। पर उन्होंने क्षण भर में सारी सेना को मार डाला।
खर-दूषन
और त्रिशिरा का वध सुनकर रावण सुन सा हो गया। और समझ गया की भगवान श्री
नारायण ( नर रूपमे ) अवतरित हो कर इस धरती पर पधार गए है।
भगवान का नर रूपमे राम अवतार हो गया ये सुन कर
रावण
बड़ा प्रशन्न हुआ पर उनको मन ही मन ग्लानि होने लगी , वह खिन मन से अपने
महल में चल पड़ा वो रास्ते में चलते - चलते विचार करने लगा की भगवान इस
धरती पर अवतरित हो कर आ भी गए और में भजन नही कर पाया , उनसे प्रेम नही कर
पाया क्योकि उन्हें तो प्रेम से ही पाया जाता है पर अब क्या करूँ
( भजन होय नही तामस देहा.. )
अब इस तामसी शरीरसे भजन तो होगा नही पर अब ऐसा क्या करू जिससे उनके हाथो मेरी मुक्ति हो जाये
भगवान अंतर्यामी है रावणके मन की बात समझ गए और सीताजी से कहा
*सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला
*मैं कछु करबि ललित नरलीला
*तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा
*जौ लगि करौं निसाचर नासा
अर्थार्थ
हे प्रिये! हे सुंदर पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली सुशीले! सुनो! मैं अब
कुछ मनोहर मनुष्य लीला करूँगा, इसलिए जब तक मैं राक्षसों का नाश करूँ, तब
तक तुम अग्नि में निवास करो और अपनी छाया रूपी सीता को इस कुटिया में
विराजित कर लो।
श्रीसीता जी राम जी की बात सुनते ही अग्नि में
प्रवेश हो गयी और अपनी छाया रूपी सीता के रूपमे वहां पर प्रविष्ट हो गयी ,
तब लंकापति राव ने अपनी मुक्ति के लिए छाया रूपी श्री सीता जी का हरण किया
था..।
जय श्री राम !!
प्रभु श्रीराम और रावण के बीच युद्ध हुआ
रावण सभी राक्षसो सहित मारा गया पर सूर्पनखा रामजी से ( चित ) नही हठा
पायी। रामजी है ही ऐसे की जिसके ह्रदय में विराजमान हो जाते है सो हो जाते
है..!
शूर्पणखा रामजी को पति के रूपमे पाने के लिए तपश्या करने लगी
(दस हजार वर्ष ) तक तपश्या की तपश्या से ब्रह्माजी प्रकट हुए , ब्रह्माजी
ने कहा की जिनको पाने के लिए तुम ( तप ) कर रही हो उन श्रीरामजी का ये
मर्यादा पुरषोतम अवतार है , वे तुम्हे इस अवतार में नही अपना सकते पर
तुम्हारी तपश्या निष्फल नही होगी वे द्वापरयुग में जब श्रीकृष्ण अवतार में
आएंगे तब तुम कुब्जा के रूपमे आओगी तब भगवान तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करेंगे
उसी शूर्पणखा को ,प्रभु श्रीराम ने श्रीकृष्ण अवतार में सुंदरी कह कर कुब्जा को गोपियो के सामान सुख प्रदान किया.. !!
{जय जय श्री राधे }
डर लागे अरु हांसी आवे अजब जमाना आया रे !
उलटी चाल चली दुनिया में ताते जीव खबराय रे !!जयपुर के एक राजा थे नाम नही लेंगे, उनको एक महाभारत की कथा सुनाई गयी
कथा
कहने वाले पंडितजी ( ग्रस्ति ) थे पंडित जी ने सोचा राजा बहुत धनवान है और
घर मे भी हाथ तंग चल रहा सो राजा के यहाँ से जो दक्षिणा मिलेगी उससे बहुत
दिन तक गुजारा चलता रहेगा पंडितजी ने बड़े भाव से महाभारत की कथा कही पोथी
वही रख कर आ गए।
राजा ने भी अपने परिवार सहित कथा सुनी पर दक्षिणा के
रूप में कुछ दिया नही। कथा कहे हुए महीना बीत गया पर राजा के यहाँ से कोई
खबर नही आई
एक दिन ब्राह्मणी ने कहा की राजा के घर आप कथा तो कह आये
पर दक्षिणा के रूप में राजा ने कुछ दिया नही और पोथी भी राजा के यहाँ पर
ही रख कर आये। ब्राह्मण ने कहा पोथी इसलिए रख आया की जब राजा दक्षिणा के
लिए बुलाएंगे तब ले आऊंगा पर , शायद राजा प्रजा के काम- काज में व्यस्त
रहते है इसलिए भूल गए होंगे पर आज तुमने याद दिला दिया तो आज राजा के यहाँ
मैं खुद ही चला जाता हूँ ,
ब्राह्मण राजा के , राज महल में पहुंचे
सबसे पहले राज महल मे , राजकुमारी मिली , राजकुमारी ने पंडितजी को प्रणाम
किया और कहा पंडजी आपने बहुत कृपा की महाभारत कथा सुना कर आप ने तो हमारी
आखँ ही खोल दी पहले सुना दी होती तो हमारा कल्याण हो जाता ,
पंडितजी ने कहा , अच्छा बेटी ! तुमने क्या सुना महाभारत की कथा में ?
"बोले
पंडीजी ! दाऊजी अपनी बहिन सुबद्रा जी से बहुत प्रेम करते थे पर दाऊजी ने
सोचा की अभी मेरी बहिन बहुत भोली है , अधिक स्नेह के कारण उन्होंने विवाह
की कोई खास चिंता की नही उसी बीच सुभद्राजी अर्जुन के साथ भाग गयी।
अब हमारे माता पिता भी हमारे विवाह के लिए कोई ख़ास सोच नही रहे है तो अब मैं भी कोई योग्य राजकुमार देख कर उनके साथ भाग जाउंगी।
पंडितजी ने अपना सिर पिटा की हे राम ! इसने पूरी महाभारत कथा से एक यही शिक्षा ली।
पंडित जी आगे बड़े और रानी मिली ,
रानी
ने प्रणाम कर के कहा , महारज ! आप पहले कथा कहते तो मेरा तो भाग्य ही बदल
जाता पर अब तो बहुत समय निकल गया और मेरी जवानी भी ढल गयी।
पंडित जी बोले अच्छा , रानी जी ! कहो ! आपने महाभारत की कथा से क्या शिक्षा ली ?
"बोले
महाराज ! द्रोपदी के पांच पति थे पांच विवाह हुए इसलिए वो पंच कन्या में आ
गयी और मैं तो अंधेरे में रह गयी , एक पति से ही संतुष्ट रह गयी।
पंडितजी रानी की बात सुन कर चुप चाप जल्दी जल्दी पाँव उठाने लगे और मुख से राम राम कहते
आगे बड़े और अब राजा का पुत्र राजकुमार मिला।
राजकुमार पंडितजी को प्रणाम करते हुए कहने लगा , पंडितजी ! आपने महाभारत की कथा सुना कर हमारे भाग्य का रास्ता ही खोल दिया ,
पंडित जी " अच्छा ! आपने क्या प्रेरणा ली ?
बोले
महारज ! कंस सब तरह से राज गद्दी के योग्य था पर उनके पिता ने उनको नालायक
जान कर राज गद्दी, सोप नही रहे थे , तब उसने अपने पिता उग्रसेन को कारागृह
में बंध कर अपने बल के आधार पर राज गद्दी पर बैठ गया , अब मैं भी सोच रहा
हूँ की कुछ षडियंत्र करके पिता जी को हटा कर मैं भी राज गिद्दी पर विराजित
हो जाऊ।
पंडित जी के मन में खिन्नता होने लगी की , अरे ! ये क्या दुस्स प्रभाव पड़ा |
पंडितजी
विचार करते करते राज दरबार में पहुंचे जहा राजा विराज रहे थे , राजा ने
राज गद्दी से उठ कर पंडितजी का सत्कार करते हुए कहा आईये पंडितजी आपने
महाभारत कथा सुना कर हमारा बहुत सारा धन खर्च होने से बचा दिया पंडित जी
खिन्न भाव से बोले अच्छा ! महाराज आपने महाभारत की कथा से क्या प्रेरणा ली ?
"बोले
महाराज ! आज तक हम बिना सोचे समझे ही अपना धन लुटाते रहे पर जब से महाभारत
कथा सुनी तब से हमारी तो बुद्धि ही ठिकाने आ गयी हमारा बहुत सारा धन खर्च
होने से बच गया
अच्छा ! वो कैसे ?
बोले जब कौरवो की सभा में
शांतिदूत बन कर श्री कृष्ण पधारे तब दुर्योधन ने कहा केशव ! बिना उद्ध के
एक सुई के ( नोक ) के बराबर भी पांडवो को भूमि देनेवाला नही हूँ , अब
पांडवो को कुछ चाहिए तो युद्ध कर ले......।
और अब आप को भी कुछ दक्षिणा चाहिए तो हमसे युद्ध कर लो फिर जो चाहो जो ले जाओ
पंडितजी ने कहा महाराज ! आप हमारी पोती वापिस कर लीजिये
जान बची तो लाखों पाये !
लोट के बुद्धू घर को आये !!
ये हकीकत घटना है जयपुर के राजा की....!
आज भी लोग ग्रंथो मे से अपने मतलब की बात निकाल
लेते है और उन पर दोसारोपित करते रहते है पर उसका परिणाम क्या होता है ये
नही विचारते ,
अब
में आप सज्जनो से पूछती हूँ , क्या महाभारत ग्रन्थ में यही शिक्षा है? जो
अच्छाईओ को छोड़ बुराईयो का संग्रह करे ? जिसे पंचम वेद कहा गया है उस में
जीव के कल्याण के सिवाय कुछ है ही नही |
जिसमे से गीता जैसा शास्त्र निकला ? जो समय को
साक्षी रख कर भगवान ने प्रत्येक जीव के कल्याण के लिए मुक्ति का मार्ग
बताया आज वो ग्रथ घर मे रखने से लोग कतराते है की महाभर जैसा ग्रथ घर में
रखेंगे तो कही हमारे घरमे महाभारत न छिड़ जाये पर फिर भी आज हर परिवार में जंग
छिड़ी हुई है , कही बाप बेटे के बीच तो कहि सास बहु के बीच , कही भाई - भाई के
बीच तो कही पति - पत्नी के बीच .. इद्यादि सब जंग में फसे हुए है कोई बचा हुआ
नही है।
{ जय जय श्री राधे}
श्री राधा कृष्ण के विवाह की कथा!
एक दिन नन्दबाबा ने सोचा की जब से लाला भयो है तब से गो चरावे नही गयो आज गो चरावे को जाता हूँ ,
बाबा , श्री बालकृष्ण लाल को गोदी में ले कर चल पड़े वे अपने लाला को लाड
लडाते - लड़ाते गोए चरते हुए बहुत दूर निकल गए धीरे - धीरे भाण्डीर - वन जा
पहुँचे
जहा थोड़ी ही देर में श्री कृष्ण की इच्छा से वायु का वेग अत्यंत
प्रखर हो उठा ,
आकाश मेघों की घटा से आच्छादित हो गया तमाल और कदम्ब
वक्षो के पल्ल्व टूट - टूट कर गिरने , उड़ने और अत्यंत डरावने उत्पादन करने
लगे उस समय महान अन्धकार छा गया। नंदनंदन सामान्य बालक की भांति डर कर रोने
लगे।
अपने लाला को डरते हुए रोते देख बाबा को भी भय लगने लगा तब
वे शिशु को गोद मे लिए और उनको गर्गचार्यजी की कई हुई बात याद आई तब बाबा
ने श्री राधा जी को याद किया,
उसी समय करोडो सूर्यो के समूह की सी दिव्य
दिप्ति उदित हुई जो सम्पूर्ण दिशाओ में व्याप्त थी उस दिव्य प्रकाश में
बाबा ने श्री राधाजी को देखा।
श्री राधाजी पहले ही सोलह शृंगार कर प्रकट हुई थी।
श्रीराधा जी के दिव्य तेज से अभिभूत हो बाबा ने तत्काल उनके सामने मस्तक
झुकाया और हाथ जोड़कर कहा-राधे ! ये साक्षात पुरषोतम है और तुम इनकी मुख्य
प्रणवल्लभा हो , यह गुप्त रहस्य में गर्गजी के मुख से सुनकर जानता हूँ।
हे राधे ! अपने प्राणनाथ को मेरे अंक से ले लो ये बादलो की गर्जना से डर
गये है इन्होने लीलावश यहाँ प्रकृति के गुणों को स्वीकार किया है इसिलए
इनके विषय में इस प्रकार भय भीत होने की बात कही गयी है।
नन्दबाबा ने कहा की तुम अपने प्राणनाथ को मेरे अंग से ले लो और अपने घर जाओ।
बाबा के कहने का तात्पर्य यह था की तुम अपने प्रीतम को साथ ले कर (निकुंज)
में जाओ क्यों की घर उसी को कहते है जहा ग्रहणी होती है , अब राधाजी
ग्रहणी है तो जहा ( राधा कृष्ण ) होंगे वो राधा जी का घर हो ही गया।
राधाजी ने अपने प्राणनाथ को बाबा से ले कर अपने अंग में भर लिया और
श्रीकृष्ण राधाजी के छाती से एक शिशु की भांति चिपक गये , फिर जब , नन्दराय
जी श्रीराधा जी को प्रणाम कर के चले गए तब श्रीराधा जी भी भाण्डीर वन में
निकुंजकी लताओं में गयी।
वहा की भूमि अत्यंत सुशोभित थी क्योकि
जहा (श्रीराधा कृष्ण का विवाह ) हो रहा हो वहाँ पर पृथ्वी नाच उठी और अपना
दिव्य रूप प्रकट कर अपने आपको सजाने के लिए प्रकति को आदेश दे दिया
यमुना जी भी सुन्दर शृंगार कर वहां उपस्थित हो गयी , अन्य नदियाँ और सरोवर
भी अपने सौंदर्य को प्रकट कर वह उपस्थित हुए , वहाँ की सजावट देखे कैसे
?क्यों की हमारी नजर ही नही टिकती वहाँ की सजावट जो प्रकृति ने की उसकी
शोभा वर्ण करने का सामर्थ्य मुझमे नही है इसलिए उस अध्भुत दिव्य सुन्दर
भूमि को मैं साष्टांग प्रणाम करती हूँ।
वहां की सुन्दर सोभा को
देख श्री श्यामसुन्दर भी ललचा गए उस दिव्यधाम निकुंज की शोभाकला अवतरण होते
ही अपने शिशु अवस्था को छोड़ साक्षात पुरषोतम घनश्याम भगवान श्री कृष्ण
किशोरावस्था के अनुरूप दिव्य देह धारण कर श्री राधाजी के समुख खड़े हो गए।
उनके श्री अंगों पर पीताम्बर , हाथ मे बंशी , कानो में कुंडल , बाहो मे
बाजूबंद , गले में.. , कंठ में सुन्दर आभूषण सोभा पा रहे थे , श्रीकृष्ण भी
दुल्ल्हा सा ही रूप धारण कर प्रकट हुए थे।
उन्होंने हँसते हुए अपने प्रियतमा श्रीराधा जी का हाथ अपने हाथ में थाम लिया और उनके साथ ( विवाह - मंडप में प्रविष्ट हुए )
उस मंडप में विवाह की सब सामग्री संग्रह करके रखी गयी थी , मेखला , कुशा ,
सप्तमत्तिका और जल से भरे कलस आदि उस मंडप की शोभा बढ़ा रहे थे।
वहाँ एक श्रेष्ट सिंघासन प्रकट हुआ , जिस पर वे दोनों प्रिया प्रियतम एक -
दूसरे से सट कर विराजित हो गए और अपनी दिव्य शोभा का प्रसार करने लगे
वे
दोनों एक दूसरे से मीठी - मीठी बाते करते हुए मेघ और विदित की भांति पानी
प्रभा से उद्दीप्त हो रहे थे , उसी समय देवताओ में श्रष्ट भगवान ब्रह्माजी
आकाश से उतरकर भगवान श्री कृष्ण के सन्मुख आये और उन दोनों के चरणो मे
प्रणाम करके हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे........!!
उसके बाद श्रीराधावल्लभ का विवाह श्री ब्रह्माजी ने विधिवत से सम्पन करवाया , सभी देवी देवताओ ने पुष्पो की वर्षा की
विवाह सम्पन होने के बाद सभी देवी देवता श्री राधा जी को प्रणाम कर के
अपने अपने स्थान चले गए और प्रिया प्रियतम अपने ( निकुंज ) मे पधार गए , वह वे एक दूजे का शृंगार करने लगे पहले भगवान श्री कृष्ण ने अपनी प्रियतमा का अपने हाथो श्रंगार किया , सुन्दर वेणी बनायीं , कजरे लगाए , नेत्रोमे कालज की पतली रेखा खीच दी तथा उत्तमोत्तम रत्तनो और फूलो से भी उनका श्रंगार किया राधाजी का पूर्ण शर्बगर् होने पर ,
जैसे ही श्रीराधा जी अपने प्रियतम का श्रंगार करने लगी उसी क्षण श्री कृष्ण अपने किशोरावस्था को त्याग कर छोटे से बालक बन गए , नंदबाबा ने जिस शिशुको जिस रूप में श्रीराधा जी के हाथ में दिया था उसी रूप में वे धरती पर लौटने लगे और भय से रोने लगे।
श्रीहरि को इस रूप में देख कर श्रीराधा जी तत्काल विलाप करने लगी और बोली हरे ! मुझपर माया क्यों फैलाते हो ? इस प्रकार विषादग्रस्त होकर रोती हुई श्रीराधा से सहसा आकाशवाणी ने कहा
राधे ! इस समय सोच मत करो तुम्हारा मनोरथ कुछ काल के पश्चात पूर्ण होगा इतना कह कर आकाशवाणी भी चुप हो गयी श्री राधा जी अपने प्राणधन को ले कर नन्द बाबा के घर श्री यशोदा जी के हाथो सोप आई....!!
{ जय जय श्रीराधे }
श्रीसीता स्वयंवर
श्री सीता राम , लक्ष्मण उर्मिला , भरत जी मांडवी और शत्रुघ्न श्रुतकीर्ति के शुभ विवाह का भजन !
आज मिथला नगरिया निहाल सखियाँ !
चारों दूल्हा में बड़का कमाल सखियाँ !!
माथे मणि मोरिया कुंडल सोहे कानवा !
कारें कारें कजरारे जुल्मी नयनवा !!
लालचंदन सोहे इनके भाल सखियाँ !
चारों दूल्हा में बड़का कमाल सखियाँ !!
सावर सावर गोरे गोरे जोड़ियां जवान है !
आंखियां देखलि सुनलिनी कान है !!
जुग जुग जोड़ी जीवे बे मिसाल सखियाँ !
चारों दूल्हा में बड़का कामल सखियाँ !!
गगन मगन आज मगन धरतीयाँ !
देख देख दूल्हा जीके सावरी सुरतियाँ !!
बाल , वृद्ध , नर , नारी सब बेहाल सखियाँ !
चारों दूल्हा में बड़का कमाल सखियाँ !!
आज मिथला नगरिया निहाल सखियाँ !
चारों दूल्हा में बड़का कमाल सखियाँ!!
{ जय जय श्री राधे }