Monday, 10 November 2014

            हरी जन तो हारे भले जितण दो संसार !
            हारे हरिपुर  जावसी जीते यमके  द्वार !!


एक बार सब लंकावासी मिल कर रावण के पास गए और बोले महाराज ! आप तो रामजी के प्रबल विरोदी है और आप के भाई विभीषण जी तो रामजी के परम  भक्त है , वे सब  दिन राम नाम की रट लगाये रहते है और पुरे घरमे भी राम राम लिखा रखा है , और तो और हाथ में झोली माला ले कर  सब दिन राम राम करते रहते है और महाराज ! घरमे भी राम नाम का कीर्तन होता है ,
"श्री राम जय राम जय जय राम....
लंका वासियो ने रावण को खूब भड़का दिया।

रावण क्रोध से तिलमिला उठा और कहा विभीषण को बुलाओ ,
विभीषण जी आये और कहा ये लोग क्या कहते है तुम्हारे घरमे राम राम लिखा है
"बोले हाँ ! लिखा है
' बोले हाथमे झोली है , क्या जपते हो ?
"बोले ' राम राम..
विभीषणजी की बात सुन कर रावण तिलमिला कर बोला ,
' तुम मेरे शत्रु का नाम जपते हो ?
विभीषणजी "बिलकुल नही.....
विभीषण जी ठीक ही तो कह रहे थे रामजी किसीके शत्रु है ही नही , वे तो प्रत्येक जीव के हितैसी है।

रावण बोला फिर राम - राम क्यों जपते हो ?
विभीषणजी ने सोचा की सच कहूँगा तो ये दुष्ट  मेरे भजन में बाधा पहुचायेगा

विभीषणजी बोले " महाराज ! ये शिकायत करने वाले नाम के रहष्य को नही समझते , मैं तो मेरे भईया भाभी का नाम जपता हूँ पर , क्या कहे ! ये चुगलखोर नाम की महिमा नही समझ पाते , मैं अपने भईया भाभी का भक्त हूँ इसलिए राम नाम जपता हूँ।

रावण बोला राम राम जपने से तुम मेरा और तेरे भाभी का भक्त कैसे हुआ ?
"बोले महाराज ! आप त्रिलोकी के विजेता हो कर भी मंद्बुधियो की भांति बात करते है।
" आप का नाम रावण है की नही ?
' बोले हाँ ! है
" बोले भाभीका नाम मंदोदरी है की नही ?
' बोले हाँ ! है
अब आप भी ( राम नाम ) का रहस्य समझ लीजिये।
( रा माने रावण )
( म माने मंदोदरी ) आपका और भाभी का पूरा नाम लेनेमें कठिनाई होती है इसलिए संगसेप में ही ( राम नाम ) जप लेता हूँ।
रावण ने विभीषण जी को ह्रदय से लगा लिया और कहा की भाई हो तो विभीषण जैसा।
'प्रसन्न हो कर बोला , हाँ ! विभीषण इस भावसे तुम चाहे जितना राम राम करो मुझे बहुत प्रसन्नता होगी।

विभीषण जी झूट बोल रहे थे वे केवल राम भक्त है भईया भभीसे उनको क्या लेना देना पर रावण से पिंड छुड़ाने के लिए रावण को प्रसन्न करने वाली बात कही।
तात्पर्य यह है की कोई जीव भगवतशरणागत हो जाये और किसी भी तरह की बाधा आये तो उन बाधाओ को लाग कर किसी भी युक्ति से भगवत शरणागत हो जाना चाहिए , किसी भी युक्ति से केवल भगवान के हो जाओ !

जे   रति    होइ    सियाराम    सु !
सुमिरत रात दिवस तन, मन सु !!

  , एक ही ध्यान रहे , हम भगवान के है और एक भगवान ही हमारे अपने है।  { जय जय श्री राधे }

संत श्री कबीरदासजी के प्राकट्य की कथा
भक्ति बीज पलटे नही जो जुग जाये अनंत !
उच्च - नीच  कुल  उपजे   रहे  संतको  संत !!

एक सिद्ध महात्मा थे श्री रामानन्दचार्य जी उन्ही महात्मा का एक शिष्य था ब्राह्मण जो नित्य उनकी सेवा में उपस्थित रहता था।
 एक दिन उन ब्राह्मण को किसी आवश्यक कार्य से बाहर जाना पड़ा उन ब्राह्मण ने श्री रामानन्दचार्य जी की सेवा में अपनी पुत्री को भेजा

 उस ब्राह्मण कन्या ने बड़े भावपूर्वक समस्त कार्य किया , जब घर जाने लगी तो श्रीस्वामीजी के श्रीचरण -कमलों में प्रणाम किया तो श्री स्वामीजी ने सहज भाव से आशीर्वाद दिया - पुत्रवती भव।
 यह सुनकर ब्राह्मण कन्या संकुचित हो गयी और हाथ -जोड़कर बोली , महाराज ! मैं तो अभी क्वांरी हूँ।  ब्राह्मण कन्या की बात सुन कर स्वामी श्री रामानंदचार्य भी किंचित विचार में पड़ गए।

इसी बीच श्री विष्णु भगवान का आदेश ले कर करुणामय भगवती श्री लक्ष्मी जी कलयुग के जीवो पर दया कर भू - लोक में पधारी उन्होंने विचार किया की कलयुग के लोगो का कल्याण तभी संभव है जब किसी समर्थ भक्त का अवतार हो।

इसी चिंता में विनिमग्न श्री लक्ष्मीजी घूमती - फिरती ( काशी में ) श्री रामानन्दचार्य जी के पास आई।

यहाँ आने पर देखा तो श्री स्वामीजी भी ब्राह्मण  कन्या को आशीर्वाद देकर विचारमग्न ही थे।
तब लक्ष्मीजी ने ब्राह्मण कन्या को एक तुलसीपत्र दिया और  स्वामीजी ने भी कुछ पुष्प प्रसादी दी। लक्ष्मीजी ने तुलसीपत्र देते हुए कहा की तुम स्वामीजी की पुष्प प्रसादी एवं ये तुलसीपत्र लो , और अपनी झोली में भर लो इससे श्रीस्वामीजी का वरदान भी व्यर्थ नही होगा और तुम्हारा कन्यात्व भी सुरक्षित रहेगा।

ब्राह्मण कन्या ने तुलसीपत्र और पुष्प प्रसादी अपने आँचल में ले ली, कुछ दूर चलने पर उसे वजनसा मालूम हुआ तो विचार की स्वामीजी ने ( वा लक्ष्मीजी ) ने तो  फूल ही दिया था फिर यह इतना भारी क्यों लग रहा है ? जब उसने देखा तब समझा की यह तो पुष्पो के स्थान पर एक परमदिव्य सुन्दर ( शिशु ) प्रकट हो गया है।

लोक - लज्जावश वह ब्राह्मण- कन्या उस शिशु को लहरतारा - तालाब के तट पर रखकर चली गयी। (1455 ज्येष्ठ पूर्णिमा सोमवार ) के दिन ही कबीरजी का प्राकट्य हुआ उस दिन दैवयोगवश नीरू - नीमा नाम के जुलाहा दम्पति उसी मार्ग से कही जा रहे थे।

नीमा को प्यास लगी थी वह जब लहरतारा में जल पिने गयी तो उसने , इस परम सुन्दर शिशु को कमल पत्रों पर खेलते देखा।

उसके हृदय में मातृत्व भाव जगा , वातसल्य उमड़ा , उसने शिशु को गोद में उठा लिया अब तक उसकी गोद भी पुत्र से खाली ही थी , उसने शिशु को लेकर नीरू  को दिखाया।  नीरू ने प्रथम तो आनाकानी की परन्तु बाद में पत्नी का अनुग्रह देखकर घर ले चलने की अनुमति दे दी , इस प्रकार श्री कबीरदासजी का पालन पोषण इन्ही नीरू - नीमा के हाथो  हुआ..| भक्तमाल ग्रन्थ में एक पद भी आता है
यथा वन्दौ श्रीप्रह्लाद जिन ,धार्यो रूप कबीर।
कलिमद  मर्दन वीरवर सिद्धि समर रणधीर।।

इस पद के अनुसार
भक्त शिरोमणि श्री प्रह्लादजी के अवतार कबीरदासजी ही है
    { जय जय श्री राधे }