रावण के पिछले जन्म की कथा रावण पिछले जन्म में बहुत धर्मात्मा था , उस धर्मात्मा का नाम था ( प्रतापभानु )
प्रतापभानु ने संसार भर को अपनी भुजाओं के बल से वश में कर राजाओं से दंड (कर) ले-लेकर उन्हें छोड़ दिया। उस समय सम्पूर्ण पृथ्वी मंडल का एकमात्र प्रतापभानु ही (चक्रवर्ती) राजा था।
राजा अर्थ, धर्म और काम आदि के सुखों का समयानुसार सेवन करता था ,
राजा प्रतापभानु का बल पाकर भूमि सुंदर कामधेनु (मनचाही वस्तु देने वाली) हो गई। (उनके राज्य में) प्रजा सब (प्रकार के) दुःखों से रहित और सुखी थी और सभी स्त्री-पुरुष सुंदर और धर्मात्मा थे।
वेदों में राजाओं के लिए जो धर्म बताए गए थे, राजा सदा आदर पूर्वक और सुख मानकर उन सबका पालन करता था। प्रतिदिन अनेक प्रकार के दान देता और उत्तम शास्त्र, वेद और पुराण सुनता था।
एक बार वह राजा एक अच्छे घोड़े पर सवार होकर, शिकार का सब सामान सजाकर विंध्याचल के घने जंगल में गया।
राजा ने वन में फिरते हुए एक सूअर को देखा , उस सूअर को देखकर राजा घोड़े को चाबुक लगाकर तेजी से चला और उसने सूअर को ललकारा कि अब तेरा बचाव नहीं हो सकता।
घोड़े को (अपनी तरफ) आता देखकर सूअर पवन वेग से भाग चला। राजा ने तुरंत ही बाण को धनुष पर चढ़ाया , धनुष पर बाण चढ़ा देख सूअर धरती में दुबक गया। वह पशु कभी प्रकट होता और कभी छिपता हुआ भाग जाता था।
वह , सूअर बहुत दूर ऐसे घने जंगल में चला गया, जहाँ हाथी-घोड़े का निबाह (गमन) नहीं था। राजा बिलकुल अकेला था और वन में क्लेश भी बहुत था , पर राजा ने भी उस सूअर का पीछा नही छोड़ा।
राजा को बड़ा धैर्यवान देखकर, सूअर भागकर पहाड़ की एक गहरी गुफा में जा घुसा। उसमें जाना कठिन देखकर राजा को बहुत पछताकर लौटना पड़ा, पर उस घोर वन में वह रास्ता भूल गया , बहुत परिश्रम करने से थका हुआ और घोड़े समेत भूख-प्यास से व्याकुल राजा नदी-तालाब खोजता-खोजता पानी बिना बेहाल हो गया।
वन में फिरते-फिरते उसने एक आश्रम देखा, वहाँ कपट से मुनि का वेष बनाए एक राजा रहता था,
जिसका देश राजा प्रतापभानु ने छीन लिया था और जो सेना को छोड़कर युद्ध से भाग गया था पर , राजा प्यासा होने के कारण (व्याकुलता में) उसे पहचान न सका। सुंदर वेष देखकर राजा ने उसे महामुनि समझा और घोड़े से उतर कर उसे प्रणाम किया, परन्तु बड़ा चतुर होने के कारण प्रतापभानु ने उसे अपना नाम नहीं बताया।
राजा को प्यासा देखकर उसने सरोवर दिखला दिया। हर्षित होकर राजा ने घोड़े सहित उसमें स्नान और जलपान किया , राजा की सारी थकावट मिट गई सुखी हो गया। तब तपस्वी उसे अपने आश्रम में ले गया और सूर्यास्त का समय जानकर उसने (राजा को बैठने के लिए) आसन दिया।
फिर वह तपस्वी कोमल वाणी से बोला ,
तुम कौन हो? सुंदर युवक होकर, जीवन की परवाह न करके वन में अकेले क्यों फिर रहे हो ?
प्रतापभानु ने अपना झूठा परिचय देते हुए कहा हे मुनीश्वर ! सुनिए, प्रतापभानु नाम का एक राजा है, मैं उसका मंत्री हूँ। शिकार के लिए फिरते हुए राह भूल गया हूँ। बड़े भाग्य से यहाँ आकर मैंने आपके चरणों के दर्शन पाए हैं
यहाँ तुलसीदासजी कहते है की जैसी भवितव्यता (होनहार) होती है, वैसी ही सहायता मिल जाती है। या तो वह आप ही उसके पास आती है या उसको वहाँ ले जाती है ,
कपट मुनि ने प्रतापभानु से कहा- हे तात ! अँधेरा हो गया। तुम्हारा नगर यहाँ से सत्तर योजन पर है , हे सुजान! सुनो, घोर अँधेरी रात है, घना जंगल है, रास्ता नहीं है, ऐसा समझकर तुम आज यहीं ठहर जाओ, सवेरा होते ही चले जाना
राजा प्रतापभानु ने सुंदर कोमल वाणी से कहा- हे प्रभो! आपको पिता जानकर मैं ढिठाई करता हूँ। हे मुनीश्वर! मुझे अपना पुत्र और सेवक जानकर अपना नाम (धाम) विस्तार से बतलाइए ?
राजा ने उसको नहीं पहचाना, पर वह राजा को पहचान गया था। राजा तो शुद्ध हृदय था पर वह कपट करने में चतुर था। एक तो वैरी, फिर जाति का क्षत्रिय, फिर वह छल-बल से अपना काम बनाना चाहता था
मुनि ने कपट में डुबोकर बड़ी युक्ति के साथ कोमल वाणी बोला- वैसे तो हमारा नाम एक तनु है पर अब हमारा नाम भिखारी है, क्योंकि हम निर्धन और अनिकेत (घर-द्वारहीन है , उस कपट मुनि ने झूट को ऐसी मधुर वाणी से कहा की राजा उस पर मोहित हो गया और बोला ,
मुनिवर! आप जो हों सो हों (अर्थात् जो कोई भी हों), मैं आपके चरणों में नमस्कार करता हूँ। हे स्वामी! अब मुझ पर कृपा कीजिए।
अपने ऊपर राजा की स्वाभाविक प्रीति और अपने विषय में उसका अधिक विश्वास देखकर , सब प्रकार से राजा को अपने वश में करके, अधिक स्नेह दिखाता हुआ वह (कपट-तपस्वी) बोला- हे राजन्! सुनो, मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, मुझे यहाँ रहते बहुत समय बीत गया ,अब तक न तो कोई मुझसे मिला और न मैं अपने को किसी पर प्रकट करता हूँ, क्योंकि लोक में प्रतिष्ठा अग्नि के समान है, जो तप रूपी वन को भस्म कर डालती है ,
और श्री हरि को छोड़कर किसी से कुछ भी प्रयोजन नहीं रखता। प्रभु तो बिना जनाए ही सब जानते हैं। फिर कहो संसार को रिझाने से क्या सिद्धि मिलेगी।
ज्यों-ज्यों वह तपस्वी उदासीनता की बातें कहता था, त्यों ही त्यों राजा को विश्वास उत्पन्न होता जाता था।
जब उस बगुले की तरह ध्यान लगाने वाले (कपटी) मुनि ने राजा को कर्म, मन और वचन से अपने वश में जाना, तब वह बोला
हे भाई! हमारा नाम एकतनु है। यह सुनकर राजा ने फिर सिर नवाकर कहा- मुझे अपना अत्यन्त (अनुरागी) सेवक जानकर अपने नाम का अर्थ समझाकर कहिए ?
(कपटी मुनि ने कहा-) जब सबसे पहले सृष्टि उत्पन्न हुई थी, तभी मेरी उत्पत्ति हुई थी। तब से मैंने फिर दूसरी देह नहीं धारण की, इसी से मेरा नाम एकतनु है
राजा ( कपटी मुनि ) के नाम का अर्थ सुनकर उस तपस्वी के वश में हो गया और वह उसे अपना नाम बताने लगा।
कपटमुनि ने कहा- राजन ! मैं तुमको जानता हूँ। तुमने कपट किया, वह मुझे अच्छा लगा , अब मैं तुम्हारा परिचय तुम्हे सुनाता हूँ सुनो।
हे राजन ! तुम्हारा नाम प्रतापभानु है, महाराज सत्यकेतु तुम्हारे पिता थे। हे राजन ! गुरु की कृपा से मैं सब जानता हूँ, पर अपनी हानि समझकर कहता नहीं और अब मैं प्रसन्न हूँ, इसमें संदेह न करना। हे राजन्! जो मन को भावे वही वर माँग लो।
सुंदर (प्रिय) वचन सुनकर राजा हर्षित हो गया और (मुनि के) पैर पकड़कर उसने बहुत प्रकार से विनती करके कहने लगा हे मुनिवर ! अब मैं आपको अपना गुरु मानता हूँ आप मुझे कृपा पूर्वक वर दीजिये ,
राजा कहने लगा हे प्रभो! मेरा शरीर वृद्धावस्था, मृत्यु और दुःख से रहित हो जाए, मुझे युद्ध में कोई जीत न सके और पृथ्वी पर मेरा सौ कल्पतक एकछत्र अकण्टक राज्य हो ऐसा वार दीजिये।
कपटमुनि ने कहा - हे राजन्! ऐसा ही हो, पर एक बात कठिन है, उसे भी सुन लो। हे पृथ्वी के स्वामी! केवल ब्राह्मण कुल को छोड़ काल भी तुम्हारे चरणों पर सिर नवाएगा , तप के बल से ब्राह्मण सदा बलवान रहते हैं। उनके क्रोध से रक्षा करने वाला कोई नहीं है। हे नरपति! यदि तुम ब्राह्मणों को वश में कर लो, तो ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी तुम्हारे अधीन हो जाएँगे।
राजा कपट मुनि की बात सुन कर उनको गुरु मानते हुए प्रश्न करने लगे की हे स्वामी
वे ब्राह्मण किस प्रकार से वश में हो सकते हैं, कृपा करके वह भी बताइए।
कपटमुनि ने कहा -हे राजन्! वह युक्ति तो मेरे हाथ है, और मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, जगत में मुझे कुछ भी दुर्लभ नहीं है पर मेरा जाना तुम्हारे नगर में हो नहीं सकता। जब से पैदा हुआ हूँ, तब से आज तक मैं किसी के घर अथवा गाँव नहीं गया हूँ
पर मैं तुम्हारा कार्य सिद्ध करने के लिए तुम्हारे घर अवश्य आऊंगा।
अब मैं तुमसे कहता हूँ वो ध्यान से सुनो , तुम्हारे यहाँ
नित्य नए एक लाख ब्राह्मणों को कुटुम्ब सहित निमंत्रित करना। मैं तुम्हारे सकंल्प (के काल अर्थात एक वर्ष) तक प्रतिदिन भोजन बना दिया करूँगा , मेरे हाथो बना भोजन ग्रहण करके सभी ब्राह्मण तुम पर प्रसन्न हो कर थोड़े ही परिश्रम से सब ब्राह्मण तुम्हारे वश में हो जाएँगे।
उस दुष्ट ने पिछला बैर याद करके (षड्यंत्र किया) और जिस प्रकार शत्रु का नाश हो, वही उपाय रचा। भावीवश राजा (प्रतापभानु) कुछ भी न समझ सका
जो सूअर था वो कपट मुनि का मित्र हि था , जो महा मायावी था उसी मायावी ने सुअर का भेस धारण कर राजा को घोर जंगल में ले आया था ,
उस रात प्रतापभानु उस कपटमुनि के आश्रम में ही सो गया था , रात गहरी होने के बाद उस कपट मुनि ने अपने मित्र सूअर (कालकेतु) को आज्ञा दी की अब तुम इस राजा को अपने राज्य में पंहुचा कर आ जाओ।
उसने प्रतापभानु राजा को घोड़े सहित क्षणभर में घर पहुँचा दिया। राजा को रानी के पास सुलाकर घोड़े को अच्छी तरह से घुड़साल में बाँध दिया , और उस राजा के पुरोहित को उठा ले गया और माया से उसकी बुद्धि को भ्रम में डालकर उसे उसने पहाड़ की खोह में ला रखा
वह आप पुरोहित का रूप बनाकर उसकी सुंदर सेज पर जा लेटा। राजा सवेरा होने से पहले ही जागा और अपना घर देखकर उसने बड़ा ही आश्चर्य माना
वह पुरोहित के रूपमे आकर ब्रामणो के लिए छह रस और चार प्रकार के भोजन, जैसा कि वेदों में वर्णन है, बनाए। उसने मायामयी रसोई तैयार की और इतने व्यंजन बनाए, जिन्हें कोई गिन नहीं सकता
उस कपट मुनि ने अनेक प्रकार के पशुओं का मांस पकाया और उसमें उस दुष्ट ने ब्राह्मणों का मांस मिला दिया। सब ब्राह्मणों को भोजन के लिए बुलाया और चरण धोकर आदर सहित बैठाया।
ज्यों ही राजा परोसने लगा,
उसी काल (कालकेतुकृत) आकाशवाणी हुई- हे ब्राह्मणों! उठ-उठकर अपने घर जाओ, यह अन्न मत खाओ। इस अन्न को ( खाने) में बड़ी हानि है
रसोई में ब्राह्मणों का मांस बना है।
(आकाशवाणी का) विश्वास मानकर सब ब्राह्मण उठ खड़े हुए। राजा व्याकुल हो गया (परन्तु), उसकी बुद्धि मोह में भूली हुई थी। होनहारवश उसके मुँह से (एक) बात भी न निकली
तब ब्राह्मण क्रोध सहित बोल उठे- उन्होंने कुछ भी विचार नहीं किया- अरे मूर्ख राजा! तू जाकर परिवार सहित राक्षस हो।
रे नीच क्षत्रिय! तूने तो परिवार सहित ब्राह्मणों को बुलाकर उन्हें नष्ट करना चाहा था, ईश्वर ने हमारे धर्म की रक्षा की। अब तू परिवार सहित नष्ट होगा
, एक वर्ष के भीतर तेरा नाश हो जाए, तेरे कुल में कोई पानी देने वाला तक न रहेगा। शाप सुनकर राजा भय के मारे अत्यन्त व्याकुल हो गया। फिर सुंदर आकाशवाणी हुई ,
हे ब्राह्मणों! तुमने विचार कर शाप नहीं दिया। राजा ने कुछ भी अपराध नहीं किया। आकाशवाणी सुनकर सब ब्राह्मण चकित हो गए। तब राजा वहाँ गया, जहाँ भोजन बना था
(देखा तो) वहाँ न भोजन था, न रसोइया ब्राह्मण ही था। तब राजा मन में अपार चिन्ता करता हुआ लौटा। उसने ब्राह्मणों को सब वृत्तान्त सुनाया और (बड़ा ही) भयभीत और व्याकुल होकर वह पृथ्वी पर गिर पड़ा।
ब्राह्मण बोले ,
हे राजन! यद्यपि तुम्हारा दोष नहीं है, तो भी होनहार नहीं मिटता। ब्राह्मणों का शाप बहुत ही भयानक होता है, यह किसी तरह भी टाले टल नहीं सकता
उसके बाद प्रतापभानु को उस शत्रु कपट मुनि ने चारो और से घेरकर उनके वंस का नास कर दिया और वो प्रतापभानु की राज गद्दी पर बैठ गया ,
वे प्रतापभानु ही अपने परिवार सहित राक्षस बने जो रावण , कुम्भकर्ण खरदूषण और सूर्पनखा थी इन सभी का गर्भ स्थापित भी सध्या काल में हुआ। संध्या काल में गर्भ स्थापित होने वाले जीव राक्षस प्रवति के ही होते है , इस परिवार में एक धर्मात्मा विभीषणजी भी थे जिनका गर्भ स्थापित सध्या काल में नही हुआ।
इस कथा का लेखन स्वामी श्री तुलसीदास गोस्वामी जी ने अपनी रामचरित्रमानस में किया है ,( मैं हरिदासी ) उन पुराणपुर्शोतम को वंदन करती हूँ !! जय श्री राम !
{ जय श्री राधे राधे }
प्रतापभानु ने संसार भर को अपनी भुजाओं के बल से वश में कर राजाओं से दंड (कर) ले-लेकर उन्हें छोड़ दिया। उस समय सम्पूर्ण पृथ्वी मंडल का एकमात्र प्रतापभानु ही (चक्रवर्ती) राजा था।
राजा अर्थ, धर्म और काम आदि के सुखों का समयानुसार सेवन करता था ,
राजा प्रतापभानु का बल पाकर भूमि सुंदर कामधेनु (मनचाही वस्तु देने वाली) हो गई। (उनके राज्य में) प्रजा सब (प्रकार के) दुःखों से रहित और सुखी थी और सभी स्त्री-पुरुष सुंदर और धर्मात्मा थे।
वेदों में राजाओं के लिए जो धर्म बताए गए थे, राजा सदा आदर पूर्वक और सुख मानकर उन सबका पालन करता था। प्रतिदिन अनेक प्रकार के दान देता और उत्तम शास्त्र, वेद और पुराण सुनता था।
एक बार वह राजा एक अच्छे घोड़े पर सवार होकर, शिकार का सब सामान सजाकर विंध्याचल के घने जंगल में गया।
राजा ने वन में फिरते हुए एक सूअर को देखा , उस सूअर को देखकर राजा घोड़े को चाबुक लगाकर तेजी से चला और उसने सूअर को ललकारा कि अब तेरा बचाव नहीं हो सकता।
घोड़े को (अपनी तरफ) आता देखकर सूअर पवन वेग से भाग चला। राजा ने तुरंत ही बाण को धनुष पर चढ़ाया , धनुष पर बाण चढ़ा देख सूअर धरती में दुबक गया। वह पशु कभी प्रकट होता और कभी छिपता हुआ भाग जाता था।
वह , सूअर बहुत दूर ऐसे घने जंगल में चला गया, जहाँ हाथी-घोड़े का निबाह (गमन) नहीं था। राजा बिलकुल अकेला था और वन में क्लेश भी बहुत था , पर राजा ने भी उस सूअर का पीछा नही छोड़ा।
राजा को बड़ा धैर्यवान देखकर, सूअर भागकर पहाड़ की एक गहरी गुफा में जा घुसा। उसमें जाना कठिन देखकर राजा को बहुत पछताकर लौटना पड़ा, पर उस घोर वन में वह रास्ता भूल गया , बहुत परिश्रम करने से थका हुआ और घोड़े समेत भूख-प्यास से व्याकुल राजा नदी-तालाब खोजता-खोजता पानी बिना बेहाल हो गया।
वन में फिरते-फिरते उसने एक आश्रम देखा, वहाँ कपट से मुनि का वेष बनाए एक राजा रहता था,
जिसका देश राजा प्रतापभानु ने छीन लिया था और जो सेना को छोड़कर युद्ध से भाग गया था पर , राजा प्यासा होने के कारण (व्याकुलता में) उसे पहचान न सका। सुंदर वेष देखकर राजा ने उसे महामुनि समझा और घोड़े से उतर कर उसे प्रणाम किया, परन्तु बड़ा चतुर होने के कारण प्रतापभानु ने उसे अपना नाम नहीं बताया।
राजा को प्यासा देखकर उसने सरोवर दिखला दिया। हर्षित होकर राजा ने घोड़े सहित उसमें स्नान और जलपान किया , राजा की सारी थकावट मिट गई सुखी हो गया। तब तपस्वी उसे अपने आश्रम में ले गया और सूर्यास्त का समय जानकर उसने (राजा को बैठने के लिए) आसन दिया।
फिर वह तपस्वी कोमल वाणी से बोला ,
तुम कौन हो? सुंदर युवक होकर, जीवन की परवाह न करके वन में अकेले क्यों फिर रहे हो ?
प्रतापभानु ने अपना झूठा परिचय देते हुए कहा हे मुनीश्वर ! सुनिए, प्रतापभानु नाम का एक राजा है, मैं उसका मंत्री हूँ। शिकार के लिए फिरते हुए राह भूल गया हूँ। बड़े भाग्य से यहाँ आकर मैंने आपके चरणों के दर्शन पाए हैं
यहाँ तुलसीदासजी कहते है की जैसी भवितव्यता (होनहार) होती है, वैसी ही सहायता मिल जाती है। या तो वह आप ही उसके पास आती है या उसको वहाँ ले जाती है ,
कपट मुनि ने प्रतापभानु से कहा- हे तात ! अँधेरा हो गया। तुम्हारा नगर यहाँ से सत्तर योजन पर है , हे सुजान! सुनो, घोर अँधेरी रात है, घना जंगल है, रास्ता नहीं है, ऐसा समझकर तुम आज यहीं ठहर जाओ, सवेरा होते ही चले जाना
राजा प्रतापभानु ने सुंदर कोमल वाणी से कहा- हे प्रभो! आपको पिता जानकर मैं ढिठाई करता हूँ। हे मुनीश्वर! मुझे अपना पुत्र और सेवक जानकर अपना नाम (धाम) विस्तार से बतलाइए ?
राजा ने उसको नहीं पहचाना, पर वह राजा को पहचान गया था। राजा तो शुद्ध हृदय था पर वह कपट करने में चतुर था। एक तो वैरी, फिर जाति का क्षत्रिय, फिर वह छल-बल से अपना काम बनाना चाहता था
मुनि ने कपट में डुबोकर बड़ी युक्ति के साथ कोमल वाणी बोला- वैसे तो हमारा नाम एक तनु है पर अब हमारा नाम भिखारी है, क्योंकि हम निर्धन और अनिकेत (घर-द्वारहीन है , उस कपट मुनि ने झूट को ऐसी मधुर वाणी से कहा की राजा उस पर मोहित हो गया और बोला ,
मुनिवर! आप जो हों सो हों (अर्थात् जो कोई भी हों), मैं आपके चरणों में नमस्कार करता हूँ। हे स्वामी! अब मुझ पर कृपा कीजिए।
अपने ऊपर राजा की स्वाभाविक प्रीति और अपने विषय में उसका अधिक विश्वास देखकर , सब प्रकार से राजा को अपने वश में करके, अधिक स्नेह दिखाता हुआ वह (कपट-तपस्वी) बोला- हे राजन्! सुनो, मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, मुझे यहाँ रहते बहुत समय बीत गया ,अब तक न तो कोई मुझसे मिला और न मैं अपने को किसी पर प्रकट करता हूँ, क्योंकि लोक में प्रतिष्ठा अग्नि के समान है, जो तप रूपी वन को भस्म कर डालती है ,
और श्री हरि को छोड़कर किसी से कुछ भी प्रयोजन नहीं रखता। प्रभु तो बिना जनाए ही सब जानते हैं। फिर कहो संसार को रिझाने से क्या सिद्धि मिलेगी।
ज्यों-ज्यों वह तपस्वी उदासीनता की बातें कहता था, त्यों ही त्यों राजा को विश्वास उत्पन्न होता जाता था।
जब उस बगुले की तरह ध्यान लगाने वाले (कपटी) मुनि ने राजा को कर्म, मन और वचन से अपने वश में जाना, तब वह बोला
हे भाई! हमारा नाम एकतनु है। यह सुनकर राजा ने फिर सिर नवाकर कहा- मुझे अपना अत्यन्त (अनुरागी) सेवक जानकर अपने नाम का अर्थ समझाकर कहिए ?
(कपटी मुनि ने कहा-) जब सबसे पहले सृष्टि उत्पन्न हुई थी, तभी मेरी उत्पत्ति हुई थी। तब से मैंने फिर दूसरी देह नहीं धारण की, इसी से मेरा नाम एकतनु है
राजा ( कपटी मुनि ) के नाम का अर्थ सुनकर उस तपस्वी के वश में हो गया और वह उसे अपना नाम बताने लगा।
कपटमुनि ने कहा- राजन ! मैं तुमको जानता हूँ। तुमने कपट किया, वह मुझे अच्छा लगा , अब मैं तुम्हारा परिचय तुम्हे सुनाता हूँ सुनो।
हे राजन ! तुम्हारा नाम प्रतापभानु है, महाराज सत्यकेतु तुम्हारे पिता थे। हे राजन ! गुरु की कृपा से मैं सब जानता हूँ, पर अपनी हानि समझकर कहता नहीं और अब मैं प्रसन्न हूँ, इसमें संदेह न करना। हे राजन्! जो मन को भावे वही वर माँग लो।
सुंदर (प्रिय) वचन सुनकर राजा हर्षित हो गया और (मुनि के) पैर पकड़कर उसने बहुत प्रकार से विनती करके कहने लगा हे मुनिवर ! अब मैं आपको अपना गुरु मानता हूँ आप मुझे कृपा पूर्वक वर दीजिये ,
राजा कहने लगा हे प्रभो! मेरा शरीर वृद्धावस्था, मृत्यु और दुःख से रहित हो जाए, मुझे युद्ध में कोई जीत न सके और पृथ्वी पर मेरा सौ कल्पतक एकछत्र अकण्टक राज्य हो ऐसा वार दीजिये।
कपटमुनि ने कहा - हे राजन्! ऐसा ही हो, पर एक बात कठिन है, उसे भी सुन लो। हे पृथ्वी के स्वामी! केवल ब्राह्मण कुल को छोड़ काल भी तुम्हारे चरणों पर सिर नवाएगा , तप के बल से ब्राह्मण सदा बलवान रहते हैं। उनके क्रोध से रक्षा करने वाला कोई नहीं है। हे नरपति! यदि तुम ब्राह्मणों को वश में कर लो, तो ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी तुम्हारे अधीन हो जाएँगे।
राजा कपट मुनि की बात सुन कर उनको गुरु मानते हुए प्रश्न करने लगे की हे स्वामी
वे ब्राह्मण किस प्रकार से वश में हो सकते हैं, कृपा करके वह भी बताइए।
कपटमुनि ने कहा -हे राजन्! वह युक्ति तो मेरे हाथ है, और मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, जगत में मुझे कुछ भी दुर्लभ नहीं है पर मेरा जाना तुम्हारे नगर में हो नहीं सकता। जब से पैदा हुआ हूँ, तब से आज तक मैं किसी के घर अथवा गाँव नहीं गया हूँ
पर मैं तुम्हारा कार्य सिद्ध करने के लिए तुम्हारे घर अवश्य आऊंगा।
अब मैं तुमसे कहता हूँ वो ध्यान से सुनो , तुम्हारे यहाँ
नित्य नए एक लाख ब्राह्मणों को कुटुम्ब सहित निमंत्रित करना। मैं तुम्हारे सकंल्प (के काल अर्थात एक वर्ष) तक प्रतिदिन भोजन बना दिया करूँगा , मेरे हाथो बना भोजन ग्रहण करके सभी ब्राह्मण तुम पर प्रसन्न हो कर थोड़े ही परिश्रम से सब ब्राह्मण तुम्हारे वश में हो जाएँगे।
उस दुष्ट ने पिछला बैर याद करके (षड्यंत्र किया) और जिस प्रकार शत्रु का नाश हो, वही उपाय रचा। भावीवश राजा (प्रतापभानु) कुछ भी न समझ सका
जो सूअर था वो कपट मुनि का मित्र हि था , जो महा मायावी था उसी मायावी ने सुअर का भेस धारण कर राजा को घोर जंगल में ले आया था ,
उस रात प्रतापभानु उस कपटमुनि के आश्रम में ही सो गया था , रात गहरी होने के बाद उस कपट मुनि ने अपने मित्र सूअर (कालकेतु) को आज्ञा दी की अब तुम इस राजा को अपने राज्य में पंहुचा कर आ जाओ।
उसने प्रतापभानु राजा को घोड़े सहित क्षणभर में घर पहुँचा दिया। राजा को रानी के पास सुलाकर घोड़े को अच्छी तरह से घुड़साल में बाँध दिया , और उस राजा के पुरोहित को उठा ले गया और माया से उसकी बुद्धि को भ्रम में डालकर उसे उसने पहाड़ की खोह में ला रखा
वह आप पुरोहित का रूप बनाकर उसकी सुंदर सेज पर जा लेटा। राजा सवेरा होने से पहले ही जागा और अपना घर देखकर उसने बड़ा ही आश्चर्य माना
वह पुरोहित के रूपमे आकर ब्रामणो के लिए छह रस और चार प्रकार के भोजन, जैसा कि वेदों में वर्णन है, बनाए। उसने मायामयी रसोई तैयार की और इतने व्यंजन बनाए, जिन्हें कोई गिन नहीं सकता
उस कपट मुनि ने अनेक प्रकार के पशुओं का मांस पकाया और उसमें उस दुष्ट ने ब्राह्मणों का मांस मिला दिया। सब ब्राह्मणों को भोजन के लिए बुलाया और चरण धोकर आदर सहित बैठाया।
ज्यों ही राजा परोसने लगा,
उसी काल (कालकेतुकृत) आकाशवाणी हुई- हे ब्राह्मणों! उठ-उठकर अपने घर जाओ, यह अन्न मत खाओ। इस अन्न को ( खाने) में बड़ी हानि है
रसोई में ब्राह्मणों का मांस बना है।
(आकाशवाणी का) विश्वास मानकर सब ब्राह्मण उठ खड़े हुए। राजा व्याकुल हो गया (परन्तु), उसकी बुद्धि मोह में भूली हुई थी। होनहारवश उसके मुँह से (एक) बात भी न निकली
तब ब्राह्मण क्रोध सहित बोल उठे- उन्होंने कुछ भी विचार नहीं किया- अरे मूर्ख राजा! तू जाकर परिवार सहित राक्षस हो।
रे नीच क्षत्रिय! तूने तो परिवार सहित ब्राह्मणों को बुलाकर उन्हें नष्ट करना चाहा था, ईश्वर ने हमारे धर्म की रक्षा की। अब तू परिवार सहित नष्ट होगा
, एक वर्ष के भीतर तेरा नाश हो जाए, तेरे कुल में कोई पानी देने वाला तक न रहेगा। शाप सुनकर राजा भय के मारे अत्यन्त व्याकुल हो गया। फिर सुंदर आकाशवाणी हुई ,
हे ब्राह्मणों! तुमने विचार कर शाप नहीं दिया। राजा ने कुछ भी अपराध नहीं किया। आकाशवाणी सुनकर सब ब्राह्मण चकित हो गए। तब राजा वहाँ गया, जहाँ भोजन बना था
(देखा तो) वहाँ न भोजन था, न रसोइया ब्राह्मण ही था। तब राजा मन में अपार चिन्ता करता हुआ लौटा। उसने ब्राह्मणों को सब वृत्तान्त सुनाया और (बड़ा ही) भयभीत और व्याकुल होकर वह पृथ्वी पर गिर पड़ा।
ब्राह्मण बोले ,
हे राजन! यद्यपि तुम्हारा दोष नहीं है, तो भी होनहार नहीं मिटता। ब्राह्मणों का शाप बहुत ही भयानक होता है, यह किसी तरह भी टाले टल नहीं सकता
उसके बाद प्रतापभानु को उस शत्रु कपट मुनि ने चारो और से घेरकर उनके वंस का नास कर दिया और वो प्रतापभानु की राज गद्दी पर बैठ गया ,
वे प्रतापभानु ही अपने परिवार सहित राक्षस बने जो रावण , कुम्भकर्ण खरदूषण और सूर्पनखा थी इन सभी का गर्भ स्थापित भी सध्या काल में हुआ। संध्या काल में गर्भ स्थापित होने वाले जीव राक्षस प्रवति के ही होते है , इस परिवार में एक धर्मात्मा विभीषणजी भी थे जिनका गर्भ स्थापित सध्या काल में नही हुआ।
इस कथा का लेखन स्वामी श्री तुलसीदास गोस्वामी जी ने अपनी रामचरित्रमानस में किया है ,( मैं हरिदासी ) उन पुराणपुर्शोतम को वंदन करती हूँ !! जय श्री राम !
{ जय श्री राधे राधे }
No comments :
Post a Comment