श्रीसीता स्वयंवर
श्री सीता राम , लक्ष्मण उर्मिला , भरत जी मांडवी और शत्रुघ्न श्रुतकीर्ति के शुभ विवाह का भजन !
आज मिथला नगरिया निहाल सखियाँ !
चारों दूल्हा में बड़का कमाल सखियाँ !!
माथे मणि मोरिया कुंडल सोहे कानवा !
कारें कारें कजरारे जुल्मी नयनवा !!
लालचंदन सोहे इनके भाल सखियाँ !
चारों दूल्हा में बड़का कमाल सखियाँ !!
सावर सावर गोरे गोरे जोड़ियां जवान है !
आंखियां देखलि सुनलिनी कान है !!
जुग जुग जोड़ी जीवे बे मिसाल सखियाँ !
चारों दूल्हा में बड़का कामल सखियाँ !!
गगन मगन आज मगन धरतीयाँ !
देख देख दूल्हा जीके सावरी सुरतियाँ !!
बाल , वृद्ध , नर , नारी सब बेहाल सखियाँ !
चारों दूल्हा में बड़का कमाल सखियाँ !!
आज मिथला नगरिया निहाल सखियाँ !
चारों दूल्हा में बड़का कमाल सखियाँ!!
{ जय जय श्री राधे }
प्रभु श्रीराम की नरलीला !!
चम्पा - चमेली तुही बतादे !
सीता कहाँ पुकारे राम.... ?
रावण
ने जब मायावी सीताजी का हरण किया उस समय भगवान श्रीराम नर लीला करते हुए
साधारण मनुष्यो की भांति , विलाप करने लगे-) हा गुणों की खान जानकी! हा
रूप, शील, व्रत और नियमों में पवित्र सीते... !
और वृक्षों की पंक्तियों से पूछते हुए चलते है ..
* हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी। तुम्ह देखी सीता मृगनैनी॥
खंजन सुक कपोत मृग मीना। मधुप निकर कोकिला प्रबीना ॥
भावार्थ:-
हे पक्षियों! हे पशुओं! हे भौंरों की पंक्तियों! तुमने कहीं मृगनयनी सीता
को देखा है? खंजन, तोता, कबूतर, हिरन, मछली, भौंरों का समूह, प्रवीण कोयल,॥
प्रभु
श्रीराम बाकि रास्ते में तो लक्ष्मण जी को अच्छी - अच्छी कथाये सुनाते
चलते है , की हे भरत ! तुम सावधान हो कर सुनो, जिसका मेरा गुण गाते समय
शरीर पुलकित हो
जाए, वाणी गदगद हो जाए और नेत्रों से (प्रेमाश्रुओं का) जल बहने लगे और
काम, मद और दम्भ आदि जिसमें न हों, हे भाई! मैं सदा उसके वश में रहता हूँ..
अनेको ज्ञानोपदेश देते है पर जैसे ही ऋषि मुनियो के आश्रम देखते है , वे
पुरषोतम भगवान जोर - जोर से रोने लग जाते है। एक साधारण मनुष्य की भाति
पत्नी के वियोगमे रुदन करने लगते है , उनके पीछे - पीछे चलते हुए लक्ष्मण
जी को भी रोना पड़ता है , फिर जैसे कुछ दूर गए तो रोना बंद, और ज्ञानोपदेश
शुरु।
लक्ष्मण जी ने सोचा की भैया बाकि रास्ते तो अनेको ज्ञानोपदेश
देते चलते है पर जैसे ही ऋषियों के आश्रम देखते है ये साधारण मनुष्यो की
भाति रोने क्यों लग जाते है ?
लक्ष्मण जी इस बात को समझ नही पाये पर भगवान उनके लिए रो रहे है जिनको अग्नि में सुरक्षित रख आये है।
यहाँ भगवान ने सीता मईया से कहा की ,
"सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला। मैं कछु करबि ललित नरलीला॥
तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा। जौ लगि करौं निसाचर नासा॥
अर्थात:-
हे प्रिये! हे सुंदर पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली सुशीले! सुनो! मैं अब
कुछ मनोहर मनुष्य लीला करूँगा, इसलिए जब तक मैं राक्षसों का नाश करूँ, तब
तक तुम अग्नि में निवास करो।
जब सीता जी का हरण हुआ ही नही तो रुधन क्यों ? इसपर
भक्तो
के भाव है की भगवान ऋषियों के आश्रम के आगे से साधारण मनुष्य की भाति
पत्नी के वियोग में इसलिए रुधन करते हुए चल रहे है , मानो ये सिद्ध ऋषियों की
पहचान करते हुए चल रहे हो।
कुछ ऋषि मुनि ब्रह्मचर्य बने बैठे है ,
कुछ पत्नी के साथ रहते है ,
और कुछ ये सोच रहे है की पत्नी का होना तो जरुरी है ताकि समय पर भोजनादि मिलता रहे।
अब
भगवान को पत्नी के वियोगमे रोते देख कुछ ऋषि बोले अरे भाई ! देखो - देखो
ये राजा सम्राट दशरथ के पुत्र कौशल्यानंदन होते हुए भी अपनी पत्नी के
वियोग में रो रहे है फिर हमतो ठहरे साधारण मनुष्य कही हमारी पत्नी का भी
कोई अपहरण न करले सो चौकन्ने हो जाओ। उनका चित भगवान से कुछ हठ कर
स्त्रियों में लग गया , वे नाम के ऋषि मुनि रह गए।
कुछ ऋषि रामजी को
देख कर ये सोचते थे की अरे भाई ! देखो स्त्री का होना कितना आवश्यक है , ये
भगवान होते हुए भी इनको स्त्री की कितनी आवश्यकता है फिर हमतो ठहरे मृत्युलोक के
साधारण मनुष्य इसलिए हमे भी विवाह कर लेना चाहिए वे ऋषि मुनि अधकचरे
ब्रह्मचर्य थे जिनका मन भोगविलास में रमणित हो रहा था।
कुछ ऋषियों
ने सोचा की ये साक्षात परमब्रह्म परमात्मा होते हुए भी एक साधारण मनुष्य की
भाति पत्नी के वियोग मे पड़े हुए है , मानो ये हमको संकेत दे रहे है की तुम
ब्रह्मचर्य व्रत करते हुए भी पत्नी में आशक्ति रखते हो तो सोचलो तुम्हे भी
मेरी तरह रोना पड़ेगा।
उस समय कहते है की जो ऋषि मुनि अपनी पत्नियों के साथ रह रहे थे उन सिद्ध ऋषियों ने अपनी पत्नियों को आश्रमसे बाहर निकाल दिया।
अब सोचने की बात है की भगवान ने ऐसा क्यों किया भगवान को ऐसा संकेत नही देना चाहिए।
हम
साधारण मनुष्य के भीतर ऐसे ही सवाल उत्पन होंगे पर जो भगवतशरणागत हो गए
जिन्होंने भगवान के नाम का सुहाग का चोला पहन रखा हो , जो संत पोशाक होती
है , वे सोचते है हमको कुल्टा स्त्री नही बनना , हम भगवान की पतिव्रता नारी
ही रहना चाहते है , क्योंकी भगवान जगतपति है , उस नाते ये जितने भी जीव है
सब भगवान की स्त्रीया है , विश्व भरका दूल्हा तो एक ठाकुरजी ही है ,
ऐसे
महात्माओ के लिए भगवान को छोड़ कर और किसी की कोई आवश्यकता नहीं।
भगवान
का भी अपने प्राण प्यारे भक्तो के प्रति ऐसा ही भाव होता है की जो निष्काम
भाव से मुझे भजता है जो अकिंचन हो , जो मुझको ही गुरु, पिता, माता, भाई,
पति और देवता सब कुछ जाने और सेवा में दृढ़ हो उन्हें मेरी प्राप्ति सहज ही
हो जाती है , फिर वो मुझमे और मैं उनमे रमण करने लग जाते है , उस आत्मा में
और मुझ परमात्मा में कोई अंतर नही रह जाता।
भगवन ओरु भगतन में अंतर निरंतर नाही !
भगवन ही भगतनका रूपधरी आये है !!
भगवान और भक्तके प्रति ऐसे ही मेरे भाव है.. कुछ गलती हो तो क्षमा कीजियेगा !
जय श्री राम !!
{ जय जय श्री राधे }