Monday, 23 April 2012

चंदा की चांदनी में यमुना के तीरे, मस्ती से बांसुरी बजाये धीरे धीरे   
मदन गोपाल प्यारो मदन गोपाल
मधुबन के कुंजन में मनहर की बातें, छोटे से कन्हैय्या की ऊंची ऊंची  बातें,
मदन गोपाल प्यारो मदन गोपाल

बढ़ता रहे नित्य वियोग में जो, वह प्राप्त हुए पर ध्यान कहा है
(गोपियों के ह्रदय में श्री कृष्ण के प्रति जो अपर प्रेम है, उसको संसार  को व्यक्त करने के लिए, श्री कृष्ण जी अंतर्ध्यान होते है. जैसे किसी कमरे में बल्ब जल रहा हो, तो लाइट का मोल नहीं. बल्ब बंद करते ही...)
पिता पालक रक्षा तुम्ही करना, मन पापी हमारे समान कहा है
हुए रूप से गर्विता गोपियाँ भी, कलि जीवों का तुच्छ  विधान कहाँ हैं?
हरी अंतर्ध्यान तुरंत हुए, जहाँ मान वहां भगवान् कहाँ हैं?

(सख्य या वात्सल्य भाव में प्रभु  के अतिरिक्त और चीज़ों का देखना विकार नहीं है. लेकिन कान्त भाव में श्याम सुन्दर के अतिरिक्त कुछ भी दिखे, वोह दोष है. गोपियों का  मिलन के समय के समय ध्यान अपने सौभाग्य पर चला गया. तुरंत श्याम सुन्दर अन्तेर्ध्याँ हो गए)

ब्रिजराज कुमार खड़े थे जहाँ, वहां विव्हल हो कर लेटने दौड़ी
कुछ कूद पड़ी यमुना जल में, विरहानल ज्वाला को मेटने दौड़ी,
पदचिन्हे बने जिस मेंद्वानी पर, उस ठौर की धूल समटने दौड़ी
मनमोहनी वंशी बजायी जहाँ, वट वल्लरी वृन्द को भेटने दौड़ी
हा कृष्ण प्यारे, हा श्याम प्यारे...

बिना पागल प्रेमियों के जग में, रुचती मन में यह राह किसे है
ब्रिज्गोपियों के अतिरिक्त भला, प्रभु प्रेम पयोधि की थाह किसे है ?
जब जीवन नाथ ने साथ तजा,  तब जीवन की रही चाह किसे है
पता पूछती वृक्षों से श्याम कहाँ,  जड़ चेतन की परवाह किसे है
(सारा अहंकार... ममता सब विगलित हो गया... जड़ चेतन का भेद भी मिट गया...)
हा कृष्ण प्यारे, हा श्याम प्यारे...

वरवंश  तुम्हारे ही अंश से तो, उपजी वरवंशी भरे रस प्याला
(बांस का पेड़ देख कर पूछती है उससे, तुम इतने ऊचे हो.. देख कर बताओ कहा है कृष्ण)
जिसकी ध्वनी विश्व में गूंज रही, जिसने हमें पागल सा कर डाला
हरे कृष्ण दावाग्नि समान बढ़ी, उर में विराहग्नि की भीषण ज्वाला
तुम प्रेमी पुरातन हो जिसके, कहो बांस कहाँ है वोह मुरली वाला

फिर गोपियों को गिरिराज दिखाई देते है... उनसे पूछती है...

कपिलाये चराते जो नित्य रहे, वोह ग्वारियों के सिरताज कहा हैं
नख ऊपर धारा जिन्होंने तुम्हे, हमें ताज भाग गए वोह आज कहाँ हैं
हरे कृष्ण मुमुर्शु समान हुई, बिना साजन के सुखसाज कहाँ हैं
बड़े ऊचे विराजते हो वन में, गिरिराज कहो ब्रिजराज कहाँ हैं?
 हा कृष्ण प्यारे, हा श्याम प्यारे...

(गोपियों को खयाला आता है... की अगर हम उनको धोंधने के लिए जायेंगे, तो वोह छिपने के लिए और अँधेरे में कंटीले झड़ी में जा सकते है. इससे श्री कृष्ण को हम दुःख ही देंगी. यह सोच कर जहाँ से कृष्ण अंतर्ध्यान हुए थे वही आकर बैठ जाती है. और यहाँ से गोपीगीत शुरू होता है...)

कृष्ण तुव जन्म से ब्रिज की शोभा बढ़ी, रमा देवी ने नित्य निवास किया
उगला धनधान्य वसुंधरा ने, फला अन्न त्रिनादी  का दान दिया
हरे कृष्ण त्रिताप का नाम नहीं, वैकुण्ठ से बढ़ कर सुख लिया
करूणानिधि रूठ गए फिर क्यों, वन में तज के निज प्राणप्रिया?

तुम केवल नन्द के लाला नहीं,  सब प्राणियों के उर अंतर्यामी
(प्रेमी को अगर पूर्ण ज्ञान न हो.. यह संभव है की जिसके प्रति प्रेम हो उसके बारे में पूर्ण ज्ञान नहो... तो प्रेम नहीं टिक सकता..)
सुरव्रंद की प्रार्थना से प्रकटे, भवभार उतारने को खग गामी
हरे कृष्ण अनादी अनंत तथा, अविनाशी अनित्य निरीह निकामी
कृपया मम मस्तक पर पे अपना, धरिये कर कोमल श्रीपति स्वामी
(मस्तक पर हाथ, वक्षस्थल पर चरण रख दो... यह कामनाये गोपीगीत में है... चार stages है प्रार्थना की - पहले गायन, फिर प्रलाप, फिर रूदन या विलाप ....)

तैने कहा लगायी  इतनी देर अरे ओ सांवरिया ......

(इन  चेष्टाओं  से  गोपियाँ  अब  मुर्तिमंत्र  श्री  कृष्ण  दर्शन  लालसा  बन  गयी  है)
तन में ममता नहीं शेष बची, मन में महाभाव की भीड़ बनी थी
मिटी वासना दिव्य प्रकाश हुआ,  कटी वेगी जो कर्म की रज्जू तनी थी
उपमा कही ढूंढे नहीं मिलती, ब्रिजसुन्दरी जैसे सनेहसनी थी
हरे कृष्ण यही कहना पड़ता, वे कृष्ण के ध्यान में कृष्ण बनी थी

दृग कन्दरा निर्झर से बरसे, नहीं जान पड़े विधि अब क्या होना
(इतना संताप देख कर ब्रह्मा जी की सृष्टि अचंभित हो गयी... सारे ब्रह्माण्ड के पाप मिल कर इतना संताप किसी को नहीं दे सकते जितना गोपिया महसूस कर रही थी... )
बढती जब पीड़ा असह्य बढ़ी, तब सूझता जीव को जीवन खोना...
(गोपिया सोचती है की अगर हम जीवन की इहलीला समाप्त कर देती है, तो वोह यह बात सुनेंगे... तो उन्हें दुःख होगा... तो हम कृष्ण जी यह दुःख नहीं दे सकती... तो गोपिय जीवित रहने का निर्णय लेती है)

दृग कन्दरा निर्झर से बरसे, नहीं जान पड़े विधि अब क्या होना
बढती जब पीड़ा असह्य बढ़ी, तब सूझता जीव को जीवन खोना
करके सब संभव यत्न थकी, मिलता नहीं सुन्दर श्याम सलोना... 
                { जय जय श्री  राधे } 
लुकमान से किसी ने पूछा-आपने ऐसी तमीज किस से सीखी, उन्होने जवाब दिया बदतमीजो से। वे जो करते हैं, भोगते है उसका मैने ध्यान रखा और अपनी आदतो को उस कसौटी पर कस कर सही किया ।
भगवान तो दर्शन देने के लिए तैयार  हैं ,लेकिन हम ही उनके स्वागत के लिए तैयार नहीं होते ! भगवान् कहते हैं -बैठू कहाँ तेरे आँगन में तो तुमने वहां गैर बैठा रखे हैं 

 ठाकुर जी के चरण इतने प्यारे है ,की मनो नजर अटक गयी हो 
 
एक बार एक व्यक्ति श्रीधाम वृंदावन में दर्शन करने गया.दर्शन करके लौट रहा था.तभी एक संत अपनी कुटिया के बाहर बैठे बड़ा अच्छा पद गा रहे थे कि "हो..नयन हमारे अटके श्री बिहारी जी के चरण कमल में" बार-बार यही गाये जा रहे थे तभी उस व्यक्ति ने जब इतना मीठा पद सुना तो वह आगे न बढ़ सका, और संत के पास बैठकर ही पद सुनने लगा. 

और संत के साथ-साथ गाने लगा. कुछ देर बाद वह इस पद को गाता-गाता अपने घर गया, और सोचता जा रहा था कि वाह! संत ने बड़ा प्यारा पद गाया. जब घर पहुँचा तो पद भूल गया अब याद करने लगा कि संत क्या गा रहे थे, बहुत देर याद करने पर भी उसे याद नहीं आ रहा था. फिर कुछ देर बाद उसने गाया. "हो..नयन बिहारी जी के अटके,हमारे चरण कमल में..." उलटा गाने लगा.

उसे गाना था नयन हमारे अटके बिहारी जी के चरण कमल में.अर्थात बिहारी जी के चरण कमल इतने प्यारे है कि नजर उनके चरणों से हटती ही नहीं है.नयन मानो वही अटक के रह गए है.


पर वो गा रहा था कि बिहारी जी के नयन हमारे चरणों में अटक गए,अब ये पंक्ति उसे इतनी अच्छी लगी कि वह बार-बार बस यही गाये जाता, आँखे बंद है बिहारी के चरण ह्रदय में है और बड़े भाव से गाये जा रहा है. जब उसने ११ बार ये पक्ति गाई, तो क्या देखता है सामने साक्षात् बिहारी जी खड़े है. झट चरणों में गिर पड़ा.बिहारी जी बोले भईया ! एक से बढकर एक भक्त हुए. पर तुम जैसा भक्त मिलना बड़ा मुश्किल है लोगो के नयन तो हमारे चरणों के अटक जाते है पर तुमने तो हमारे ही नयन अपने चरणों में अटका दिए.और जब नयन अटक गए तो फिर दर्शन देने कैसे नहीं आता.भगवान बड़े प्रसन्न हो गए.


वास्तव में बिहारी जी ने उसके शब्दों की भाषा सुनी ही नहीं क्योकि बिहारी ही शब्दों की भाषा जानते ही नहीं है वे तो एक ही भाषा जानते है वह है भाव की भाषा,भले ही उस भक्त ने उलटा गाया पर बिहारी जी ने उसके भाव देखे कि वास्तव में ये गाना तो सही चाहता है शब्द उलटे हो गए तो क्या भाव तो कितना उच्च है.सही अर्थो में भगवान तो भक्त के ह्रदय का भाव ही देखते है.      
   { जय जय श्री  राधे }  
  

Saturday, 14 April 2012


तुम्हारा क्या गया जो तुम रोते हो? तुम क्या लाए थे, जो तुमने खो दिया? तुमने क्या पैदा किया था, जो नाश हो गया? न तुम कुछ लेकर आए, जो लिया यहीं से लिया। जो दिया, यहीं पर दिया। जो लिया, इसी (भगवान) से लिया। जो दिया, इसी को दिया।....

जो हुआ वह अच्छा  हुआ जो हो रहा है, वह अच्छा हो रहा है, जो होगा, वह भी अच्छा ही होगा। तुम भूत का पश्चाताप न करो। भविष्य की चिन्ता न करो। वर्तमान चल रहा है।  
                                 एक बार राधा ने श्री कृष्ण से पूछा की हे कृष्ण  तुम प्रेम तो मुझ से कर्तेह हो परन्तु
तुम ने विवाह मुझ से नही किया ऐसा क्यों ? मै अच्छे से जानती हूं तुम
साक्षात भगवान ही हो  और तुम कुछ भी कर सकते हों ,भग्य का लिखा
बदलने में तुम सक्षम हों ,फिर भीतुमने रुकमणी से शादी की ,मुझ से नही
 राधा की यह बात सुनकर श्रीक्रष्ण ने उत्तर दिया -हे राधे विवाह दो लोगों के
 बिच होता है विवाह के लिए दो अलग - अलग व्यक्तियों की आवश्यकता होती है .
 तुम मुझे यह बताओ राधा और कृष्ण में दूसरा कोंन है..हम तो एक ही है
 हम तो एक ही है फिर हमे विवाह की क्या आवश्यकता है नि: स्वार्थ प्रेम विवाह बंधन से
 अधिक महान और पवित्र होता है..इसलिए राधा कृष्ण नि: स्वार्थ प्रेम की
 प्रतिमूर्ति है और सदैव पूजनीय है !            
इश्वर से हमेसा येही प्रार्थना करे की हे इश्वर सब-के-सब सुखी हो जायँ, सब-के-सब निरोग हो जायँ, सबके जीवनमें मंगल-ही-मंगल हो, कभी किसीको दु:ख न हो- ऐसा भाव हमारेमें हो जायगा तो दुनियामात्र सुखी होगी कि नहीं, इसका पता नहीं, परन्तु हम सुखी हो जायँगे, इसमें सन्देह नहीं।