Wednesday, 22 July 2015

           मना मनोरथ छोड़  दे तेरा किया न होय !
           पानी में घी निपजे तो लूका खायन कोय !!


हमारे मन की हो जाय , भाई , बंधो , सगे , सम्बन्धी सब हमारे अनुकूल हो जाये , संसार में मान सम्मान, बड़ाई मिल होजाये , लोग हमे अच्छा कहे ,हमारी प्रतिष्ठा बढ़ जाये। ये लालसा प्रत्येक व्यक्ति के भीतर रहती है पर ऐसा कभी होता नही और कुछ समय के लिए हो भी जाये तो सदा टिकता नही |
नाश्वान शरीर को मान बड़ाई में लगने से जीव बंधन में बंधता है
और मनुष्य का पतन होता है पर जब इन सबकी लालसा छूट जाये तो जीव मुक्त होता है और मनुष्य जाती की प्रगति होती है।

संसार में जहा मान बड़ाई प्रतिष्ठा दिखती है वो असल में बंधन का कारण है और जहा मान बड़ाई प्रतिष्ठा की लालसा न हो वह मुक्ति का कारण है।

भगवान हमारे मन की न करे , हमे कोई मान सम्मान न दे ,
केवल हम भगवान के है और एक भगवान ही हमारे अपने है इस के अतिरिक्त हमे जो भी याद हो वो यादास्त ( छीन जाये ) प्रभु ऐसी कृपा करो। ये लालसा हो तो परमात्मा की प्राप्ति उसी क्षण हो जाती है।
       
भगवान कहते है की जो जीव सच्चे ह्रदय से मेरी शरण में आ जाता है और कहता है की
हे नाथ ! मैं आपका हूँ ,तो में उसी क्षण उसके सारे बंधन काट कर उसे मुक्त कर देता हूँ। उस जीव पर कृपा करना सुरु कर देता हूँ ,
जो बंधन के रास्ते बने हुए है उन सब से छुड़ा कर उन्हें मेरी प्राप्ति करा देता हूँ |

जो मेरी प्राप्ति में रोड़ा बने बैठे है उनके सगे , सम्बन्धीयो से उनकी खट - पट करवा देता हूँ फिर वो मुझ में और मैं उनमे रमण करने लगते है......।
ये बिलकुल सच्ची और पक्की बात।
 मनुष्य शरीर परमात्माकी प्राप्तिके लिए ही मिला है बाकि सब कार्य तो पशु पक्षी की योनिमे भी किये जा सकते है पर भगवान की प्राप्ति केवल मानव शरीर मिलने पर ही की जा सकती है।

 जय श्री राधे राधे!


                     अयोध्या निर्माण की कथा !

ये बात पिछले पोस्ट में लिखी हुई है की जब प्रभु श्रीराम अपने धाम गए तब अयोध्या के पेड़ , पोधे वृक्ष , लताये जड़ के सहित उखड- उखड कर भगवान के साथ , भगवत धाम- साकेत में चले गए। यहाँ तक की जब पर्वतोने देखा की प्रभु श्रीराम अपने धाम जा रहे है तब ( जड़ भी चेतन बन कर ) वे पर्वत भी प्रभु श्रीराम के साथ चल पड़े। 

अयोध्या की भूमि सुनी सी हो गयी अयोध्याजी स्त्री के रूपमे प्रकट हो कर विलाप करने लगी की , अरे ! मैं कैसी अभागन हूँ जो यहाँ पड़ी- पड़ी अपने आपको उजड़ती हुई देख रही हूँ..

एक दिन अयोध्या जी दुखी मन से ( सरयूजी नदी )के पास जा कर विलाप करने लगी की , बहिन ! अब तुम्हारा होना भी व्यर्थ रह गया है , मेरे उजड़ जाने से अब हम अकेली रह गयी है। अयोध्या जी और सरयूजी अथाह दुःख के समुन्द्र में डुबी हुई प्रभु श्रीराम की बाते कर रही थी और आँखोसे अश्रुधार बहा रही थी। 
उतने में एक राजकुमार घोड़े पर सवार , हाथ में धनुषबाण लिए वहा से गुजर रहे थे। उस राजकुमारने देखा की यहाँ की भूमि इतनी उजड़ी सी क्यों लग रही है ? यहाँ के पेड़ , पोधे , वृक्ष , लताये कहा चले गए ?

राजकुमारने देखा की दो स्त्रियां सरयूजी के किनारे बैठी दुखी मन से विलाप कर रही है , उनके नेत्रों से झर - झर आसु बह रहे है |

राजकुमार घोड़े से उतरकर उन माताओ को प्रणाम करके कहा की , हे देवियो ! आप कौन है और आप रो क्यों रही हो ?

अयोध्याजी ने कहा महाराज ! मैं यहाँ की भूमि अयोध्या हूँ और ये मेरी सखी सरयूजी है , आप हमारे रोनेका कारण पूछ रहे है पर क्या कहे कुछ कहने की बात नही है ,
पर आप पूछ रहे है तो हम बता देती है

अयोध्याजी ने कहा महाराज ! कुछ काल पहले एक डाकू आया था उसने हमे खूब आनंद दिया था हम उनके आने से धन्य हो गयी थी पर जाते समय वो डाकू यहाँ की सारी सम्पति को लूट कर ले गया हमे उजाड़ कर चला गया

राजकुमारने धनुस पर प्रतंजा चढ़ा कर क्रोधमे भरकर कहा , मा
ताजी ! मैं आपको वचन देता हूँ , मैं सिग्र ही उस डाकू को युद्धमे जीत कर आप की सम्पति आप को वापिस दिलवाकर ही जाऊंगा , आप हमे उस डाकू का नाम बताईये ?

अयोध्या जी बोली , महाराज ! उस डाकू पर आपके धनुस का कोई असर नही पड़नेवाला वे बहुत बलसाली है वे युद्धमे जीते नही जा सकते , वे तो प्रेम से जीते जा सकते है।

राजकुमार   आश्चर्य में पड़गए की डाकू को प्रेम से जीता जा सकता है ! ऐसा कैसा डाकू है ? पर जो भी है आप मुझे उनका नाम बताईये ?

अयोध्याजी ने कहा "वे अखिलब्रह्मांढ नायक परब्रह्मपरमेशवर है मुझे शोभायमान करने के लिए इस धरती पर  (राजा दशरत जी के पुत्र ) बन कर आये थे जो आपके ( पिता श्री राम है ) वहीं  मुझे उजाड़ कर चले गए है।
यहाँ के पेड़ , पोधे , वृक्ष , लताये सब जड़ के सहित उखड़ कर उनके साथ चले गए और में यहाँ उजड़ कर रह गयी हूँ।

वे राजकुमार कोई और नही थे भगवान श्रीराम के छोटे ( पुत्र कुश ) थे महाराज श्री कुश ने कहा ,
माताजी ! अब मैं आप को वचन दे चूका हूँ की आपकी सम्पति आपको दिलवाकर ही जाऊंगा सो में मेरा वचन पूरा कर के ही  जाऊंगा , पर उसमे आपको मेरी सहायता करनी होगी , आप कृपा करके मुझे बताईये , आप जिस रूप में प्रभु श्रीराम के रहने पर  शोभायमान थी , वे सभी यथा योग्य स्थान मुझे बता दीजिये ?
उसके बाद अयोध्याजी और सरयूजी ने प्रभु श्रीराम की बाल लीलाओ का चरित्र सुना कर जहा - जहा भगवान श्रीराम ने जो लीलाये की वे इस्थान बताये।

अयोध्याजी और सरयूजी के बताये हुवे इस्थान को महाराज ( कुश ) ने यथा योग्य फिरसे स्थापित किया। वे अयोध्याजी फिरसे सज गयी वहां के पेड़ ,पोधे , वृक्ष , लताये फिरसे लहराने लगे।
अयोध्या जी की सम्पति लोटा कर कुश महाराज अपनी राजधानी ( कुशावती ) को चल दिए।

भगवान श्री कृष्ण की उजड़ी हुयी भूमि को उनके पड़पौत्र ( व्रजनाभ जी ) ने फिरसे बसाया था और प्रभु श्रीरामकी जन्म भूमि अयोध्याजी को उनके छोटे पुत्र महाराज ( श्री कुश ) ने बसाया था ऐसा हमे पौराणिक ग्रंथो से मालूम होता है और अनुभव भी....!!

जय श्री सीताराम !
       { जय जय श्री राधे !}
प्रभुश्रीराम जी का अपने धाम पधारना और श्रीसीताजी की निंदा करने वाले धोबी पर श्रीराम जी की कृपा !

जब भगवान श्रीराम अपने धाम को चले उस समय उनके साथ अयोध्याके सभी पशु - पक्षी, पेड़- पोधे मनुष्य भी उनके साथ चल पड़े। उन मनुष्यो में श्रीसीताजी की निंदा करने वाला धोबी भी साथ में था , भगवान ने उस धोबी का हाथ अपने हाथ में पकड़ रखा था और उनको अपने साथ लिए चल रहे थे।
जिस - जिस ने भगवान को जाते देखा वे सब भगवान के साथ चल पड़े कहते है की वहां के पर्वत भी उनके साथ चल पड़े।  

सभी पसु पक्षी पेड़ पोधे पर्वत और मनुष्यों ने जब साकेत धाम में प्रवेश होना चाहा तब साकेत का द्वार खुल गया पर जैसे ही उस निंदनीय धोबी ने प्रवेश करना चाहा तो द्वार बंद हो गया।

साकेत द्वारने भगवानसे कहा  महाराज ! आप भलेही इनका हाथ पकड़ले पर ये जगतजननी माता श्रीसीताजी की  निंदा कर चूका है इसलिए ये इतना बड़ा पापी है की मेरे द्वारसे साकेत में प्रवेश नही कर सकता।

जिस समय भगवान सब को लेकर साकेत जा रहे थे उस समय सभी देवी - देवता आकाश मार्ग से देख रहे थे ,

की माताजी की निंदा करने वाले पापी धोबी को भगवान कहा भेजते है।

भगवान ने द्वारबन्द होते ही इधर - उधर देखा तो ब्रह्माजीने सोचा की कही भगवान इस पापि को मेरे ब्रह्मलोक में न भेजदे , वे हाथ हिला - हिला कर कहने लगे , महाराज ! इस पापिके लिए मेरे ब्रह्मलोक में कोई स्थान नही है।

इन्द्रने सोचा की कही मेरे इन्द्रलोक में न भेजदे , इंद्र भी घबराये , वे भी हाथ हिला - हिला कर कहने लगे , महाराज ! इस पापिको मेरे इन्द्रलोक में भी कोई जगह नही है।

ध्रुवजीने सोचा की कही इस पापी को मेरे ध्रुवलोक में भेज दिया तो इसका पाप इतना बड़ा है की इसके पापके बोझसे मेरा ध्रुवलोक घिर कर निचे आ जायेगा ऐसा विचार कर ध्रुवजी भी हाथ हिला - हिला कर कहने लगे महाराज ! आप इस पापिको मेरे पास भी मत भेजिएगा।

जिन - जिन देवताओंका एक अपना अलगसे लोक बना हुआ था उन सभी देवताओंने उस निंदनीय पापी धोबीको अपने लोकमे रखने से मना कर दिया।

भगवान खड़े - खड़े  मुस्कुराते हुए सबका चेहरा देख रहे है पर कुछ बोलते नही |

उस देवताओ की भीड़ में यमराज भी खड़े थे , यमराजने सोचा की ये किसी लोक में जानेका अधिकारी नही है अब इस पापी को भगवान कहि मेरे यहाँ नही भेजदे और माता की निंदा करनेवाले को में अपनी यमपुरी में नई रख सकता वे घबराकर उतावली वाणीसे बोले ,
महाराज ! महाराज ! ये इतना बड़ा पापी है की इसके लिए मेरी यमपुरी में भी कोई जगह नही है।

उस समय धोबीको घबराहट होने लगी की मेरी दुर्बुद्धीने इतना निंदनीय कर्म करवादिया की यमराज भी मुझे नही रख सकते!

भगवान ने धोबी की घबराहट देख कर धोबी की और संकेत से कहा तुम घबराओ मत ! मैं अभी तुम्हारे लिए एक नए साकेत का निर्माण करता हूँ , तब भगवानने उस धोबीके लिए एक अलग साकेत धाम बनाया।
यहाँ एक चोपाई आती है !
सिय निँदक अघ ओघ नसाए ।
लोक बिसोक बनाइ बसाए ।।


ऐसा अनुभव होता है की आज भी वो धोबी अकेलाही उस साकेत में पड़ा है जहा न कोई देवी देवता है न भगवान , न वो किसी को देख सकता है और  न उसको कोई देख सकते है। 



तात्पर्य यह है की भगवान अथवा किसी  भी देवी देवता  की निंदा करने वालो के लिए कही कोई स्थान नही है।
जय श्री सीताराम !!
  { जय
जय श्री राधे }