ऊधो मन न भये दस बीस एक होतो सो गयो श्याम संग अव को अवरादे
कहा घनश्याम ने ,हे ऊधो वृन्दाबन ज़रा जाना ,वहा कि गोपियों को ज्ञान का कुछ तत्व समझाना ,
विरह कि वेदना मै वो सदा आंसू बहाती है , तड़पती है ,सिसकती है ,मुझको याद करती है ,
तो ऊधो हँस कर कहा ,मै अभी जाता हूँ वृन्दाबन ! ज़रा मै भी ,तो देखू केसा है ये प्रेम का बंधन !
वो केसी गोपियाँ ,जो ज्ञान बल को कम बताती है ,निर्थक प्रेम लीला का , सदा गुणगान गाती है ,
तो चले मथुरा से कुछ दूर, वृदाबन निकट आया , वही से प्रेम ने, अपना अनोखा ,रंग दिखलाया !
उलझ कर वस्त्र मै कांटे लगे ऊधो को , समझाने.... ! मानो वो वृक्ष कह रहा
है , की हे ऊधो ये प्रेमियों की भूमि है ,यहाँ पर तुम अपने ब्रह्म ज्ञान के
हंकार के साथ मत जा ,नही तो तुम्हारा ब्रह्म ज्ञान चला जायेगा ,
उधव बोले नही में सब देख लुगा ,में इन गोपियाँ को सब भुला दुगा ,और किसी और ब्रह्म में मन लग्वा दुगा ,
श्री उधव जी महाराज इस भाव से गए , लेकिन जैसे ही वह जाकर गोपियाँ का
अध्भूत प्रेम देखा तो ,पहले तो गोपियाँ को प्रश्ताव दिया की हे गोपियाँ तुम
इस प्रकार ब्रह्म में मन लगाओ , इस ब्रह्म का चिन्तन करो ,एसे ब्रह्म में
ध्यान करो ,
पर गोपियाँ ने तो एक बात एईसी गजब की कही ,की उधव का सब ज्ञान गया ,गोपियाँ
ने कहा उधव तुम कहो जिस ब्रह्म का चिन्तन करने को हम तैयार है ,एक काम तुम
हमारा करदो ,
बोले क्या ?
"बोले बिना मनके तो किसी ब्रह्म का चिंत
नही हो सकता , बोले नही हो सकता , बस हमारा मन उस कन्हैया के पास है ,तुम
हमारा मन हमे लाकर देदो फिर तुम कहो जिस ब्रह्मका चिन्तन करने को तैयार है
..
उधो मन न भये दस बीस एक होतो सो गयो श्याम संग अव को अवरादे.....
हे उधो एक मन था वो तुमारा चोर ले गए कन्हैया ,अब हम किस मनसे चिंतन करे .........
उधवजी ने तो हाथ जोड़े , की अब में नमन करता हु इन गोपियाँ के चरण रज को ......
ज्ञान बजाई दुग्दुगी ,विरह बजाया ढोल उधो सूधो रह गए सुन गोपियाँ के बोल...
उद्व जी ने गोपियाँ को अपना गुरु बना लिया ,
अगर किसी गोपि की चरण रज को माथे पे लगाने को मिल जाये ,तो भगवान में अपने आप प्रेम हो जाता है ...जय श्री राधे
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