Thursday, 20 December 2012


नारद जी ने एक बार भगवानसे पूछा की हे प्रभु आप अपने नाम के पीछे वैकुंठनाथ  लिखते हो ,पर वैकुंठ में तो आप रहते ही नही, .......आप का पक्का पता तो बताओ प्रभु ? नही तो हमे ऐसे ही आपको ढूंडनेमें इधर उधर भटकना पड़ता है .भगवान खुद कहते है , { ना हम वसामि वैकुंठे योगी नोर्ह्राद्यनचय मद भक्ताय......} जहा मेरे भक्त मुझे गाते है में वही रहता हु वैकुंठ नाथ तो खली मेरा नाम है , बाकि मेरा असली ठिकाना तो जहा मेरे भक्त { हरीनामाचागज } जहा मेरे नामकी गजल लगाते है , मिलके मेरे नामका संकीर्तन करते है में वही रहता हु......
"लक्ष्मीजी भगवान से हमेसा इसी बातका झगड़ा करती की आपने वैकुंठ तो बहुत सुन्दर बनादिया पर आप खुद तो वैकुंठ में रहते ही नही ,कभी किसी भक्त के यहाँ , कभी किसी भक्त के वहा , सब दिन नग्गे पैर भागते फिरते हो.....?
 भगवान बोले क्या करू लक्ष्मी में अपने भक्त के प्रेम बंधन में बंद जाता हु वो अपना सबकुछ मुझे अर्पण करके मुझे अपने अधीन कर देते है , इस लिए कही  कही तो मुझे चोकिदारी भी करनी पड़ती है......
 एसे कृपा सागर को छोड़ हम संसारी माया से लिप्त रहते है.... सच में हम उनकी माया से ठगे जाते है... 

  { जय जय श्री राधे  }
 


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