Sunday, 11 May 2014


पाण्डुपुत्र भीमसेन को भगवान कि भेजी हुई महामाया द्रोपदी का भय ओर उस माया का दर्शन....!

एक बार भीमसेन राजा युधिष्ठर के कक्ष के पास् मे से चले जा रहे थे उन्होने देखा कि महाराज महारानी द्रोपदी के चरणो मे बैठे ऐस आभाष हुआ कि महाराज के साथ महारानी द्रोपदी ऐसे धृष्टता करति है लगता है द्रोपदी गर्व आ गया है पर अगर मेरे साथ ऐसी धृष्टता कि तो मे कैसे सहन कर पाउँगा ?

भीमसेन सीधे स्वाभाव के थे महाराज युधिष्ठर राजा है इस नाते द्रोपदी के चरणो मे बैठे युधिष्ठर देखा तो कुछ ठीक न लगा।
वे चिंतित रहने लगे , उनको रात मे न तो नीँद आति ओर नाहिं पूरा भोजन करते ,
अब वे एकांत मे जा कर भजन कीर्तन करने लगे ,
मुकुंद गोविन्द गोपाल  कृष्ण !
मुकुंद गोविन्द गोपाल  कृष्ण !!

कीर्तन मे भीमसेन इतने तन्मय हो गये की , उनका दुखी उदास मन मगन हो गया शरीर भी रोमांचित हो ग़या , नेत्र बन्ध है , वे झूम - झूम कर कीर्तन कर रहे थे , उनका कंठ पहले से हि भारि था पर मश्ती मे ओर भी भारी हो गया।

संगीत का स्वर सुनकर मृग दौड़े आते होंगेः किन्तु  वह भीमसेन की कीर्तन ध्वनि सुनकर तो मृग ही क्य मृगराज भी घबड़ा कर जंगल मे ओर दूर भाग गया।

भीमसेन का स्वर चाहे जितना भयानक हो पर वे कृष्ण प्रेम मे मगन थे इसलीये भीमसेन कि कीर्तन ध्वनि  सुन कर तो वे एक हि आ सकते है जो प्रेम स्वर समझता हो , प्रेमकी भाषा समझता हो , वे राग धुन स्वर पर नहीँ रीझते , वे प्रेमिके प्रेम से रीझते है ,

भीमसैन कि हृदय पुकार सुनकर श्री कृष्ण वहा आ पहुचे जंहा  भीमसैन कीर्तन कर रहे थे
भीमसेन की तन्मता टूटीं , कीर्तन समापत हूआ।  नेत्र खुला तो सम्मुख देखकर आश्चर्य से वे बोले --- श्रीकृष्ण ,तुम ! इस समय यहाँ ?
श्रीकृष्ण ने अपने पटुके से नेत्र पोंछे और बोले -- "भाई भीमसेन इतना मनोहर कीर्तन तुम करते हो , मै नही जानता था आज तुमने मुझे बहुत आंनद दिया। मैं प्रसन्न हूँ। तुम्हारे मन मे जो आवे वरदान माँग लो।

भीमसेन श्रीकृष्ण को प्रसन्न देखा ओर मगन हो गये की मेरा कीर्तन श्रीकृष्ण को इतना प्रिय लगा।
श्रीकृष्ण ने फिर अनुरोध किया।
 कुछ माँग लो भाई !

कुछ क्षण सोच कर भीम ने कहा -- ये  ऋषि -मुनि बार - बार तुम्हारी माया की बात करते है। कैसी है तुम्हारी माया ? मैं देखना चाहता हूँ श्रीकृष्ण शांत स्वर मे बोले भईया ! मुझे देखो ! मेरी माया को देख  कर क्या करोगे ?
भीमसैन ने आग्रह किया -- तुम्हे तो देखता ही रहा हुँ मधुसूदन पर आज ,तुम्हारी माया दिखने का मन है , उसे भी दिखला दो।

अब उस मधुसूदन ने कह दिया -- अच्छा कल रात्रिके प्रथम परहर में हि आकर उस वटवृक्ष पर छिप कर बैठ जाना ओर सावधान रह कर मेरि माया देखना.


दूसरे दिन प्रथम पहर मे हि भीमसैन अकेले आये ओर उस व्रक्ष पर जमकर बैठ गये।
कुछ क्षण बाद उन्होने देखा तो अनेक तेजोमय देवता आये ओर वह स्थान स्वच्छ करने लगे , उन लोगो ने वहां स्वच्छता कि , सुगन्धित द्रव छिड़का ओर बहुमूल्य आसण बिछया ओर बहुत से देवताः सुन्दर सुन्दर सिंहासन ले कर आने लगे

उन देवताओ ने सिंहासनों की पन्तिया सजा दीं।
एक ज्योतिर्मय दिव्य सिँहासन था जैसे कोइ राजाधिराज आनेवाले हो , फ़िर दो खास सिहासन ओर लगे ओर उसकी बाद तीन ओर विशेष सिँहासन सजाये गये।

भीमसेन ने सोचा कि ,अवश्य हि आज कोई देवताओं कि बैठक यहा होने वाली है।
भींम ने देखा की ब्रह्मा जी सावित्री के साथ , विष्णु गरुड़ पर , ओर पार्वती ज़ी के साथ शिव जी व गणेश ज़ी आये ,
 वे सभी अपने अपने सिंहासन पर बैठ गये ओर बहुत से ऋषी मुनि आये जिनको भीमसैन जानते थे क्यो कि वे उनके वहा आते जाते रहते थे।

अब भीमसैन के चित मे उथल फूथल मचने लगी क़ी ये दिव्य सिंहासन किसके लिये उतनेमे श्रीं क़ृष्ण आये , सभी देवता खड़े हो कर उनका अभिवादन किया , वे सब की ओर देख कर मुश्कुराकर ओर दूसरे सिंहासन पर बैठ गये जहॉ विश्णु भगवान बैठे थे
पर वो एक ज्योतिर्मय दिव्य सिँहासन अब भी खाली है , भीमसैन ने सोचा सब देवताः आ गये फ़िर ये दिव्य सिँहासन खाली क्यो है ?
उतने मे सब देवता उठ खड़े हुए ,
सबने अंजलि बाध कर मस्तक झुकाया।

भीमसेन के नेत्र आश्चर्य से खुले के खुले रह गये उन्होने देखा कि द्रोपदी आई है ओर बिना किसी की ओर देखे जा कर उस दिव्य सिंहासन पर बैठ गयी ,

त्रिदेवो ने उनके सम्मुख आ कर मस्तक झुकाया तो केवल स्मितकपूरवक उन्हे देख लिया।

द्रोपदी ने श्री कृष्ण से पूछा सब आ गए ?
श्रीकृष्ण ने कहा पांडव आ रहें है ,

द्रोपदी ने कहा -- भीम कहाँ है ? तुम देख हि रहें हो कि उसके रक्त के बिना मेरा यह खप्पर अपुर्ण है।

द्रोपदी कि बात भीमसैन ने सूनी तो वे सुरवीर होते हुए भी भय से कापने लगे ऊनके शरिर से स्वेद बहने लगा , उसी समय
 राजायुधिष्ठिर , अर्जुन , नकुल ओर सहदेव आये वे करबद्ध दूर खड़े हो गये

द्रोपदी ने पांडवो की ओर देख कर कहा की मेरे खप्पर को रक्तसे भरने का काम तुम्हे करना है , यह स्मरण रखना ओर क्रोधमे भर कर बोली भीमसैन कहा है ?

देवताओ ने बतलाया वे राजभवन मे नहीँ है।
द्रोपदी ने डाटदिया और कहा पताः लगाओ कि वह कहा है।

सहसा देवर्षि नारद उठ खडे हुए , उनको भी बोलने की अनुमति लेनी पड़ी वे आज्ञा पाकर बोले -- भीम इस समीपके वटवृक्ष पर छिपकर बेठे है
द्रोपदी ने कड़कते स्वरमे आज्ञा दी।  देवदूत ! जलती मषाल हाथ मे लेकर वटवृक्ष के समिप पहुचे।

भीमसेन भय से कापने लगे वे वृक्ष से कुद पङे , वे भाग जाना चाह्ते थे।
भीमसैन ने चकित हो कर इधर - उधर देखने लगे , निचे न कोई देवदूत थे , न कोइ देवसभा थी , न देवता थे ओर न कोइ पांडव थे ओर न द्रोपदी। वह तो कुछ भी नही था।

अब सिर झुकाएं वे नगर कि ओर लौटें ,
श्रीकृष्ण मार्ग मे ही मिल गये ,
 उन्होने पुछा भाई भीमसैन ! तुम इतने खिन्न क्यो हो ?
 तुमने मेरी माया देख ली ?
भीमसेन ने कहा देख ली अब कृपाकर ऎसी माया मुझे कभी मत दिखाना।

श्रीकृष्ण हंसकर भीमसेन के साथ हि राजभवन लौट आये, किन्तु भीमसैन का मुख लटका हि रहा , वे उदास बने रहे , माता  कुंति ने उसे उदासिका कारण पुछा तो भीमसेन रो पड़े , उन्होने जो कुछ देखा  था माँ कुंती को सुना दिया ओर भीमसेन ने माता से कहा की श्रीकृष्ण ने जो कुछ दिखया वह सर्वथा निराधार नहीं हो सकता ,
 यह तो मे समझ गया हूँ कि ( द्रोपदी माहामाया ) है; किन्तु उसका वो अपूर्ण खप्पर मेरे मन से नही उतर रहा है।

माता कुंती ने अपने पुत्र को आश्र्वासन दिया ओर अपने गोद मे सिर रख कर स्नेहसे सहला कर सुला दिया 


प्रातः काल जब देवी द्रोपदी अपनी सास के चरण -वंदना करने आई , यह उनका नित्य नियम था |
 , कुंती माँ ने आशिरवाद देने से पहले कहा -- बेटी ! आज मै तुमसे कुछ माँगना चाहती हूँ यदि तुम मुझे निरास न करने का वचन दो।

द्रोपदी ने सहज भावसे कह दिया , माताज़ी ! आप आज्ञा करे।
कुंती ने कहा बहु !मुझे मेरे पाचो पुत्रोके जीवीत रह्ने का वर्दान दें

द्रोपदी ने सिर झुका लिया ओर अपने दातो तले जिव्हां चबाई ओर दो क्षण रूककर कहा  -- अच्छा माता जी ! ऐसा ही होगा।

अब वे श्री कृष्ण से मनमे कहने लगी श्रीकृष्ण ! तुम्हारी इच्छा पूर्णहो , क्योकि मै ( महामाया ) हुँ ये  तुम्ने भीम को दिखला दिया।

अब सोचने की बात यह है की द्रोपदी ने पांडवो को ऐसा क्यो कहा की मेरे

 ( खप्पर को रक्तसे ) भरने का काम तुम्हे करना है , यांनी वे भगवानकी भेजीं हुई ( महामाया ) हीं थीं जो पाँडवों को निमित बना कर पृथ्वी का भार हरने  के लिये हि पाचों पाँडवों कि पत्नि बन कर आयी थी। 

पता नही भीमसेन ने यह घटना न देखि होती तो महभारत युध्द मे भीमसैन बच भी पातें या नहीँ...! 

 { जय श्री राधे राधे } 


                                हीरे  मोती हार से मुझे न कोइ काम !
                इन मे जब सबते नहिं मेरे स्वामी राम !!


त्रिलोक विजय रावण ने तीनो लोको पर विजय प्राप्त करके ब्रह्माण्ड के जो श्रेष्ठ श्रेष्ठ मणीये थे उनमे से चुन - चुन कर एक रत्नजड़ित मणियों का हार बनाया था जो कह्ते है कि वो ( हार ) लंका मे सबसे मूल्यवान वस्तु थीं।

जब भगवान श्री रामजी का राज्याभिषेक हो रहा था उस समय चारो वेदो ने भगवान कि स्तुति की ओर उपहार के रूप मे उपस्थित हुए , सभी देवी देवताओ ने स्तुति की ओर सबने कुछ न कुछ भेट अर्पित किये ,
विभीषणजी ने भी प्रभु श्रीराम को भेट अर्पित की जो लंका मे सबसे श्रेष्ठ वस्तु थी ,

लंकापति रावण के मर जाने के बाद लंका का राज्य अधिकारी  विभीषणजी ही थे , उन्होने वो रत्नजड़ित मणीयो का हार भगवान श्रीराम जी  को भेट कर दिया
ओर प्रभु श्रीराम , दी हुई भेटो को उन्ही लोगो मे बाट रहे थे।

उस समय उस रत्नजड़ित मणीयो के हार का लोभ सबके मन मे होने लगा कि ये हार तो , राम जी हम को हीं आशीर्वाद के रूप मे भेट करेंगे

जामवंत जी ने सोचा की इस सभा मे सबसे वृद हम हीं है तो शायद  ये अमूल्य हार हमको ही भेट कर दे।

अंगद सोच रहे थे कि मेरे पिता ने मरते समय मेरा हाथ श्रींरामज़ी के हाथ मे दे दिया था कि अब आप मेरे बालक को अपना सेवक बनाये रखियेगा तो शायद हम को ही दे दे ,

विभीषणजी के मन मे भी भारी लोभ हो रहा था वे सोच रहे थे कि प्रभु के मन मे तो कोई लोभ है नही सो हम को ही वापिस प्रसाद के रूप मे भेट कर देंगे ओर कहेंगे कि हमारी प्रसादी हो चुकी अब ये लो।

सबकी नजर प्रभु से हठ कर उस हार पर लग गयी ओर सबके मन मे उथल - फुतल मच गयीं कि ये हार हम को ही मिलेगा।

पर उन सभा मे एक हनुमानजी हीं ऐसे थे जिनकी नजर सिर्फ़ श्री सीताराम के चरणो मे लगी हुई थी।

प्रभु अन्तर्यामी है , सबके मन की जान गये ओर सोचा कि इस रत्नजड़ित हार का लोभ सबके भीतर आ गया  है अगर हम अपने हाथो किसी एक को दे देंगे तो ओर कोई मुँह फुला देंगे कि हमको नही दिया  ,ये सोच कर रामजी ने उसी क्षण सीताजी के हाथ मे वो हार दे दिया।
सीता मईया को ओर तो क़ोई दिखा नही चरणो मे बैठे हनुमानजी दिखे सो उन्ही के गले मे वो हार डाल दिया।

अब सबके मन मे उथल - फुतल मची हुए थीं वो मिट गयी , बोले कोई बात नही रामजी ने माता जी को दिया ओर माता जी ने हनुमानजी के गले मे डाल दिया।

पर जब हनुमानजी के गले मे हार पड़ा तो वे अचानक चौके ओर सोचे कि अरे ! ये क्या ? हनुमानजी प्रभु के सेवा मे बैठे थे उनका ध्यान सिर्फ़ चरणो मे था अचानक गले मे पडी वस्तु को देख वे चौक उठे ,
गले से हार उतार कर मणियों को घुमा घुमा कर देखने लगे ओर एक एक मणिया को अपने वज्रतुल्य दातो तले चबा - चबा कर तोड़ने लगे

हनुमानजी का वो लड़कपन देख कर  प्रभु श्री राम हसने लगे और सीता जी भी हंस रही थी। उस राज सभा मे सब हनुमानजी को आश्चर्य से देख रहे थे ओर हंस रहे थे पर विभीषण जी को अपने मन मे बहुत पीड़ा हो रही थी , वे सोच रहे थे कि ये कपि मुर्ख क्या जाने अनमोल रत्नो को।

 हनुमानजी एक एक करके उन मणीयो को तोडते जा रहे थे ओर घुमा घुमा कर उनको घोर से देखे जा रहे थे
 कि इसमें तो मेरे प्रभु का कही नाम नही है ये मणीये मेरे किसी  काम के नही |

विभीषण जी कुछ देर तो चुप रहे पर जब उन कि दी हुए भेट को छिन - भिन् होते देखा तो वे बोले
हनुमानजी ! क्षमा करना मेरे जैसे छोटे सेवक को जहा रामराजा सरकार बैठे हो वह कुछ बोलना उचित नही है पर अब असह्य हो गया , क्या आप नही जानते ये रत्नजड़ित मणीयो का हार लंका कि सबसे श्रेष्ठ वस्तुं है जो प्रभु श्रीं रामजी ने जानकी माँ को दी। ओर माता ने कृपापुरवक आपके गले मे डाली ओर आप इस अमूल्य रत्नजड़ित हार को आपने वज्रतुल्य दातो के तले काट - काट कर नष्ट किये जा रहे है !

हनुमानजी मुस्कुरा कर बोले विभीषण ज़ी ! आपकी दृष्टि मे ये अमूल्य मणीये हो सकते है पर मेरे लिये तो सब पत्थर एक जैसे हि होते है कुछ मणीये चमकने वाले होते है ओर कुछ कम चमकने वाले।।।

विभीषण ज़ी बोले पर आप इन्हे तोड़ क्यो रहे हैं ? बोले मै देख रहा हूं कि इसमे मेरे प्रभु का नाम है कि नही , इनमे ना मेरे प्रभुका नाम है ओर नाही मेरे प्रभु कि छवि तो ये आपके काम कि चीज हो सकती है पर मेरे किसी काम कि नही...

विभीषण ज़ी को क्रोध आया ओर बोले क्षमा करना हनुमानजी , इन मणियों को तो तोड़ तोड़ कर परीक्षा कर रहे हो कि इसमें राम नाम है कि नही पर आप , ये ( देह ) लिये घूम रहे हो कभी इसमें देखा है कि इसमें राम नाम है कि नही ?

हनुमानजी बोले अरे ! विभीषण ! लगता है तुमने अभी तक मेरे स्वरुप को देखा नही है , मेरे शरीर रूपी चोले मे श्रीराम नाम ओर श्री राम रूप के अतिरिक्त ओर कुछ भी नही है ,

विभीषण ज़ी ने कहा  महाराज ! कथा प्रवचन मे तो बहुत लम्बी चौड़ी बढ़ाई होती है कि आप वक्ताओं मे श्रेष्ट है , प्रभु श्री राम जी के प्रेम प्रिय श्रेष्ट भक्त है पर प्रत्यक्ष करके दिखाओ तो जाने।

हनुमानजी ने कहा अवश्य !

हीरे मोती हार से मुझे न कोइ काम !
इन मे जब सबते नहिं मेरे स्वामी राम !!  
जो तुम चाहो देखना हृदय दिखाऊ चीर !
मेरे ह्रदय मे बसे सिया संग रघुवीर !!
राम भक्त हनुमानजी ने सबके देखते हि देखते
( श्री राम ,जय राम , जय जय राम ), कह कर अपने चरम को एक साथ उधेड़ कर रख दिया जहा हनुमानजी के चरण से लेकर ललाट तक समपूर्ण श्री अंग मे ( श्री राम नाम ) विराजमान था फ़िर अपना सीना चिर कर दिखाया जिसमे श्रीसीताराम ज़ी विराजमान थे

विभीषण ज़ी हनुमानजी का स्वरुप देख कर उनके चरणो मे गिर गये , उनके चरण पकड़ लिये ओर क्षमा करो - क्षमा करो कह कर दण्डोत करने लगे ,
सब सभा के शिष हनुमानजी के चरणो मे गिर गये
सभी सभासद एक साथ हनुमानजी की  जय जय कार करने लगे।
अंजनी पुत्र पवनसुत वीर ,

आप कि जै हो, जय हो , जय हो !!
श्री राम जय राम जय जय राम !!  

   { जय श्री राधे राधे }


Saturday, 3 May 2014

                || हनुमानजी के जन्म कि कथा ||

हनुमानजी कि माता अंजनी ब्रह्मलोक कि एक दिव्य अपशरा थी।  उनका नाम पुज्यकस्थला था  उनसे ब्रह्मलोक में एक अपराध हो  गया और ब्रह्मा जी ने श्राप दे दिया कि तुझे ब्रह्मलोक से  धरतीलोक में जाना पड़ेगा।

वही पुज्यकस्थला धरती पर अंजनी जी के रूप में प्रकट हुई। उनका विवाह वानरराज केशरी जी के साथ हुआ , केशरी जी बहुत  बलशाली थे , जब उनकी भुजाओ में खुजली मचती , उस समय उनमे अपार बल आ जाता और बड़े बड़े पर्वतो को उछालने लग जाते।

वे बड़े- बड़े पहाड़ पर्वत खंड - खंड हो कर निचे गिरते तब कभी किसी  ऋषि के आश्रम में जा पड़ते तो कभी बहुत से ऋषिमुनियों कि मण्डली में जा गिरते उन पहाड़ो के टुकड़ो से ऋषि चोटिल हो जाते , उस समय सब ऋषिमुनियों का समाज दुखी होने लगा और कहा कि  जब ये इतना बलवान है कि खुजली मचने पर बड़े बड़े पहाड़ उखाड़ कर  फेक डालता है तो इनकी संतान होगी तब कितनी बलवान होगी  ये सोच कर उस समय सभी ऋषियोंने केशरीजी को श्राप दे दिया कि तुम संतानहीन होंगे तुम्हारे द्वारा कभी कोई तुमे संतान प्राप्त नही होगी।

 केशरी जी ऋषियों का श्राप सुनकर ब्रह्मचार्य का पालन करने लगे और मन ही मन दुखी रहने लगे पर उनकी पत्नी ने कहा स्वामी ! आप दुखी न हो मैं शंकर भगवान से प्रार्थना करके उनसे पुत्र प्राप्ति का आशीर्वास पाऊँगी और वे पर्वत पर  ( पंचाक्षर का ) जप कर ने लगी।

उसी समय शंकर भगवान, विष्णु भगवान के मोहिनी अवतार के दर्शन करने आये तब वे भगवान के मोहिनी रूपसे मोहित हो गए और उनके पीछे - पीछे चल कर गए।
 उस समय भगवान का आमोग तेज स्खलित  हुआ और ऋषियोंने उस तेज को यज्ञ पात्र में सुरक्षित रखा फिर राम कार्य कि सिद्धि के लिए वायु को आज्ञा दी और ऋषियों ने वायु देव से कहा कि शंकर भगवन के इस तेजको अंजनी के दक्षण करण मार्गसे( उदर ) में स्थापित करो।

 वायु देव आये और उन्होंने अंजनी के दक्षण करण मार्गसे शंकर भगवान का तेज अंजनी के गर्भ में स्थापित किया , तब जप कर रही अंजनी जी को लगा कि किसी ने मेरा स्पर्श किया , किसी ने मेरे भीतर प्रवेश किया है।

 वे क्रोधसे तिलमिला उठी और बोली कौन है ? जिसने मेरा स्पर्श किया , मैं पतिव्रता नारी हूँ , जिसने भी मेरा स्पर्श किया वो तुरंत मेरे सामने आ जाए अतः में श्राप दे दूंगी।

 अंजनी जी का क्रोध देख कर वायु देव प्रकट हुए और कहा देवी ! मैं  वायु हूँ , आप का सतीत्व पूर्णतया सुरक्षित है , आप का पतिव्रता  व्रत  खंडित नही हुआ है।
 ऋषियोंके आदेश से मैंने ही आपके गर्भ में शंकर भगवान का तेज स्थापित किया है , आप के गर्भ से साक्षात् शंकर भगवान का रूप जन्म लेंगे, जो प्रभु श्री राम कार्य में सहायक होगा ,
उतना कह कर वायु देव अंतरध्यान हो गए और कुछ  समय बीतने पर केशरी नंदन अंजनी के पुत्र हनुमान जी का जन्म हुआ यही बजरंग बली इतने बलशाली है कि आज तक उन्होंने पूरा बल तो कभी दिखाया ही नही कुछ बल से ही सोने कि लंका जला दी ,और प्रभु श्री राम व्   रावण युद्ध में सहायक बने..
 जय श्री राम !!
   { जय श्री राधे राधे }

                       || हनुमानजी का बल ||

रावण ओर प्रभु श्री राम के बीच युद्ध हो रहा था उनमे 80 हजार राक्षश ऐसे थे जिन्होने ब्रह्माजी का तप करके ब्रह्माजी से अजर - अमर होने का वरदान प्राप्त किय था ओर रामजी के सिवाय वे किसी से मारे नही जा रहे थे , वे रोज युद्ध करते ओर बहुत बलपूर्वक लड़ते पर किसी से मारे नही मरते।
इसपर भगवान श्री राम चिंता कर रहे थे कि अगर हम इन राक्षसो को मारते है तो ब्रह्माजी का वरदान झूठा होता है ओर न मारे तो ये युद्ध कैसे जीता जाये ? हनुमानजी मुस्कराये ओर बोले प्रभु ! आप चिंता न करे , अगर आप कि आज्ञा हो तो ऎसा कुछ हो जाये जिससे ब्रम्हाजी का वरदान भी झूठा न होगा वे युद्धसे मरेंगे भी नही ओर युद्ध से भी भाग जायेंगे।

प्रभु श्री राम बोले वो कैसे ?
हनुमानजी बोले प्रभु ! आप देखते जाइये।
प्रभु श्रीरामजी के देखते ही देखते हनुमानजी ने अपनी पूछ को खूब लम्बी चौड़ी फैला कर उन सभी राक्षसो को कस कर ऐसा बाँध लिया जैसे कोइ किसान हरि- हरि घास काट कर पूला बना कर कस के बांधते है , ऐसे हि हनुमानजी ने उन सबको गट्ठा बना कर कस कर बाँध कर घुमाकर तीव्रगति से ऎसी जगह फैका जहा वायुमंडल कि सीमा के उपर आलात चक्र के समान बहुत तेज हवा चलती है।

वे राक्षस बेचारे चिलाते जा रहे थे की छोड़ दो , छोड़ दो ! हम युद्ध नही लड़ेंगे पर हनुमानजी ने कहाँ अरे ! भाई नही - नही तुमने अजर - अमर होने का वरदान पाया है न ! अब अजर - अमर हो कर घुमो इस वायु मंडल के उपर।
कहते है कि आज भी वे राक्षस वायु मंडल के उपर घूम रहे है। वे राक्षश सूककर कंकाल हो गये है पर अभी तक मरे नही।

प्रभु श्रीराम , हनुमानजी के बल की सराहना करते हुए कहते है कि हनुमान ! तुम्हारे जैसा बल न तो काल मे है , न ब्रह्मा मे है ओर न इंद्र मे है ..।

हनुमानजी प्रभु श्री रामजी के दास ठहरे उनको किसि बल का अभिमान कैसे हो सकता हैं , वे दीनता से अपने स्वामी के चरणोमे
सिर नवाकर बोले , प्रभु ! ये सब आप कि कृपा से हि होता है..।
जय श्री सीताराम ,

{ जय श्री राधे राधे }