पाण्डुपुत्र भीमसेन को भगवान कि भेजी हुई महामाया द्रोपदी का भय ओर उस माया का दर्शन....!
एक बार भीमसेन राजा युधिष्ठर के कक्ष के पास् मे से चले जा रहे थे उन्होने देखा कि महाराज महारानी द्रोपदी के चरणो मे बैठे ऐस आभाष हुआ कि महाराज के साथ महारानी द्रोपदी ऐसे धृष्टता करति है लगता है द्रोपदी गर्व आ गया है पर अगर मेरे साथ ऐसी धृष्टता कि तो मे कैसे सहन कर पाउँगा ?
भीमसेन सीधे स्वाभाव के थे महाराज युधिष्ठर राजा है इस नाते द्रोपदी के चरणो मे बैठे युधिष्ठर देखा तो कुछ ठीक न लगा।
वे चिंतित रहने लगे , उनको रात मे न तो नीँद आति ओर नाहिं पूरा भोजन करते ,
अब वे एकांत मे जा कर भजन कीर्तन करने लगे ,
मुकुंद गोविन्द गोपाल कृष्ण !
मुकुंद गोविन्द गोपाल कृष्ण !!
कीर्तन मे भीमसेन इतने तन्मय हो गये की , उनका दुखी उदास मन मगन हो गया शरीर भी रोमांचित हो ग़या , नेत्र बन्ध है , वे झूम - झूम कर कीर्तन कर रहे थे , उनका कंठ पहले से हि भारि था पर मश्ती मे ओर भी भारी हो गया।
संगीत का स्वर सुनकर मृग दौड़े आते होंगेः किन्तु वह भीमसेन की कीर्तन ध्वनि सुनकर तो मृग ही क्य मृगराज भी घबड़ा कर जंगल मे ओर दूर भाग गया।
भीमसेन का स्वर चाहे जितना भयानक हो पर वे कृष्ण प्रेम मे मगन थे इसलीये भीमसेन कि कीर्तन ध्वनि सुन कर तो वे एक हि आ सकते है जो प्रेम स्वर समझता हो , प्रेमकी भाषा समझता हो , वे राग धुन स्वर पर नहीँ रीझते , वे प्रेमिके प्रेम से रीझते है ,
भीमसैन कि हृदय पुकार सुनकर श्री कृष्ण वहा आ पहुचे जंहा भीमसैन कीर्तन कर रहे थे
भीमसेन की तन्मता टूटीं , कीर्तन समापत हूआ। नेत्र खुला तो सम्मुख देखकर आश्चर्य से वे बोले --- श्रीकृष्ण ,तुम ! इस समय यहाँ ?
श्रीकृष्ण ने अपने पटुके से नेत्र पोंछे और बोले -- "भाई भीमसेन इतना मनोहर कीर्तन तुम करते हो , मै नही जानता था आज तुमने मुझे बहुत आंनद दिया। मैं प्रसन्न हूँ। तुम्हारे मन मे जो आवे वरदान माँग लो।
भीमसेन श्रीकृष्ण को प्रसन्न देखा ओर मगन हो गये की मेरा कीर्तन श्रीकृष्ण को इतना प्रिय लगा।
श्रीकृष्ण ने फिर अनुरोध किया।
कुछ माँग लो भाई !
कुछ क्षण सोच कर भीम ने कहा -- ये ऋषि -मुनि बार - बार तुम्हारी माया की बात करते है। कैसी है तुम्हारी माया ? मैं देखना चाहता हूँ श्रीकृष्ण शांत स्वर मे बोले भईया ! मुझे देखो ! मेरी माया को देख कर क्या करोगे ?
भीमसैन ने आग्रह किया -- तुम्हे तो देखता ही रहा हुँ मधुसूदन पर आज ,तुम्हारी माया दिखने का मन है , उसे भी दिखला दो।
अब उस मधुसूदन ने कह दिया -- अच्छा कल रात्रिके प्रथम परहर में हि आकर उस वटवृक्ष पर छिप कर बैठ जाना ओर सावधान रह कर मेरि माया देखना.
दूसरे दिन प्रथम पहर मे हि भीमसैन अकेले आये ओर उस व्रक्ष पर जमकर बैठ गये।
कुछ क्षण बाद उन्होने देखा तो अनेक तेजोमय देवता आये ओर वह स्थान स्वच्छ करने लगे , उन लोगो ने वहां स्वच्छता कि , सुगन्धित द्रव छिड़का ओर बहुमूल्य आसण बिछया ओर बहुत से देवताः सुन्दर सुन्दर सिंहासन ले कर आने लगे
उन देवताओ ने सिंहासनों की पन्तिया सजा दीं।
एक ज्योतिर्मय दिव्य सिँहासन था जैसे कोइ राजाधिराज आनेवाले हो , फ़िर दो खास सिहासन ओर लगे ओर उसकी बाद तीन ओर विशेष सिँहासन सजाये गये।
भीमसेन ने सोचा कि ,अवश्य हि आज कोई देवताओं कि बैठक यहा होने वाली है।
भींम ने देखा की ब्रह्मा जी सावित्री के साथ , विष्णु गरुड़ पर , ओर पार्वती ज़ी के साथ शिव जी व गणेश ज़ी आये ,
वे सभी अपने अपने सिंहासन पर बैठ गये ओर बहुत से ऋषी मुनि आये जिनको भीमसैन जानते थे क्यो कि वे उनके वहा आते जाते रहते थे।
अब भीमसैन के चित मे उथल फूथल मचने लगी क़ी ये दिव्य सिंहासन किसके लिये उतनेमे श्रीं क़ृष्ण आये , सभी देवता खड़े हो कर उनका अभिवादन किया , वे सब की ओर देख कर मुश्कुराकर ओर दूसरे सिंहासन पर बैठ गये जहॉ विश्णु भगवान बैठे थे
पर वो एक ज्योतिर्मय दिव्य सिँहासन अब भी खाली है , भीमसैन ने सोचा सब देवताः आ गये फ़िर ये दिव्य सिँहासन खाली क्यो है ?
उतने मे सब देवता उठ खड़े हुए ,
सबने अंजलि बाध कर मस्तक झुकाया।
भीमसेन के नेत्र आश्चर्य से खुले के खुले रह गये उन्होने देखा कि द्रोपदी आई है ओर बिना किसी की ओर देखे जा कर उस दिव्य सिंहासन पर बैठ गयी ,
त्रिदेवो ने उनके सम्मुख आ कर मस्तक झुकाया तो केवल स्मितकपूरवक उन्हे देख लिया।
द्रोपदी ने श्री कृष्ण से पूछा सब आ गए ?
श्रीकृष्ण ने कहा पांडव आ रहें है ,
द्रोपदी ने कहा -- भीम कहाँ है ? तुम देख हि रहें हो कि उसके रक्त के बिना मेरा यह खप्पर अपुर्ण है।
द्रोपदी कि बात भीमसैन ने सूनी तो वे सुरवीर होते हुए भी भय से कापने लगे ऊनके शरिर से स्वेद बहने लगा , उसी समय
राजायुधिष्ठिर , अर्जुन , नकुल ओर सहदेव आये वे करबद्ध दूर खड़े हो गये
द्रोपदी ने पांडवो की ओर देख कर कहा की मेरे खप्पर को रक्तसे भरने का काम तुम्हे करना है , यह स्मरण रखना ओर क्रोधमे भर कर बोली भीमसैन कहा है ?
देवताओ ने बतलाया वे राजभवन मे नहीँ है।
द्रोपदी ने डाटदिया और कहा पताः लगाओ कि वह कहा है।
सहसा देवर्षि नारद उठ खडे हुए , उनको भी बोलने की अनुमति लेनी पड़ी वे आज्ञा पाकर बोले -- भीम इस समीपके वटवृक्ष पर छिपकर बेठे है
द्रोपदी ने कड़कते स्वरमे आज्ञा दी। देवदूत ! जलती मषाल हाथ मे लेकर वटवृक्ष के समिप पहुचे।
भीमसेन भय से कापने लगे वे वृक्ष से कुद पङे , वे भाग जाना चाह्ते थे।
भीमसैन ने चकित हो कर इधर - उधर देखने लगे , निचे न कोई देवदूत थे , न कोइ देवसभा थी , न देवता थे ओर न कोइ पांडव थे ओर न द्रोपदी। वह तो कुछ भी नही था।
अब सिर झुकाएं वे नगर कि ओर लौटें ,
श्रीकृष्ण मार्ग मे ही मिल गये ,
उन्होने पुछा भाई भीमसैन ! तुम इतने खिन्न क्यो हो ?
तुमने मेरी माया देख ली ?
भीमसेन ने कहा देख ली अब कृपाकर ऎसी माया मुझे कभी मत दिखाना।
श्रीकृष्ण हंसकर भीमसेन के साथ हि राजभवन लौट आये, किन्तु भीमसैन का मुख लटका हि रहा , वे उदास बने रहे , माता कुंति ने उसे उदासिका कारण पुछा तो भीमसेन रो पड़े , उन्होने जो कुछ देखा था माँ कुंती को सुना दिया ओर भीमसेन ने माता से कहा की श्रीकृष्ण ने जो कुछ दिखया वह सर्वथा निराधार नहीं हो सकता ,
यह तो मे समझ गया हूँ कि ( द्रोपदी माहामाया ) है; किन्तु उसका वो अपूर्ण खप्पर मेरे मन से नही उतर रहा है।
माता कुंती ने अपने पुत्र को आश्र्वासन दिया ओर अपने गोद मे सिर रख कर स्नेहसे सहला कर सुला दिया
प्रातः काल जब देवी द्रोपदी अपनी सास के चरण -वंदना करने आई , यह उनका नित्य नियम था |

द्रोपदी ने सहज भावसे कह दिया , माताज़ी ! आप आज्ञा करे।
कुंती ने कहा बहु !मुझे मेरे पाचो पुत्रोके जीवीत रह्ने का वर्दान दें
द्रोपदी ने सिर झुका लिया ओर अपने दातो तले जिव्हां चबाई ओर दो क्षण रूककर कहा -- अच्छा माता जी ! ऐसा ही होगा।
अब वे श्री कृष्ण से मनमे कहने लगी श्रीकृष्ण ! तुम्हारी इच्छा पूर्णहो , क्योकि मै ( महामाया ) हुँ ये तुम्ने भीम को दिखला दिया।
अब सोचने की बात यह है की द्रोपदी ने पांडवो को ऐसा क्यो कहा की मेरे
( खप्पर को रक्तसे ) भरने का काम तुम्हे करना है , यांनी वे भगवानकी भेजीं हुई ( महामाया ) हीं थीं जो पाँडवों को निमित बना कर पृथ्वी का भार हरने के लिये हि पाचों पाँडवों कि पत्नि बन कर आयी थी।
पता नही भीमसेन ने यह घटना न देखि होती तो महभारत युध्द मे भीमसैन बच भी पातें या नहीँ...!
{ जय श्री राधे राधे }
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