Friday, 31 October 2014

गोपाष्टमी की गो पालक भारत वासियोको हार्दिक शुभ कामनाये 
बालकृष्ण लाल की गोचारण लीला के कुछ सब्द

भगवान वृन्दावन में बड़े - बड़े पहाड़ो और जंगलो में गौ चरण के लिए जाते थे पर मईया के बहुत कहने पर भी कभी जूती धारण नही की थी।

एक दिन मईया अपने लाला को गौ चरण के लिए श्रृंगार कर रही थी तब मईया ने अपने लाला को पद्म धारण करने के लिए फिर से आग्रह किया कि
"देख लाला ! तुमरे चरण बहुत कोमल है और तू गईया चरावे जावेगो तो तुमरे पैरो में कंकर , कंटक लग जायेंगे इसलिए व्यर्थ का हट छोड़ दे , हमारी बात मानले और पग में जूती धारण करले !

ठाकुरजी ने कहा अच्छा मईया ! जब तुम इतना आग्रह कर रही है तो ठीक है पर , मैं एक ही शर्त पर जूती धारण कर सकू हूँ , पहले हमारी जितनी भी गईया है उनसबके लिए जूती बनवालियो , जब हमारी गईया जूती पहनके चलेगी तब मैं भी जूती पहन लूंगा !

मईया हंस कर बोली हरे लाला ! तू बड़ो भोलो है गईया कभी जूती पहिने है ? गायतो पशु होवे है ,
ये सुन कर ठाकुरजी धरती पर उलट पुल्ट हो कर रोने लगे , सारा श्रृंगार बिगाड़ लिया , और बोले अरी मईया ! हमारी ( ईस्ट देव ) को तुमने पशु कैसे कह दिया ? गाय तो हम सबकी माता होवे है , फिर ( माँ ) पशु कैसे हो गयी ?

लाला का रुदन देख कर बाबा और मईया घबराएं कि अब लाला को कैसे मनावे , गाय को पशु कहने कि गलती हो गयी , तब मईया और बाबा ने कान पकड़े और बोले ,
अरे लाला ! हमसे बहुत भारी गलती हो गयी , हमको क्षमा करद्यो , आज के बाद गाय को कभी पशु नही कहेंगे , आज से गौ माता हम सबकी ईस्ट देव ही होगी..

मईया ने फिर से ठाकुरजी को जैसे तैसे मनाया और फिरसे गौ चरण के लिए राजी किया..

जरा विचार करे कि जब भगवान को ये सहन नही होता कि गाय को कोई पशु कहे , जब वो ही गौ धन कटनी में जाता है तब भगवान के कष्ट कि सीमा नही रह जाती..

गोविन्द चले आओ ,गोपाल चले आओ !
तेरी गईया तुझे पुकारे , संकट से बचा जाओ !!


        { जय जय श्री राधे }
   


Thursday, 16 October 2014

               सुदामाजी और संकोचिनाथ की कथा

ऐसो  बेहाल  बेवाइनसै माग  कंटक  जाल  गड़े  पुनि जोए।
हाय महादुःख पाये सखा ! तुम आये इतै न, कितै दिन खोये।।
देखि सुदामा की दीन दसा करुणा करी के  करूणानिधि  रोये।

पानी  परातको हाथ छुयौ  नहीं  नैननिके  जल ते  पग धोये।।
इसीको संकोचिनाथ कहते है !

आपसे धीरेसे- एकांत में सलाह की भांति एक बात कहूँ ?

श्रीनन्दबाबा का लाल बहुत संकोची है इस संकोचिनाथ से मांग कर इसे और अधिक संकोच में मत डालिये , आप कुछ माँगेगे , कुछ प्रार्थना करेंगे तो बड़ा संकोच बड़ा दुःख होगा इसे , इन्हे लगेगा की मैं इतना अयोग्य - इतना प्रमत्त, इतना कृपा - कृपाण हूँ की मेरे स्वजनोंको कहना पड़ता है- उनको प्रर्थना करनी पड़ती है।
इस आनंदकंद से प्रमाद नही होता -  यह अपने भक्तो के मंगल - विधान में लगा ही रहता , यह भी आप समझते है।

कोई एक बार इनके आगे सिर झुका देता है तो ये संकोच से गढ़ जाते है की मैं तो इनका कोई बड़ा हित नही कर पाया अब तो जितना बड़ा उसकी दृष्टि भी उतनी  बड़ी , अब हितभी उतनाही बड़ा होगा।
सुदामाजी तीन मुट्ठी चिउड़े ही तो भेट में ले गए थे वो भी संकोच के मारे श्रीकृष्ण को दे नही रहे थे , द्वारिका का वैभव देख कर सुदामाजी को साहस नही हुआ था की उस चिउड़े का उपहार द्वारिकाधीश को अर्पित करे , वे उस अपनी बगल में दबाये - सिकुड़े जा रहे थे , किन्तु श्रीयशोदानन्दन कही ऐसे मानने वालो मे से  है? ये तो अपनो से वस्तु छीन कर भी खा लेते है।
अब श्रीकृष्ण ने अपने मित्र से पूछ लिया - 'भाभीने मेरे लिए क्या उपहार भेजा है ?
सुदामाजी क्या कहते ? उन्होंने मस्तक झुका लिया 

उनका मस्तक झुका और श्रीकृष्ण का ( हाथ ) बढ़ा - 'यह आप बगलमे क्या दुबकाये है ? सुदामाजी ने और कसके दुबका दिया पोटली को , जिससे श्रीकृष्ण खीच ना पाये , पर श्रीकृष्ण के आगे कोई दबा सकेगा ? उनको कोई रोक सकेगा ? श्रीकृष्ण ने पोटली को खींचा इससे पोटली का वस्त्र फट गया चिउड़े निचे पादपीठ पर और भूमि पर बिखर गए 
श्रीकृष्ण ने कहा , ओह !  यह उपहार ! भेजा है भाभीने  ! श्रीकृष्ण भेटकी प्रशंन्सा करने लगे 'इतने उत्तम चिउड़े !
उस चिउडों को ऐसे देख रहे थे जैसे कोई ( महीनो का अकालका मारा क्षुधातुर अन्नपर टूट पड़े ) उस आतुरतासे श्यामसुन्दर पर्यंक से भूमि पर
उत्तरा और उन चिउडों को समेटने लगे। पादपीठपर , भूमि पर - जहाँ
अपने ही नही सेवको तक के पैर पड़ते है , वहीँ गिरे - बिखरे चिउड़े (त्रिभुवन का स्वामी कंगाल ) के समान आतुरता से समेट रहा था और इनमे समेट लेने तक का धैर्य भी पूरा नही था।
एक मुट्ठी समेट कर अपने मुख में डाली और चबाते हुए बाकि चिउड़े बीनने लगा चिउड़े चबाते - चबाते कहने लगे , उ हा ! प्यारे मित्र ! ये परम स्वादिष्ट है !

भगवान सुदामाजी के चिउड़े चबा रहे थे उस समय पुरे विश्वरूप को ये तृप्त कर दे रहे थे ,
 आकाशमार्ग में खड़े देवता देख रहे है और अपने ओठो पर जीभ फेर रहे है जैसे ही भगवान ने चिउड़े चबाके भीतर निगले उसी क्षण देवताओंने तृप्त हो कर डकार ली और पेटपर हाथ फेरने लगे

अब आप इन मोहन का शिष्टाचार देखिये , वेदो में ये ही , वेदवाणी बन कर कहते है की चलते फिरते भोजन करना ( वर्जित ) है और यहाँ ये खुद शास्त्र की मर्यादा के विपरीत है ही ; किन्तु जब कोई अत्यंत आतुर हो जाये तो शिष्टाचार या मर्यादा का स्मरण कहा रहता है।

उसके बाद क्या हुआ आप सभी जानते ही है ! श्रीद्वारिकाधीश ने अपने मित्र को नविन वस्त्र पहनाये थे पर  , जब वे श्रीकृष्ण से विदा ले कर वापिस अपने घर जाने लगे तो , उस नटखट ने हंसकर कहा ,

अच्छा ! मित्र ! आप अपना अमूल्य उत्तरीय एवं धोती तो लेते ही जायँ , सुदामाजी ने सोचा ओहो ! इन श्रीकृष्ण को तो अपनी धोती और उतरिये का भी मोह है पर इस नटखट को सुदामाजी नही समझ पाये ,

द्वारिका के वस्त्र उतरवाने का भाव श्रीकृष्ण का यह था की यह वस्त्र मेरे ( अकिंचन ) भक्त के धारण किये हुए है इसलिए  इन्हे तो श्रीकृष्ण मस्तक पर लपेटेगा और प्राण के सामान सँभाल कर रखेगा क्यों की मित्रके धारण किए हुए वस्त्र जो है पर इनके कहने का ढंग तो देखिये , की अरे मित्र ! हमारे नविन वस्त्र उत्तार दो और अपने फ़टे पुराले वस्त्र लेते जाओ
 

सुदामाजी भी हंसकर बोले अरे ! हाँ ! कृष्ण मैं दरिद्र ब्राह्मण कहा इनको पहन कर अच्छा लगता हूँ !

 सुदामाजी अपनी मैली फटी धोती लपेटते हुए द्वारिका के वस्त्र उतारते- उतारते कहा ,
 चलना पैदल' मांगना भीख और ये कपडे ! कोई दो मुट्ठी अन्न देनेवाला भी होगा तो इन वस्त्रो को देख कर मुख मोड़ लेगा
अब सुदामाजी को कहा पता है की उस द्वारिकाधीश ने क्या दिया !


सुदामाजी ने कुछ नही माँगा पर उस संकोचिनाथ ने इतना दिया की वे कल्पना भी नही कर सकते इसलिए इस नटखट से कुछ मांग कर इन्हे संकोच में मत डालिये
 एक भक्त ने तो इनका नाम भी संकोचिनाथ रख लिया इसलिए ये संकोचिनाथ है।
              { जय
जय श्री राधे }



Saturday, 11 October 2014

              रावण के पिछले जन्म की कथा  रावण पिछले जन्म में बहुत धर्मात्मा था , उस धर्मात्मा का नाम था ( प्रतापभानु )
प्रतापभानु ने संसार भर को अपनी भुजाओं के बल से वश में कर राजाओं से दंड (कर) ले-लेकर उन्हें छोड़ दिया। उस समय सम्पूर्ण पृथ्वी मंडल का एकमात्र   प्रतापभानु ही (चक्रवर्ती) राजा था।

 राजा अर्थ, धर्म और काम आदि के सुखों का समयानुसार सेवन करता था ,
राजा प्रतापभानु का बल पाकर भूमि सुंदर कामधेनु (मनचाही वस्तु देने वाली) हो गई। (उनके राज्य में) प्रजा सब (प्रकार के) दुःखों से रहित और सुखी थी और सभी स्त्री-पुरुष सुंदर और धर्मात्मा थे।

वेदों में राजाओं के लिए जो धर्म बताए गए थे, राजा सदा आदर पूर्वक और सुख मानकर उन सबका पालन करता था। प्रतिदिन अनेक प्रकार के दान देता और उत्तम शास्त्र, वेद और पुराण सुनता था।

एक बार वह राजा एक अच्छे घोड़े पर सवार होकर, शिकार का सब सामान सजाकर विंध्याचल के घने जंगल में गया।
 राजा ने वन में फिरते हुए एक सूअर को देखा , उस सूअर को देखकर राजा घोड़े को चाबुक लगाकर तेजी से चला और उसने सूअर को ललकारा कि अब तेरा बचाव नहीं हो सकता।

घोड़े को (अपनी तरफ) आता देखकर सूअर पवन वेग से भाग चला। राजा ने तुरंत ही बाण को धनुष पर चढ़ाया , धनुष पर बाण चढ़ा  देख सूअर  धरती में दुबक गया। वह पशु कभी प्रकट होता और कभी छिपता हुआ भाग जाता था।
 
वह , सूअर बहुत दूर ऐसे घने जंगल में चला गया, जहाँ हाथी-घोड़े का निबाह (गमन) नहीं था। राजा बिलकुल अकेला था और वन में क्लेश भी बहुत था , पर राजा ने भी उस सूअर का पीछा नही छोड़ा।


राजा को बड़ा धैर्यवान देखकर, सूअर भागकर पहाड़ की एक गहरी गुफा में जा घुसा। उसमें जाना कठिन देखकर राजा को बहुत पछताकर लौटना पड़ा, पर उस घोर वन में वह रास्ता भूल गया , बहुत परिश्रम करने से थका हुआ और घोड़े समेत भूख-प्यास से व्याकुल राजा नदी-तालाब खोजता-खोजता पानी बिना बेहाल हो गया।

वन में फिरते-फिरते उसने एक आश्रम देखा, वहाँ कपट से मुनि का वेष बनाए एक राजा रहता था,

जिसका देश राजा प्रतापभानु ने छीन लिया था और जो सेना को छोड़कर युद्ध से भाग गया था पर , राजा प्यासा होने के कारण (व्याकुलता में) उसे पहचान न सका। सुंदर वेष देखकर राजा ने उसे महामुनि समझा और घोड़े से उतर कर उसे प्रणाम किया, परन्तु बड़ा चतुर होने के कारण प्रतापभानु ने उसे अपना नाम नहीं बताया।

राजा को प्यासा देखकर उसने सरोवर दिखला दिया।
हर्षित होकर राजा ने घोड़े सहित उसमें स्नान और जलपान किया , राजा की  सारी थकावट मिट गई  सुखी हो गया। तब तपस्वी उसे अपने आश्रम में ले गया और सूर्यास्त का समय जानकर उसने (राजा को बैठने के लिए) आसन दिया।

 फिर वह तपस्वी कोमल वाणी से बोला ,
तुम कौन हो? सुंदर युवक होकर, जीवन की परवाह न करके वन में अकेले क्यों फिर रहे हो ?

प्रतापभानु ने अपना झूठा परिचय देते हुए  कहा हे मुनीश्वर ! सुनिए, प्रतापभानु नाम का एक राजा है, मैं उसका मंत्री हूँ। शिकार के लिए फिरते हुए राह भूल गया हूँ। बड़े भाग्य से यहाँ आकर मैंने आपके चरणों के दर्शन पाए हैं

यहाँ तुलसीदासजी कहते है  की जैसी भवितव्यता (होनहार) होती है, वैसी ही सहायता मिल जाती है। या तो वह आप ही उसके पास आती है या उसको वहाँ ले जाती है ,

कपट मुनि ने प्रतापभानु से कहा- हे तात ! अँधेरा हो गया। तुम्हारा नगर यहाँ से सत्तर योजन पर है , हे सुजान! सुनो, घोर अँधेरी रात है, घना जंगल है, रास्ता नहीं है, ऐसा समझकर तुम आज यहीं ठहर जाओ, सवेरा होते ही चले जाना

राजा प्रतापभानु   ने  सुंदर कोमल वाणी से कहा- हे प्रभो! आपको पिता जानकर मैं ढिठाई करता हूँ। हे मुनीश्वर! मुझे अपना पुत्र और सेवक जानकर अपना नाम (धाम) विस्तार से बतलाइए ?

राजा ने उसको नहीं पहचाना, पर वह राजा को पहचान गया था। राजा तो शुद्ध हृदय था पर वह कपट करने में चतुर था। एक तो वैरी, फिर जाति का क्षत्रिय, फिर वह छल-बल से अपना काम बनाना चाहता था

मुनि ने कपट में डुबोकर बड़ी युक्ति के साथ कोमल वाणी बोला-  वैसे तो हमारा नाम एक तनु है पर अब हमारा नाम भिखारी है, क्योंकि हम निर्धन और अनिकेत (घर-द्वारहीन है , उस कपट मुनि ने झूट को ऐसी मधुर वाणी से कहा की राजा उस पर मोहित हो गया और बोला ,
 मुनिवर! आप जो हों सो हों (अर्थात्‌ जो कोई भी हों), मैं आपके चरणों में नमस्कार करता हूँ। हे स्वामी! अब मुझ पर कृपा कीजिए।
 

अपने ऊपर राजा की स्वाभाविक प्रीति और अपने विषय में उसका अधिक विश्वास देखकर , सब प्रकार से राजा को अपने वश में करके, अधिक स्नेह दिखाता हुआ वह (कपट-तपस्वी) बोला- हे राजन्‌! सुनो, मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, मुझे यहाँ रहते बहुत समय बीत गया ,अब तक न तो कोई मुझसे मिला और न मैं अपने को किसी पर प्रकट करता हूँ, क्योंकि लोक में प्रतिष्ठा अग्नि के समान है, जो तप रूपी वन को भस्म कर डालती है ,
 और श्री हरि को छोड़कर किसी से कुछ भी प्रयोजन नहीं रखता। प्रभु तो बिना जनाए ही सब जानते हैं। फिर कहो संसार को रिझाने से क्या सिद्धि मिलेगी।

ज्यों-ज्यों वह तपस्वी उदासीनता की बातें कहता था, त्यों ही त्यों राजा को विश्वास उत्पन्न होता जाता था।
जब उस बगुले की तरह ध्यान लगाने वाले (कपटी) मुनि ने राजा को कर्म, मन और वचन से अपने वश में जाना, तब वह बोला

 
हे भाई! हमारा नाम एकतनु है। यह सुनकर राजा ने फिर सिर नवाकर कहा- मुझे अपना अत्यन्त (अनुरागी) सेवक जानकर अपने नाम का अर्थ समझाकर कहिए ?

(कपटी मुनि ने कहा-) जब सबसे पहले सृष्टि उत्पन्न हुई थी, तभी मेरी उत्पत्ति हुई थी। तब से मैंने फिर दूसरी देह नहीं धारण की, इसी से मेरा नाम एकतनु है

राजा
( कपटी मुनि ) के नाम का अर्थ सुनकर उस तपस्वी के वश में हो गया और वह उसे अपना नाम बताने लगा।

 कपटमुनि ने कहा- राजन ! मैं तुमको जानता हूँ। तुमने कपट किया, वह मुझे अच्छा लगा , अब मैं तुम्हारा परिचय तुम्हे सुनाता हूँ सुनो।

 हे राजन ! तुम्हारा नाम प्रतापभानु है, महाराज सत्यकेतु तुम्हारे पिता थे। हे राजन ! गुरु की कृपा से मैं सब जानता हूँ, पर अपनी हानि समझकर कहता नहीं और अब मैं प्रसन्न हूँ, इसमें संदेह न करना। हे राजन्‌! जो मन को भावे वही वर  माँग लो।

 सुंदर (प्रिय) वचन सुनकर राजा हर्षित हो गया और (मुनि के) पैर पकड़कर उसने बहुत प्रकार से विनती करके कहने लगा हे मुनिवर ! अब मैं आपको अपना गुरु मानता हूँ आप मुझे कृपा पूर्वक वर दीजिये ,
 राजा कहने लगा हे प्रभो! मेरा शरीर वृद्धावस्था, मृत्यु और दुःख से रहित हो जाए, मुझे युद्ध में कोई जीत न सके और पृथ्वी पर मेरा सौ कल्पतक एकछत्र अकण्टक राज्य हो ऐसा वार दीजिये। 
 

कपटमुनि ने कहा - हे राजन्‌! ऐसा ही हो, पर एक बात कठिन है, उसे भी सुन लो। हे पृथ्वी के स्वामी! केवल ब्राह्मण कुल को छोड़ काल भी तुम्हारे चरणों पर सिर नवाएगा , तप के बल से ब्राह्मण सदा बलवान रहते हैं। उनके क्रोध से रक्षा करने वाला कोई नहीं है। हे नरपति! यदि तुम ब्राह्मणों को वश में कर लो, तो ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी तुम्हारे अधीन हो जाएँगे।

राजा कपट मुनि की बात सुन कर उनको गुरु मानते हुए प्रश्न करने लगे की हे स्वामी
वे ब्राह्मण किस प्रकार से वश में हो सकते हैं, कृपा करके वह भी बताइए।

कपटमुनि ने कहा -हे राजन्‌! वह युक्ति तो मेरे हाथ है, और मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, जगत में मुझे कुछ भी दुर्लभ नहीं है पर मेरा जाना तुम्हारे नगर में हो नहीं सकता। जब से पैदा हुआ हूँ, तब से आज तक मैं किसी के घर अथवा गाँव नहीं गया हूँ
पर मैं तुम्हारा कार्य सिद्ध करने के लिए तुम्हारे घर अवश्य आऊंगा।

अब मैं तुमसे कहता हूँ  वो ध्यान से सुनो , तुम्हारे यहाँ
नित्य नए एक लाख ब्राह्मणों को कुटुम्ब सहित निमंत्रित करना। मैं तुम्हारे सकंल्प (के काल अर्थात एक वर्ष) तक प्रतिदिन भोजन बना दिया करूँगा , मेरे हाथो बना भोजन ग्रहण करके सभी ब्राह्मण तुम पर प्रसन्न हो कर थोड़े ही परिश्रम से सब ब्राह्मण तुम्हारे वश में हो जाएँगे।

उस दुष्ट ने पिछला बैर याद करके (षड्यंत्र किया) और जिस प्रकार शत्रु का नाश हो, वही उपाय रचा। भावीवश राजा (प्रतापभानु) कुछ भी न समझ सका

जो सूअर था वो कपट मुनि का मित्र हि था , जो महा मायावी था उसी मायावी ने सुअर का भेस धारण कर राजा को घोर जंगल में ले आया था ,


उस रात प्रतापभानु उस कपटमुनि के आश्रम में ही सो गया था , रात गहरी होने के बाद उस कपट मुनि ने अपने मित्र सूअर (कालकेतु) को आज्ञा दी की अब तुम इस राजा को अपने राज्य में पंहुचा कर आ जाओ। 

उसने प्रतापभानु राजा को घोड़े सहित क्षणभर में घर पहुँचा दिया। राजा को रानी के पास सुलाकर घोड़े को अच्छी तरह से घुड़साल में बाँध दिया , और उस राजा के पुरोहित को उठा ले गया और माया से उसकी बुद्धि को भ्रम में डालकर उसे उसने पहाड़ की खोह में ला रखा

वह आप पुरोहित का रूप बनाकर उसकी सुंदर सेज पर जा लेटा। राजा सवेरा  होने से पहले ही जागा और अपना घर देखकर उसने बड़ा ही आश्चर्य माना

 वह पुरोहित के रूपमे आकर ब्रामणो के लिए छह रस और चार प्रकार के भोजन, जैसा कि वेदों में वर्णन है, बनाए। उसने मायामयी रसोई तैयार की और इतने व्यंजन बनाए, जिन्हें कोई गिन नहीं सकता

 उस कपट मुनि ने अनेक प्रकार के पशुओं का मांस पकाया और उसमें उस दुष्ट ने ब्राह्मणों का मांस मिला दिया। सब ब्राह्मणों को भोजन के लिए बुलाया और चरण धोकर आदर सहित बैठाया।

ज्यों ही राजा परोसने लगा,

उसी काल (कालकेतुकृत) आकाशवाणी हुई- हे ब्राह्मणों! उठ-उठकर अपने घर जाओ, यह अन्न मत खाओ। इस अन्न को ( खाने) में बड़ी हानि है
रसोई में ब्राह्मणों का मांस बना है।

 (आकाशवाणी का) विश्वास मानकर सब ब्राह्मण उठ खड़े हुए। राजा व्याकुल हो गया (परन्तु), उसकी बुद्धि मोह में भूली हुई थी। होनहारवश उसके मुँह से (एक) बात भी न निकली

तब ब्राह्मण क्रोध सहित बोल उठे- उन्होंने कुछ भी विचार नहीं किया- अरे मूर्ख राजा! तू जाकर परिवार सहित राक्षस हो।
रे नीच क्षत्रिय! तूने तो परिवार सहित ब्राह्मणों को बुलाकर उन्हें नष्ट करना चाहा था, ईश्वर ने हमारे धर्म की रक्षा की। अब तू परिवार सहित नष्ट होगा
, एक वर्ष के भीतर तेरा नाश हो जाए, तेरे कुल में कोई पानी देने वाला तक न रहेगा। शाप सुनकर राजा भय के मारे अत्यन्त व्याकुल हो गया। फिर सुंदर आकाशवाणी हुई ,

हे ब्राह्मणों! तुमने विचार कर शाप नहीं दिया। राजा ने कुछ भी अपराध नहीं किया। आकाशवाणी सुनकर सब ब्राह्मण चकित हो गए। तब राजा वहाँ गया, जहाँ भोजन बना था

(देखा तो) वहाँ न भोजन था, न रसोइया ब्राह्मण ही था। तब राजा मन में अपार चिन्ता करता हुआ लौटा। उसने ब्राह्मणों को सब वृत्तान्त सुनाया और (बड़ा ही) भयभीत और व्याकुल होकर वह पृथ्वी पर गिर पड़ा।

ब्राह्मण बोले ,
हे राजन! यद्यपि तुम्हारा दोष नहीं है, तो भी होनहार नहीं मिटता। ब्राह्मणों का शाप बहुत ही भयानक होता है, यह किसी तरह भी टाले टल नहीं सकता

उसके बाद प्रतापभानु को उस  शत्रु कपट मुनि ने चारो और से घेरकर उनके वंस का नास कर दिया और वो प्रतापभानु की राज गद्दी पर बैठ गया ,
 

वे प्रतापभानु ही अपने परिवार सहित राक्षस बने जो रावण , कुम्भकर्ण खरदूषण और सूर्पनखा थी इन सभी का गर्भ स्थापित भी सध्या काल में हुआ।  संध्या काल में गर्भ स्थापित होने वाले जीव राक्षस प्रवति के ही होते है , इस  परिवार में एक धर्मात्मा विभीषणजी भी थे जिनका गर्भ स्थापित सध्या काल में नही हुआ।

इस कथा का लेखन स्वामी श्री तुलसीदास गोस्वामी जी ने अपनी रामचरित्रमानस में किया है ,( मैं हरिदासी ) उन पुराणपुर्शोतम को वंदन करती हूँ !! जय श्री राम !    
{ जय श्री राधे राधे }
प्रियतम  मीठी  नित  याद  तुम्हारी आती !
मैं  पल  भर  कभी तुम्है  बिछार  न  पाती !!

आजारे  मन  मीत  साँवरे , आरत हो  के  पुकारू !
मैं निशदिन तेरा ध्यान धरु, अरु रोज ही पंत निहारु !!

कब आएगा तू ही  बता दे , बात रही  अब  तेरी !
मेरी तूने एक न मानी ,समझी अपन से न्यारी !!
 

खिया सावन बदरा बरसे , आश लगी मोहे तेरी !
दिना  नाथ  दयाकर  मोहन ,  मैं  दासी  हूँ  तेरी ! !

हृदय  पीर  पिव तोहे मिलन की , रोम रोम  अकुलावे !
रो - रो कर में तुझे पुकारू , श्याम धणी क्यों नही आवे ?!!

और भगतन को दर्शन दे पिव पीर मिटाई भारी !
अब मेरी  बारी  आई तो , नाक सूज गयी  थारी !!

तू अंतर्यामी है  श्यामा , क्या  तू  समझ नही पावे !
मेरे हृदय पीर पिव भारी , क्या तू जान नही पावे !!

क्या मोसे कछु भूल  हो गयी , या  तू माया  डारि !
तू कहवे तो कान पकड़लूं ,  खोल आँख अब थारी !!

दासी के प्रभु श्यामा सांवरे , पीर समझ अब मोरी !
जल्दी आना देर न करना , दासी , के श्याम मुरारी!!

जय श्री राधे राधे }

Thursday, 2 October 2014

  

                  रावण मार राम घर आये....!
                उसके बाद प्रभु श्री राम के पूछने पर अगस्त्य मुनि के मुख से रावण और कुम्भकरण के जन्म की कथा सुन ना..!!


जब प्रभु श्री राम का  राज्याभिषेक हुआ उनके कुछ दिनों बाद अगस्त्य ऋषि आये , अगस्त्य ऋषि को भगवान ने सभी सभा सहित उठ खड़े हुए और भगवान ने प्रणाम करके कहा
 ऋषिवर ! आपका स्वागत है कहिये मैं आप की क्या सेवा करू तथापि  इस भूमण्डल पर कही कोई  ऐसा प्राणी नही है जो आपकी तपश्या में विघ्न डाल सके , मुनिवर ! आप धर्म के साक्षात विग्रह है लोभ तो आप को छू भी नही गया , बताईये मैं आपका कौन - सा कार्य करूँ ? मुनिवर ! यदपि आप की तपश्या के प्रभाव से ही सारे कार्य सिद्ध हो जाते है तथापि मुझ पर कृपा करके ही मेरे लिए कोई सेवा बताईये।
भगवान से आदर पा कर मुनि बहुत प्रसन्न हुए और
भगवान से अत्यंत विनययुक्त वाणी में बोले , हे दशरथनंदन  मुझे कोई कष्ट नही है कष्ट देने वाला एक ही राक्षस था जिसे आपने मार कर सभी ऋषि मुनियों को अभयदान दे दिया है , हे राजाधिराज ! आपका दर्शन देवताओं को भी  दुर्लब है यही सोच कर मैं यहाँ आया हूँ हे स्वामिन ! अब आप मुझे अपने दर्शन के लिए ही आया समझिए।

 तब प्रभु ने अगस्त्य जी को आदर सहित आसन पर बिठा कर ऋषि से पूछा की मुनिवर ! मैं आपसे कुछ पूछना चाहता हूँ , वो रावण और कुम्भकरण कौन थे और किस कुल के थे  जिसका मेने वध किया था , आप कृपा कर के विस्तार से बताईये।

तब ऋषि ने कहा प्रभो ! आप सब कुछ जानते ही है फिर भी आप मुझे मान दे कर मुझसे कुछ जानना चाहते है तो में बता ता हूँ ,
ऋषि ने कहा प्रभो !
सम्पूर्ण सृष्टि करने वाले ब्रह्मा जी है उनके पुत्र महर्षि पुलस्त्य हुए पुलस्त्यजी से मुनिवर विश्रवा का जन्म हुआ उनकी दो पत्निया थी जो बड़ी पतिव्रता और  सदाचारिणी थी , उनमे से एक का नाम ( मन्दाकिनी ) था और दूसरी ( कैकसी ) नाम से प्रसीद थी।  पहली पत्नी मन्दाकिनी  के गर्भ से 

( कुबेर ) का जन्म हुआ जो लोकपाल के पदको प्राप्त हुए है उन्होंने भगवान शंकर जी से प्रसाद पा कर लंका पुरी को अपना निवास - स्थान बनाया था , और कैकसी के गर्भ से रावण कुम्भकरण हुए , रावण और कुम्भकरण का ,
संध्या काल में गर्भ स्थापित हुआ सो
 ये दुष्ट राक्षस प्रवति के हुए और विभीषण जी धर्मात्मा थे , ये सब ब्रह्माजी के परपौत्र थे ,
एक दिन की बात है ( कुबेर ) अपने माता पिता से मिलने आये थे , वे अपने माता -पिता के चरणो  में बहुत समय तक बैठे रहे और फिर उनको प्रणाम कर अपने मन की गति से चलने वाले विमान पर चढ़ कर चले गए।

 कुबेर को अपने पिता के चरणो मे बैठा देख रावण ने अपनी माँ से पूछा की माँ ! ये कौन था जो मेरे पिता को प्रणाम कर के गया और उनका विमान तो वायु की गति से भी तेज चल रहा था ?

रावण की माँ ने क्रोध में भरकर कहा अरे ! ये मेरी शोत का बेटा है जो शंकर जी की कृपा से लंका का राज्य और मन की गति से चलने वाला विमान प्राप्त कर अपनी माता का गौरव बढ़ाया है , तुम जैसे नही तुम अभागो ने मेरी कोख से जन्म लिए जो कीड़े की
भांति रेंगते हुए इधर उधर फिरते रहते हो ,तुम अपने सौतेले भाई ( कुबेर ) की बराबरी नही कर सकते..!

माँ की बात सुन कर रावण को बहुत दुःख हुआ और माँ से कहने लगा माँ ! ये कीड़े सी हस्ती रखने वाला ( कुबेर ) किस गिनती में आता है , मैं  ( दस  हजार साल ) तपश्या कर पुरे त्रिलोकी का स्वामी न बन जाऊ तो मुझे ( पितृ ) दोस लगे , इतना कह कर रावण तपश्या के लिए निक गया उसके पीछे - पीछे  कुम्भकरण और विभीषण भी तपश्या करने चले गए 

 विभीषणजी धर्मात्मा थे जो उन्होंने ब्रम्हाजी से भगवान की भक्ति मांगी ,
रावण राक्षसी प्रवति का था सो उसने ब्रह्मा जी से अमर होना का वरदान माँगा पर ,

 ब्रह्मा जी ने कहा ,
जो जन्म लेता है उसे मारना ही पड़ता है इसलिए में तुम्हे अमर होने का वरदान नही दे सकता फिर कहा अच्छा ! आप मुझे अमर होने का वरदान नही दे सकते तो इतना दे दीजिये की किसी साधारण मनुष्य के हाथो मेरी मृत्यु न हो , केवल नारायण के हाथो ही मेरी मृत्यु हो , ब्रह्माजी ने कहा तथास्तु ! ऐसा ही हो ,
  फिर उसने बल बुद्धि और त्रिलोक में उनके लिए कुछ भी पाना दुर्लब न हो ,  युद्ध में किसी नर के हाथो मेरी पराजय न हो , ब्रह्मा जी और शंकर जी से ऐसा वरदान माँग कर वो पुरे त्रिलोकी को अपने वष में कर दिया !
   
फिर कुम्भकरण इन्द्राश्न चाहता था , ब्रह्माजी ने सोचा की ये राक्षस मांस भक्षी है , इंद्र आशन पर बैठ गया तब तो कुछ ही दिनो मे पूरी सृष्टि को नस्ट कर देगा , इसलिए ब्रह्माजी और इंद्र की प्रार्थना से देवी सरस्वती उनकी जीवा पर विराजित हो गयी और इन्द्राश्न की जगह जीवा लड़कड़ते हुए कहा , पिता श्री ! मुझे निंदराशन दे दीजिये ,
ब्रह्माजी ने झट से कहा तथास्तु ! ऐसा ही हो , तुम सदा निंदराशन में रहो ,  जीवन भर सोते ही रहो !
'कुम्भकरण हड़बड़ा कर बोले अरे ! ये मेरे मुँह से क्या निकल गया मेरी गलती क्षमा करे मुझे निंदराशन नही , इंद्र - आशन चाहिए , ब्रह्माजी ने कहा अब कुछ नही हो सकता तुमने जो कहा मेने वरदान दे दिया और मैं वरदान दे कर पलटता नही
'रावण गबराय की अगर इसने जिद करके ब्रह्माजी से पाये वरदान को उल्ट पलट करवा दिया तो मेरे भी सारे वरदान उलटे हो जायेंगे ये सोच कर रावण ने ब्रह्माजी से प्रार्थना कर कहा देव ! आप ने जो दिया वो ठीक है बस ये अपने शरीर को जीवित रख सके उसका उपाय बता दीजिये ?


तब बहुत प्रार्थना करने पर ब्रह्मा जी ने कहा अच्छा हाँ ! तुम्हारे निंदराशन को कुछ कम कर सकता हूँ , कुम्भकरण आतुर हो कर बोले हाँ ! हाँ ! महाराज ये ठीक रहेगा।
ब्रह्माजी बोले तुम छः महीनो तक निंद्रा में सोये रहोगे और उसके बाद एकबार निंद्रा से जागने के बाद भोजन करके फिर घोर निंद्रा मे सो जाओगे

कुम्भकरण ब्रह्माजी की बात सुन कर बैठा - बैठा सिर पीटने लगा की ये क्या हो गया , क्या पाने चला था और क्या ले बैठा

फिर कुछ समय बीत जाने के बाद रावण ने कुबेर का रथ छीन लिया और कुटिलता से लंका पर डेरा जमा दिया।
ऋषि कहते है प्रभो ! उसी रावण को आपने समापन किया है उसके अत्याचार से पुरे त्रिलोकी में हा - हा कार मचा हुआ था जो आपने कृपा कर उस दुष्ट को पुरे राक्षसो सही जड़ से उखाड़ कर फेक दिया और अपने 
भक्तो को अभय दान प्रदान कर उनका गौरव बढ़ाया है।
ये कथा अगस्त्य  ऋषि ने भगवान श्री रामजी के पूछने पर ( प्रभु श्रीराम को , श्रीराम दरबार ) में सुनाई थी ! जय श्री सीताराम !!

  { जय जय श्री राधे }