Thursday, 2 October 2014

  

                  रावण मार राम घर आये....!
                उसके बाद प्रभु श्री राम के पूछने पर अगस्त्य मुनि के मुख से रावण और कुम्भकरण के जन्म की कथा सुन ना..!!


जब प्रभु श्री राम का  राज्याभिषेक हुआ उनके कुछ दिनों बाद अगस्त्य ऋषि आये , अगस्त्य ऋषि को भगवान ने सभी सभा सहित उठ खड़े हुए और भगवान ने प्रणाम करके कहा
 ऋषिवर ! आपका स्वागत है कहिये मैं आप की क्या सेवा करू तथापि  इस भूमण्डल पर कही कोई  ऐसा प्राणी नही है जो आपकी तपश्या में विघ्न डाल सके , मुनिवर ! आप धर्म के साक्षात विग्रह है लोभ तो आप को छू भी नही गया , बताईये मैं आपका कौन - सा कार्य करूँ ? मुनिवर ! यदपि आप की तपश्या के प्रभाव से ही सारे कार्य सिद्ध हो जाते है तथापि मुझ पर कृपा करके ही मेरे लिए कोई सेवा बताईये।
भगवान से आदर पा कर मुनि बहुत प्रसन्न हुए और
भगवान से अत्यंत विनययुक्त वाणी में बोले , हे दशरथनंदन  मुझे कोई कष्ट नही है कष्ट देने वाला एक ही राक्षस था जिसे आपने मार कर सभी ऋषि मुनियों को अभयदान दे दिया है , हे राजाधिराज ! आपका दर्शन देवताओं को भी  दुर्लब है यही सोच कर मैं यहाँ आया हूँ हे स्वामिन ! अब आप मुझे अपने दर्शन के लिए ही आया समझिए।

 तब प्रभु ने अगस्त्य जी को आदर सहित आसन पर बिठा कर ऋषि से पूछा की मुनिवर ! मैं आपसे कुछ पूछना चाहता हूँ , वो रावण और कुम्भकरण कौन थे और किस कुल के थे  जिसका मेने वध किया था , आप कृपा कर के विस्तार से बताईये।

तब ऋषि ने कहा प्रभो ! आप सब कुछ जानते ही है फिर भी आप मुझे मान दे कर मुझसे कुछ जानना चाहते है तो में बता ता हूँ ,
ऋषि ने कहा प्रभो !
सम्पूर्ण सृष्टि करने वाले ब्रह्मा जी है उनके पुत्र महर्षि पुलस्त्य हुए पुलस्त्यजी से मुनिवर विश्रवा का जन्म हुआ उनकी दो पत्निया थी जो बड़ी पतिव्रता और  सदाचारिणी थी , उनमे से एक का नाम ( मन्दाकिनी ) था और दूसरी ( कैकसी ) नाम से प्रसीद थी।  पहली पत्नी मन्दाकिनी  के गर्भ से 

( कुबेर ) का जन्म हुआ जो लोकपाल के पदको प्राप्त हुए है उन्होंने भगवान शंकर जी से प्रसाद पा कर लंका पुरी को अपना निवास - स्थान बनाया था , और कैकसी के गर्भ से रावण कुम्भकरण हुए , रावण और कुम्भकरण का ,
संध्या काल में गर्भ स्थापित हुआ सो
 ये दुष्ट राक्षस प्रवति के हुए और विभीषण जी धर्मात्मा थे , ये सब ब्रह्माजी के परपौत्र थे ,
एक दिन की बात है ( कुबेर ) अपने माता पिता से मिलने आये थे , वे अपने माता -पिता के चरणो  में बहुत समय तक बैठे रहे और फिर उनको प्रणाम कर अपने मन की गति से चलने वाले विमान पर चढ़ कर चले गए।

 कुबेर को अपने पिता के चरणो मे बैठा देख रावण ने अपनी माँ से पूछा की माँ ! ये कौन था जो मेरे पिता को प्रणाम कर के गया और उनका विमान तो वायु की गति से भी तेज चल रहा था ?

रावण की माँ ने क्रोध में भरकर कहा अरे ! ये मेरी शोत का बेटा है जो शंकर जी की कृपा से लंका का राज्य और मन की गति से चलने वाला विमान प्राप्त कर अपनी माता का गौरव बढ़ाया है , तुम जैसे नही तुम अभागो ने मेरी कोख से जन्म लिए जो कीड़े की
भांति रेंगते हुए इधर उधर फिरते रहते हो ,तुम अपने सौतेले भाई ( कुबेर ) की बराबरी नही कर सकते..!

माँ की बात सुन कर रावण को बहुत दुःख हुआ और माँ से कहने लगा माँ ! ये कीड़े सी हस्ती रखने वाला ( कुबेर ) किस गिनती में आता है , मैं  ( दस  हजार साल ) तपश्या कर पुरे त्रिलोकी का स्वामी न बन जाऊ तो मुझे ( पितृ ) दोस लगे , इतना कह कर रावण तपश्या के लिए निक गया उसके पीछे - पीछे  कुम्भकरण और विभीषण भी तपश्या करने चले गए 

 विभीषणजी धर्मात्मा थे जो उन्होंने ब्रम्हाजी से भगवान की भक्ति मांगी ,
रावण राक्षसी प्रवति का था सो उसने ब्रह्मा जी से अमर होना का वरदान माँगा पर ,

 ब्रह्मा जी ने कहा ,
जो जन्म लेता है उसे मारना ही पड़ता है इसलिए में तुम्हे अमर होने का वरदान नही दे सकता फिर कहा अच्छा ! आप मुझे अमर होने का वरदान नही दे सकते तो इतना दे दीजिये की किसी साधारण मनुष्य के हाथो मेरी मृत्यु न हो , केवल नारायण के हाथो ही मेरी मृत्यु हो , ब्रह्माजी ने कहा तथास्तु ! ऐसा ही हो ,
  फिर उसने बल बुद्धि और त्रिलोक में उनके लिए कुछ भी पाना दुर्लब न हो ,  युद्ध में किसी नर के हाथो मेरी पराजय न हो , ब्रह्मा जी और शंकर जी से ऐसा वरदान माँग कर वो पुरे त्रिलोकी को अपने वष में कर दिया !
   
फिर कुम्भकरण इन्द्राश्न चाहता था , ब्रह्माजी ने सोचा की ये राक्षस मांस भक्षी है , इंद्र आशन पर बैठ गया तब तो कुछ ही दिनो मे पूरी सृष्टि को नस्ट कर देगा , इसलिए ब्रह्माजी और इंद्र की प्रार्थना से देवी सरस्वती उनकी जीवा पर विराजित हो गयी और इन्द्राश्न की जगह जीवा लड़कड़ते हुए कहा , पिता श्री ! मुझे निंदराशन दे दीजिये ,
ब्रह्माजी ने झट से कहा तथास्तु ! ऐसा ही हो , तुम सदा निंदराशन में रहो ,  जीवन भर सोते ही रहो !
'कुम्भकरण हड़बड़ा कर बोले अरे ! ये मेरे मुँह से क्या निकल गया मेरी गलती क्षमा करे मुझे निंदराशन नही , इंद्र - आशन चाहिए , ब्रह्माजी ने कहा अब कुछ नही हो सकता तुमने जो कहा मेने वरदान दे दिया और मैं वरदान दे कर पलटता नही
'रावण गबराय की अगर इसने जिद करके ब्रह्माजी से पाये वरदान को उल्ट पलट करवा दिया तो मेरे भी सारे वरदान उलटे हो जायेंगे ये सोच कर रावण ने ब्रह्माजी से प्रार्थना कर कहा देव ! आप ने जो दिया वो ठीक है बस ये अपने शरीर को जीवित रख सके उसका उपाय बता दीजिये ?


तब बहुत प्रार्थना करने पर ब्रह्मा जी ने कहा अच्छा हाँ ! तुम्हारे निंदराशन को कुछ कम कर सकता हूँ , कुम्भकरण आतुर हो कर बोले हाँ ! हाँ ! महाराज ये ठीक रहेगा।
ब्रह्माजी बोले तुम छः महीनो तक निंद्रा में सोये रहोगे और उसके बाद एकबार निंद्रा से जागने के बाद भोजन करके फिर घोर निंद्रा मे सो जाओगे

कुम्भकरण ब्रह्माजी की बात सुन कर बैठा - बैठा सिर पीटने लगा की ये क्या हो गया , क्या पाने चला था और क्या ले बैठा

फिर कुछ समय बीत जाने के बाद रावण ने कुबेर का रथ छीन लिया और कुटिलता से लंका पर डेरा जमा दिया।
ऋषि कहते है प्रभो ! उसी रावण को आपने समापन किया है उसके अत्याचार से पुरे त्रिलोकी में हा - हा कार मचा हुआ था जो आपने कृपा कर उस दुष्ट को पुरे राक्षसो सही जड़ से उखाड़ कर फेक दिया और अपने 
भक्तो को अभय दान प्रदान कर उनका गौरव बढ़ाया है।
ये कथा अगस्त्य  ऋषि ने भगवान श्री रामजी के पूछने पर ( प्रभु श्रीराम को , श्रीराम दरबार ) में सुनाई थी ! जय श्री सीताराम !!

  { जय जय श्री राधे }


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