सुदामाजी और संकोचिनाथ की कथा
ऐसो बेहाल बेवाइनसै माग कंटक जाल गड़े पुनि जोए।
हाय महादुःख पाये सखा ! तुम आये इतै न, कितै दिन खोये।।
देखि सुदामा की दीन दसा करुणा करी के करूणानिधि रोये।
पानी परातको हाथ छुयौ नहीं नैननिके जल ते पग धोये।।
इसीको संकोचिनाथ कहते है !
आपसे धीरेसे- एकांत में सलाह की भांति एक बात कहूँ ?
श्रीनन्दबाबा का लाल बहुत संकोची है इस संकोचिनाथ से मांग कर इसे और अधिक संकोच में मत डालिये , आप कुछ माँगेगे , कुछ प्रार्थना करेंगे तो बड़ा संकोच बड़ा दुःख होगा इसे , इन्हे लगेगा की मैं इतना अयोग्य - इतना प्रमत्त, इतना कृपा - कृपाण हूँ की मेरे स्वजनोंको कहना पड़ता है- उनको प्रर्थना करनी पड़ती है।
इस आनंदकंद से प्रमाद नही होता - यह अपने भक्तो के मंगल - विधान में लगा ही रहता , यह भी आप समझते है।
कोई एक बार इनके आगे सिर झुका देता है तो ये संकोच से गढ़ जाते है की मैं तो इनका कोई बड़ा हित नही कर पाया अब तो जितना बड़ा उसकी दृष्टि भी उतनी बड़ी , अब हितभी उतनाही बड़ा होगा।
सुदामाजी तीन मुट्ठी चिउड़े ही तो भेट में ले गए थे वो भी संकोच के मारे श्रीकृष्ण को दे नही रहे थे , द्वारिका का वैभव देख कर सुदामाजी को साहस नही हुआ था की उस चिउड़े का उपहार द्वारिकाधीश को अर्पित करे , वे उस अपनी बगल में दबाये - सिकुड़े जा रहे थे , किन्तु श्रीयशोदानन्दन कही ऐसे मानने वालो मे से है? ये तो अपनो से वस्तु छीन कर भी खा लेते है।
अब श्रीकृष्ण ने अपने मित्र से पूछ लिया - 'भाभीने मेरे लिए क्या उपहार भेजा है ?
सुदामाजी क्या कहते ? उन्होंने मस्तक झुका लिया
उनका मस्तक झुका और श्रीकृष्ण का (
हाथ ) बढ़ा - 'यह आप बगलमे क्या दुबकाये है ? सुदामाजी ने और कसके दुबका दिया
पोटली को , जिससे श्रीकृष्ण खीच ना पाये , पर श्रीकृष्ण के आगे कोई दबा
सकेगा ? उनको कोई रोक सकेगा ? श्रीकृष्ण ने पोटली को खींचा इससे पोटली का
वस्त्र फट गया चिउड़े निचे पादपीठ पर और भूमि पर बिखर गए।
भगवान सुदामाजी के चिउड़े चबा रहे थे उस समय पुरे विश्वरूप को ये तृप्त कर दे रहे थे ,
आकाशमार्ग में खड़े देवता देख रहे है और अपने ओठो पर जीभ फेर रहे है जैसे ही भगवान ने चिउड़े चबाके भीतर निगले उसी क्षण देवताओंने तृप्त हो कर डकार ली और पेटपर हाथ फेरने लगे
अब आप इन मोहन का शिष्टाचार देखिये , वेदो में ये ही , वेदवाणी बन कर कहते है की चलते फिरते भोजन करना ( वर्जित ) है और यहाँ ये खुद शास्त्र की मर्यादा के विपरीत है ही ; किन्तु जब कोई अत्यंत आतुर हो जाये तो शिष्टाचार या मर्यादा का स्मरण कहा रहता है।
उसके बाद क्या हुआ आप सभी जानते ही है ! श्रीद्वारिकाधीश ने अपने मित्र को नविन वस्त्र पहनाये थे पर , जब वे श्रीकृष्ण से विदा ले कर वापिस अपने घर जाने लगे तो , उस नटखट ने हंसकर कहा ,
अच्छा ! मित्र ! आप अपना अमूल्य उत्तरीय एवं धोती तो लेते ही जायँ , सुदामाजी ने सोचा ओहो ! इन श्रीकृष्ण को तो अपनी धोती और उतरिये का भी मोह है पर इस नटखट को सुदामाजी नही समझ पाये ,
द्वारिका के वस्त्र उतरवाने का भाव श्रीकृष्ण का यह था की यह वस्त्र मेरे ( अकिंचन ) भक्त के धारण किये हुए है इसलिए इन्हे तो श्रीकृष्ण मस्तक पर लपेटेगा और प्राण के सामान सँभाल कर रखेगा क्यों की मित्रके धारण किए हुए वस्त्र जो है पर इनके कहने का ढंग तो देखिये , की अरे मित्र ! हमारे नविन वस्त्र उत्तार दो और अपने फ़टे पुराले वस्त्र लेते जाओ
सुदामाजी भी हंसकर बोले अरे ! हाँ ! कृष्ण मैं दरिद्र ब्राह्मण कहा इनको पहन कर अच्छा लगता हूँ !
सुदामाजी अपनी मैली फटी धोती लपेटते हुए द्वारिका के वस्त्र उतारते- उतारते कहा ,
चलना पैदल' मांगना भीख और ये कपडे ! कोई दो मुट्ठी अन्न देनेवाला भी होगा तो इन वस्त्रो को देख कर मुख मोड़ लेगा
अब सुदामाजी को कहा पता है की उस द्वारिकाधीश ने क्या दिया !
सुदामाजी ने कुछ नही माँगा पर उस संकोचिनाथ ने इतना दिया की वे कल्पना भी नही कर सकते इसलिए इस नटखट से कुछ मांग कर इन्हे संकोच में मत डालिये
एक भक्त ने तो इनका नाम भी संकोचिनाथ रख लिया इसलिए ये संकोचिनाथ है।
{ जय जय श्री राधे }
ऐसो बेहाल बेवाइनसै माग कंटक जाल गड़े पुनि जोए।
हाय महादुःख पाये सखा ! तुम आये इतै न, कितै दिन खोये।।
देखि सुदामा की दीन दसा करुणा करी के करूणानिधि रोये।
पानी परातको हाथ छुयौ नहीं नैननिके जल ते पग धोये।।
इसीको संकोचिनाथ कहते है !
आपसे धीरेसे- एकांत में सलाह की भांति एक बात कहूँ ?
श्रीनन्दबाबा का लाल बहुत संकोची है इस संकोचिनाथ से मांग कर इसे और अधिक संकोच में मत डालिये , आप कुछ माँगेगे , कुछ प्रार्थना करेंगे तो बड़ा संकोच बड़ा दुःख होगा इसे , इन्हे लगेगा की मैं इतना अयोग्य - इतना प्रमत्त, इतना कृपा - कृपाण हूँ की मेरे स्वजनोंको कहना पड़ता है- उनको प्रर्थना करनी पड़ती है।
इस आनंदकंद से प्रमाद नही होता - यह अपने भक्तो के मंगल - विधान में लगा ही रहता , यह भी आप समझते है।
कोई एक बार इनके आगे सिर झुका देता है तो ये संकोच से गढ़ जाते है की मैं तो इनका कोई बड़ा हित नही कर पाया अब तो जितना बड़ा उसकी दृष्टि भी उतनी बड़ी , अब हितभी उतनाही बड़ा होगा।
सुदामाजी तीन मुट्ठी चिउड़े ही तो भेट में ले गए थे वो भी संकोच के मारे श्रीकृष्ण को दे नही रहे थे , द्वारिका का वैभव देख कर सुदामाजी को साहस नही हुआ था की उस चिउड़े का उपहार द्वारिकाधीश को अर्पित करे , वे उस अपनी बगल में दबाये - सिकुड़े जा रहे थे , किन्तु श्रीयशोदानन्दन कही ऐसे मानने वालो मे से है? ये तो अपनो से वस्तु छीन कर भी खा लेते है।
अब श्रीकृष्ण ने अपने मित्र से पूछ लिया - 'भाभीने मेरे लिए क्या उपहार भेजा है ?
सुदामाजी क्या कहते ? उन्होंने मस्तक झुका लिया

श्रीकृष्ण ने कहा , ओह ! यह उपहार ! भेजा है भाभीने ! श्रीकृष्ण भेटकी प्रशंन्सा करने लगे 'इतने उत्तम चिउड़े !
उस चिउडों को ऐसे देख रहे थे जैसे कोई ( महीनो का अकालका मारा क्षुधातुर अन्नपर टूट पड़े ) उस आतुरतासे श्यामसुन्दर पर्यंक से भूमि पर उत्तरा और उन चिउडों को समेटने लगे। पादपीठपर , भूमि पर - जहाँ
उस चिउडों को ऐसे देख रहे थे जैसे कोई ( महीनो का अकालका मारा क्षुधातुर अन्नपर टूट पड़े ) उस आतुरतासे श्यामसुन्दर पर्यंक से भूमि पर उत्तरा और उन चिउडों को समेटने लगे। पादपीठपर , भूमि पर - जहाँ
अपने ही नही सेवको तक के
पैर पड़ते है , वहीँ गिरे - बिखरे चिउड़े (त्रिभुवन का स्वामी कंगाल ) के समान
आतुरता से समेट रहा था और इनमे समेट लेने तक का धैर्य भी पूरा नही था।
एक
मुट्ठी समेट कर अपने मुख में डाली और चबाते हुए बाकि चिउड़े बीनने लगा
चिउड़े चबाते - चबाते कहने लगे , उ हा ! प्यारे मित्र ! ये परम स्वादिष्ट है !
भगवान सुदामाजी के चिउड़े चबा रहे थे उस समय पुरे विश्वरूप को ये तृप्त कर दे रहे थे ,
आकाशमार्ग में खड़े देवता देख रहे है और अपने ओठो पर जीभ फेर रहे है जैसे ही भगवान ने चिउड़े चबाके भीतर निगले उसी क्षण देवताओंने तृप्त हो कर डकार ली और पेटपर हाथ फेरने लगे
अब आप इन मोहन का शिष्टाचार देखिये , वेदो में ये ही , वेदवाणी बन कर कहते है की चलते फिरते भोजन करना ( वर्जित ) है और यहाँ ये खुद शास्त्र की मर्यादा के विपरीत है ही ; किन्तु जब कोई अत्यंत आतुर हो जाये तो शिष्टाचार या मर्यादा का स्मरण कहा रहता है।
उसके बाद क्या हुआ आप सभी जानते ही है ! श्रीद्वारिकाधीश ने अपने मित्र को नविन वस्त्र पहनाये थे पर , जब वे श्रीकृष्ण से विदा ले कर वापिस अपने घर जाने लगे तो , उस नटखट ने हंसकर कहा ,
अच्छा ! मित्र ! आप अपना अमूल्य उत्तरीय एवं धोती तो लेते ही जायँ , सुदामाजी ने सोचा ओहो ! इन श्रीकृष्ण को तो अपनी धोती और उतरिये का भी मोह है पर इस नटखट को सुदामाजी नही समझ पाये ,
द्वारिका के वस्त्र उतरवाने का भाव श्रीकृष्ण का यह था की यह वस्त्र मेरे ( अकिंचन ) भक्त के धारण किये हुए है इसलिए इन्हे तो श्रीकृष्ण मस्तक पर लपेटेगा और प्राण के सामान सँभाल कर रखेगा क्यों की मित्रके धारण किए हुए वस्त्र जो है पर इनके कहने का ढंग तो देखिये , की अरे मित्र ! हमारे नविन वस्त्र उत्तार दो और अपने फ़टे पुराले वस्त्र लेते जाओ
सुदामाजी भी हंसकर बोले अरे ! हाँ ! कृष्ण मैं दरिद्र ब्राह्मण कहा इनको पहन कर अच्छा लगता हूँ !
सुदामाजी अपनी मैली फटी धोती लपेटते हुए द्वारिका के वस्त्र उतारते- उतारते कहा ,
चलना पैदल' मांगना भीख और ये कपडे ! कोई दो मुट्ठी अन्न देनेवाला भी होगा तो इन वस्त्रो को देख कर मुख मोड़ लेगा
अब सुदामाजी को कहा पता है की उस द्वारिकाधीश ने क्या दिया !
सुदामाजी ने कुछ नही माँगा पर उस संकोचिनाथ ने इतना दिया की वे कल्पना भी नही कर सकते इसलिए इस नटखट से कुछ मांग कर इन्हे संकोच में मत डालिये
एक भक्त ने तो इनका नाम भी संकोचिनाथ रख लिया इसलिए ये संकोचिनाथ है।
{ जय जय श्री राधे }
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