Tuesday, 19 November 2013

   कलयुग काली कोटरी , जा को चाहे ना कोय !
   कलयुग मारन जो चला , बैठा बुधि खोय !!

कलयुग का समय आते ही  कलयुग ने अपना रंग दिखाना सुरु कर दिया जब वो राजशाही वैश धारण कर हाथ में डंडा लिए , गाय - बैल के एक जोड़े को इस तरह पिटते हुए जा रहा था जैसे उनका कोई स्वामी ही नही हो।
उस समय पृथ्वी माँ ने गाय और धर्म ने बैल का रूप धारण कर रखा था।

धर्म रूपी बैल के तीन पैर ( त़प , पवित्रता , और दया ) ये तिन पैर टूट जाने से वह एक पैर पर ही चल रहे थे जिनका नाम था ( सत्य )


जब राजा परीक्षित ने देखा की राजशाही वैश धारण किये हुए काला कलूट एक दुष्ट व्यक्ति एक पैर पर चल रहे बैल और दुबली श्रीहीन गाय को पिटता ही जा रहा है , तब राजा परीक्षित ने अपना धनुस चढ़ा कर मेघ के सामान गभीर वाणी से उनको ललकार ते हुए बोले  अरे ! दुष्ट तू कौन है जो बलवान हो कर भी तू मेरे राज्य के इन दुर्बल निरपरद  प्राणियों को बलपूर्वक मारता ही जा रहा है ?
अरे ! पापी
तूने नट  की तरह वैष तो किसी राजा सा धारण कर  रखा है  पर कर्म से तू सूत्र  जान पड़ता है।

इस तरह गर्जना करते हुए जब राजा परीक्षित अपने  तीर कबान ले कर उनको मारने लगे तब कलयुग ने सोचा की अब मैं इस राजा के बाण से बच नही सकूँगा अब राजा मुझे मार ही डालेंगे , तब  कलयुग ने अपना राजशाही वेश झट पट उतर कर राजा परिक्षीत के चरणों में घिर पड़ा , बोल महाराज आप मुझे मारिये मत में कलयुग हूँ
मेरा काम है पाप ,कूट , कपट , चोरी , दरिद्रता , उत्पाद , अधर्म , फेलाना। ,आप जानते ही हो राजन बाकि तीनो युग अपना भोग - भोग कर चले गए है अब मेरी ही बारी है , विधाता की आज्ञा से मुझे आना पड़ा आप मुझे शमा कर दीजिये।

राजा परीक्षित पांडवों के पोत्र थे दया उनमे कूट कूट कर भरी हुयी थी। जब राजा  ने देखा की कलयुग हाथ जोड़कर विनम्र भावसे प्रार्थना करते हुए उनके चरणों में पड़ा है तो , राजा ने  कहा की जब तुम हाथ जोड़कर मेरी शरण में आ गया है अब तुझे कोई नही मार सकता पर तू अधर्म का सहायक है  इसलिए तु मेरे राज्य में नही रह सकता ,इस देश में भगवान श्री हरी यज्ञ के रूप में निवास करते है यहाँ तेरा निवास नही हो सकता।

कलयुग बोंला  महारज ! तीनो युगों के बाद मेरा ही समय है में जा नही सकता आप मुझे कोई स्थान  दे दीजिए।


तब राजा परीक्षित ने कलयुग को चार स्थान दिए थे ,
जो ( मधपान,  पर स्त्री गमन ,हिंसा , निर्दयता ,) पर कलयुग ने कहा महाराज ! यहाँ तो कोई परिवार नही बसते यहाँ तो कष्ट ही कष्ट है , आप एक स्थान मुझे और दे दीजिये जहा पूरा परिवार रहता हो , तब कलयुग ने एक स्थान  स्वर्ण  में मांग लिया   , राजा  ने कलयुग की बात मान कर कहा ठीक है ,अनीति से कमाए हुए स्वरण में तेरा ही निवास रहेगा
|

राजा ने कलयुग को पाँच स्थान ने दे दिए ( झूट , मद , काम ,वैर ,और रजोगुण ) ये पाँच स्थान दे कर राजा घर लोट आये।  ,

महाराज परीक्षित ने सोचा की आज मेरे पूर्वजो के खजाने खुलवाता हूँ देखू कितना क्या है , राजा  ने खजाने का ताला खुलवाया और उस में रखे हीरे मोती पन्ने से जड़े जेवरात को इधर उधर करते हुए उनकी नजर एक मुकुट पर पड़ी जो राजा ( जरासन ) का था जो अनीति से कमाए हुए स्वर्ण से बना हुआ था।

परीक्षित ने सोचा की आज में ये मुकुट ही पहन लेता हूँ , परीक्षित भूल गया की मेने ही अनीति से कमाए हुए स्वर्ण में कलयुग को वास दिया था।


राजा ने जैसे ही मुकुट अपने सिर पर धारण किया उनमे कलयुग बैठ गया , राजा घोड़े पर सवार हो कर सिकार खेलने निकले जहा उनको बहुत प्यास लगी थी , राजा ने देखा की सामने एक कुटिया है वह पानी पि आता हूँ , राजा बहार से ही उचे स्वर में आवाज लगाने लगा की अरे ,,,,, अन्दर कोई है ? जरा पानी पिला दो भाई !!
राजा ने सोचा की अन्दर से कोई जवाब नही आ रहा है तो वो भीतर चले गए जहा श्रंगी ऋषि अपने इष्ट देव के ध्यान में बेठे , राजा के सर पर काल नाच रहा था सो ऋषि को अनेको गलिय देते हुए की अरे मुर्ख में कब से आवाज लगाये  रहा हूँ सुनता नही मुरदा है क्या तू जनता नही में यहाँ का राजा हूँ। फिर भी ऋषि के तरफ से कोई जवाब न पा कर क्रोध में आ कर  ऋषि के गले में एक मृत साफ डाल कर चले गए

घर आकर  मुकुट को खोला  और सोचने लगा की अरे ये मेने क्या अपराद कर दिया जिन हाथो से ऋषि महात्माओ की सेवा किया करता था आज इन्ही हाथो से एक  ऋषि के गले में मृत साफ डाल कर आ गया , राजा पछतावे की आग में जल ही  रहा था , उतने में राजा के पास खबर आ गयी की जिन ऋषि के गले में आप ने मृतक साफ डाल कर आये है , उनके बेटे ने अप को श्राप दिया है की जिसने भी मेरे पिता श्री  के गले में मृत साफ डाला है उस की ठीक सातवे दिन तक्षक नाग के डसने से उनकी मृत्यु हो जायेगी।

फिर महाराज परीक्षित उसी समय घर छोड़ कर गंगा के किनारे चले गए जहा सुखदेवमुनि से पूरी भगवत कथा सुनी , जो आज हम को सुनने को मिल रही है..!!

                     { जय जय श्री राधे }  
              
                   ईस्वर अंस जिव अबिनासी !
                  चेतन अमल सहज सुख रासी !!


परमात्मा के अंस होने के कारण हम भी सुखराशी ( सुख का ढेर ) हैं , पर संसार को अपना मानने के कारण हम भी मुफ्तका  दुःख पा रहे हैं , इतने पर भी हम चेत नही सकते फिर अपने परमपिता को हम याद ही नही करते , भगवान के सिवाय हमारा कौन है जो सदा हमारे साथ रहे ? यमराज के सामने भी कह दो की मैं भगवान का हूँ , तो यमराज भी थार्रायेगा।

अगर हम भगवान के साथ सम्बन्ध स्वीकार कर ले तो हमारे में स्वाभाविक ही शुद्धि पवित्रता आ जायेगी। हम भगवान के है भगवान हमारे है , इतना कहने मात्र से हमारे में स्वतः पवित्रता आती है, हम भले ही कबुत हो पर हैं तो भगवान के ही हमे केवल अपनी कपुतायी मिटानी है।

कपुतायी हमारे में पीछे से आई है जन्म के पहले नही थी और देवी सम्पति पहले से ही थी। आसुरी सम्पति पैदा  होने के बाद आती है जैसे जो सच्च बोलने वाला है वह कितने ही रुपये देने पर भी झूट नही बोल सकता , पर झूट बोलने वाला थोड़े से रुपयों के लोभ से सच बोल देगा
 
सच बोलना हमारे स्वाभाव में सदा से है , पर झूट बोलने की आदत डाल ली इसलिए झूट बोलना सुगम दीखता है ,

पर झूट अपनी चीज नही है जो संसार है , और सच सदा से अपनी चीज है जो भगवान है और एक भगवान ही सदासे हमारे अपने है !!
                      { जय जय श्री राधे } 




    मुखसे लेय नाम हरिका , सो हरी भक्त कहलासी !
    ह्रदय नाम जपे , हरी वाक़े खुद ही भक्त बन जासी !!


विणा बजाते हुए नारदमुनि भगवान श्री राम के द्वार पर पहुचे।
नारायण नारायण !!

नारदजी ने  देखा की द्वार पर हनुमान जी पहरा दे रहे है
हनुमानजी ने पूछा नारद मुनि ! कहा जा रहे हो ?  बोले मैं प्रभु से मिलने आया हूँ नारदजी ने हनुमानजी से पूछा प्रभु इस समय क्या कर रहे है  बोले पता नहीं पर  कुछ बही खाते का काम कर रहे है ,प्रभु रजिस्टर में कुछ लिख रहे है , अच्छा क्या लिखा पढ़ी कर रहे है बोले मुझे पता नही  मुनिवर आप खुद ही देख आना

नारद मुनि गए प्रभु के पास और देखा की प्रभु कुछ लिख रहे है , नारद जी बोले प्रभु आप बही खाते का काम कर रहे है ?  ये काम तो किसी मुनीम को दे दीजिए प्रभु बोले नही नारद मेरा काम मुझे ही करना पड़ता है ये काम मैं किसी और को नही सोप सकता ,
अच्छा प्रभु  ऐसा क्या काम है ऐसा आप इस रजिस्टर में क्या लिख रहे हो ? बोले तुम क्या करोगे देख कर जाने दो , बोले नही प्रभु बताईये ऐसा आप इस रजिस्टर में क्या लिखते है , बोले नारद इस रजिस्टर में उन भक्तो के नाम की लिस्ट है जो मुझे हर पल भजते है में उनकी नित्य हाजरी लगता हूँ


अच्छा प्रभु जरा बताईये तो मेरा नाम कहा पर है ? नारदमुनि ने रजिस्टर खोल कर देखा तो उनका नाम सबसे ऊपर था।  
नारद जी को गर्व हो गया की देखो मुझे मेरे प्रभु सबसे ज्यादा भक्त मानते है पर नारद जी ने देखा की हनुमान जी का नाम उस रजिस्टर में कही नही है , नारद जी सोचने लगे की हनुमान जी तो प्रभु श्रीराम जी के खास भक्त है फिर उनका नाम, इस रजिस्टर में क्यों नही है , क्या प्रभु उनको भूल गए है
नारद मुनि आये हनुमान जी  के पास
बोले हनुमान ! प्रभु के बही खाते  में उन  सब भक्तो के नाम है जो नित्य प्रभु को भजते है पर आप का नाम उस में कही नही है हनुमानजी ने कहा की मुनिवर,! होगा आप ने सायद ठीक से नही देखा होगा नारदजी बोले नही नही मेने ध्यान से देखा पर आप का नाम कही नही था , अच्छा कोई बात नही सायद प्रभु ने मुझे इस लायक नही समझा होगा जो मेरा नाम उस रजिस्टर में लिखा जाये , पर नारद जी प्रभु एक पॉकेट डायरी भी रखते है उस में भी वे नित्य कुछ लिखते है
  "अच्छा ?
 " हाँ !

नारदमुनि फिर गये प्रभु श्री राम के पास और बोले प्रभु ! सुना है की आप अपनी पॉकेट डायरी भी रखते है ! उसमे आप क्या लिखते है ? "बोले हाँ ! पर वो तुम्हारे काम की नही है , नारदजी ''प्रभु ! बताईये ना , मैं देखना चाहता हूँ की आप उसमे क्या लिखते है।
प्रभु मुस्कुराये और बोले मुनिवर मैं इन में उन भक्तो के नाम लिखता हूँ जिन को मैं नित्य भजता हूँ , नारदजी ने डायरी खोल कर देखा तो उसमे सबसे ऊपर हनुमान जी का नाम था , ये देख कर  नारदजी का अभिमान टूट गया
। 
 
कहने का तात्पर्य यह है की जो भगवान को सिर्फ जीवा से भजते है उनको प्रभु अपना भक्त मानते है और जो ह्रदय से भजते है उन भक्तो के भक्त स्वयं भगवान होते है ऐसे भक्तो को प्रभु अपनी पर्शनल पॉकेट यानि अपने ह्रदय रूपी डायरी में रखते है
  जय जय श्री सीताराम ! 


   { जय जय श्री राधे }
   

इस धरती पर जब जब कंस जैसी  सन्तान पैदा होती है तो उनमे कही न कही उन माताओं का भी दोस होता है  ऐसा ही हुआ था जब कंस का अपनी माँ के गर्भ में प्रवेश हुआ था। 

वैसे तो राजा उग्रसेन की पत्नी सती सावत्री पतिव्रता थी पर एक दिन उनसे भी बड़ी भारी भूल हो गयी और कंश जैसी संतान को जन्म दे बैठी
 
एक दिन की बात है जब वे सुन्दर वस्त्र आभूषण पहन , सुन्दर श्रृंगार कर सज - धज कर अपनी सखियों के साथ एक वन में चली गयी , उस वन में एक राक्षस प्रवति का देत्या भी घूम रहा था उसकी द्रष्टि राजा उग्रसेन की पत्नी पर पड़ी , वो उस रानी के सुन्दर हाव भाव से बहुत आक्रसित हो रहा था वो देत्य न चाहते हुए भी उस रानी पर मोहित हो गया और उसके मन में छल कपट प्रवेश कर गया।
 

उस राक्षस ने अपने वेष को छोड़ कर राजाउग्रसेन का वेष धारण कर उस रानी के समीप जाने लगा , रानी के साथ सखियोने सोचा की राजाजी पधारे है हमे रानी और राजाजी को अकेले छोड़ देना चाहिए वे सखिया वहा से चली गयी। 
उस राक्षस ने सोचा की अच्छा मोका है उस कपटी ने राजा उग्रसेन का वैस धारण  किये हुए रानी के कन्दे पर हाथ धर कर धीरे धीरे उस रानी को एकांत में ले गया , कुछ क्षण बीत जाने पर , रानी उस राक्षस के हाव भाव से समज गयी की ये मेरे पति नही हो सकते ये कपटी कोई और ही है
 

रानी आक्रोश से भर कर तिलमिला ती हुई वाणी से बोली "अरे दुष्ट निर-लज कौन है तू जो छल से मेरे पति का वेष धारण कर मेरी पति व्रता का धर्म भ्रष्ट करने आया है ? अरे ओ _ निर-लज तू सीघ्र अपने वेष में आजा अन्यथा में तुझे श्राप देती हूँ , 

राक्षस झट अपने वेष में आ कर बोला की खबरदार जो मुझे श्राप दिया तो , दोस सिर्फ मेरा ही नही तुमारा भी है ऐसा सुन्दर श्रृंगार कर वन में विचरती हो ? क्या तुम नही जानती की राजघरानेकी स्त्रिया इस तरह बहार नही निकला करती ! और सुन ' तुमारे गर्भ में मेरी संतान ने प्रवेश कर लिया है उसके रस्य मैं तुमे बताता हूँ तुम उस गर्भ को नष्ट करने की कोसिस भी मत करना , वो बड़ा ही बलवान होगा पर इस से प्रजा को कष्ट भी बहुत होगा और तुम घबराना मत , हमारे इस पुत्र का वध करने के लिए स्वयं नारायण अवतरित होंगे हमारे इस पुत्र की मुक्ति स्वयं नारायण के हाथो होगी !
रानी ने सुना की इस बालक का वध करने के लिए स्वयं नारायण अवतरित होंगे वे इस बात से प्रसन्न भी हुई पर अपने पति व्रता धर्मो को खंडित होने का दुःख भी सताने लगा वे शर्म के मारे सर निचा किये अपने महल में चली गयी !!,,,,,,,,,,, { जय जय श्री राधे }

 

Monday, 18 November 2013



कुटिल वैश्या की कुटिलाई संत कबीर की कुटिया जलाई !
श्याम पिया के मन न भाई !!
 तूफानी गति देय हवाकी वैश्या के घर आग लगायी !
 श्याम पिया ने प्रीत निभाई !!


एक दिन संत कबीरदासजी की कुटिया के पास में आ कर एक वैश्या ने सुन्दर महल बना कर अपना कोटा जमा दिया !
कबीर जी का काम था सब दिन भगवान का नाम कीर्तन करना
पर वैश्या के यहाँ तो सारा दिन गंदा - गंदा संगीत सुनाई देता , एक दिन कबीरजी उस वैश्या के यहाँ गए और कहा , की देख बहन ! तुमारे यहाँ बहुत खराब लोग आते है यहाँ बहुत गंदे - गंदे शब्द  बोलते है और मेरे भजन में विक्शेप पड़ता है तो आप कही और जा के नही रह सकती है क्या ?

 संत की बात सुनकर वैश्या भड़क गयी और कहा की अरे फ़कीर तू मुझे यहाँ से भगाना चाहता है कही जाना है तो तु जा कर रह, पर मैं यहाँ से कही जाने वाली नही हूँ
कबीरजी ने कहा ठीक है जैसी तेरी मर्जी

कबीरदासजी अपनी कुटिया में  वापिस आ गए और फिर से अपने भजन कीर्तन में लग गये
जब कबीरजी के कानो में उस वैश्या के घुघरू की झंकार और कोठे पर आये लोगो के गंदे - गंदे शब्द सुनाई पड़ते तो कबीरजी अपने भजन कीर्तन की ध्वनी और भी ऊँचे स्वर मे करने लगते ,

 कबीरजी के भजन कीर्तन के मधुर स्वर सुनकर जो वैश्या के कोठे पर आने जाने वाले लोग थे वे सब धीरे धीरे कबीरजी के पास बैठ कर उनके भजन कीर्तन सुनने लग गए ,

 वैश्या ने देखा की ये फ़कीर तो जादूगर है इसने मेरा सारा धंधा चोपट कर दिया , अब तो वे सब लोग उस फ़कीर के साथ ही भजनों की महफ़िल जमाये बैठे है | वैश्या ने क्रोधित हो कर अपने यारो से कहा की तुम इस फ़कीर जादूगर की कुटिया जला दो ताकि ये यहाँ से चला जाये !

वैश्या के आदेश पर उनके यारों ने संत कबीर कि कुटियां में आग लगा दी ,
 कुटिया को जलती देख संत कबीरदास मुस्कुरः कर बोले  
  वहा ! मेरे मालिक अब तो तू भी यही चाहता है कि में ही यहाँ से चला जाऊं , प्रभु ! जब अब आपका आदेश है तो जाना ही पड़ेगा  , संत कबीर जाने ही वाले थे भगवान से नही देखा गया अपने भक्त का अपमान , उसी समय भगवान ने ऐसी तूफानी सी हवा चलायी उस कबीर जी कि कुटिया कि आग तो बुझ गयी और उस आग ने वैश्या के कोटे को पकड़ली वैश्या के देखते ही देखते उनका कोठा जलने लगा
 
वैश्या का कोठा धु धु कर जलने लगा वो चीखती चिल्लाती हुए कबीर जी के पास आ कर कहने लगी अरे कबीर जादूगर देख देख मेरा सुन्दर कोठा जल रहा है मेरे सुनदर पर्दे जल रहे है वे लहराते हुए झूमर टूट रहे है अरे जादूगर  तू कुछ करता क्यों नही !!  
कबीर जी को जब अपने झोपडी कि फिकर नही थी तो किसी के कोठे से उनको क्या लेना देना !
 

कबीर जी खड़े खड़े हंस ने लगे.  कबीर कि हंसी देख वैश्या क्रोधित हो कर बोली अरे देखो देखो यारों इस जादूगर ने मेरे कोठे में आग लगा दी अरे देख कबीर जिसमे तूने आग लगायी वो कोठा  मेने अपना तन , मन , और अपनी  इज्ज्त बेच कर बनाया और तूने मेरे जीवन भरकी कमाई पूंजी को नष्ट कर दिया !!
कबीरजी मुस्कुरा कर बोले कि देख बहन ! तू फिर से गलती कर रही है
ये आग न तूने लगायी न मेने लगायी !
ये तो अपने यारों ने अपनी यारी निभायी !!

तेरे यारो ने तेरी यारी निभायी तो मेरा भी तो यार बैठा है ! मेरा भी तो चाहने वाला है ! जब तेरे यार तेरी वफ़ा दारी कर सकते है तो क्या मेरा यार तेरे यारों से कमजोर है क्या ?

वैश्या समझ गयी कि 

मेरे यार खाख बराबर
कबीर के यार सिर ताज बराबर
उस वैश्या को बड़ी ग्लानि हुई कि मैं मंद बुद्धि  एक हरी भक्त का अपमान कर बैठी भगवान मुझे शमा करे !!

कबीरदासजी और वैश्या के तर्क से हमे यही समझने को मिलता है कि भगवान के भक्त कभी भगवान से शिकायत नही करते कैसी भी विपति आ जाये उसको भगवान का आदेस समझ कर स्वीकार करते है , और भगवान अपने भक्त का मान कभी घटने नही देते !
इसलिए भगवान कहते है कि
भक्त हमारे पग धरे तहा धरूँ मैं हाथ !
सदा संग फिरू डोलू कभी ना छोडू साथ !!

{ ज़ै श्री राधे }    


भगवान के वाहन गरुड़ जी को एक दिन अपने वेग का घमंड हो रहा था की मुझ जैसा वेग से चलने वाला और प्रभु की आज्ञा का पालन करने वाला कोई नही भगवान अंतर्यामी है गरुड़ जी के भाव जान गए , और कहा की गरुड़ ! हनुमानजी मलयाचल पर है उन्हें कहिये की द्वारिकाधीश ने स्मरण किया है , अब गरुड़ जी को क्या पता की ये लीलाधर क्या करना चाहते है।

गरुड़ जी अपने वेग के साथ आये और हनुमानजी को भगवान का सन्देश सुनाया और कहा की आप को भगवान ने द्वारिका में बुलाया है !
गरुड़ जी ने कहा आप मेरी पीठ पर बैठ जाईये तो झटपट पहुंचा दूँ। भगवान ने आप को शीघ्र बुलाया है !

 हनुमानजी ने पूछा कौन भगवान ? गरुड़ जी " वही नवजलधर सुन्दर ! गरुड़ जी जानते थे की हनुमानजी के आराध्य कौन है , और गरुड़ जी ने हनुमानजी से कहा भगवान भी कहीं दो - चार होते है ?

हनुमाजी समझ गए और उन्होंने सहज भाव से कहा 'आप चलिए मैं आ रहा हूँ।
हनुमानजी भगवान के दास है भगवान नारायण के वाहन की पीठपर बैठ ने की बात वे कैसे सोच सकते थे !

  गरुड़ जी ने हठ करते हुए कहा "आप को बहुत देर लगेगी मैं शीघ्र पहुँचा दूँगा
हनुमानजी ने हंस कर कहा मैं आप से पहले पहुच रहा हूँ  आप चलिए , गरुड़ जी झुझलाये और अपने आप से बाते करने लगे की यह कपी मुझसे पहले पहुचने की बात करता है।

 वे फिरसे बोले " हनुमानजी ! आप समझते तो है नही प्रभु ने बुलाया है मैं आगे जाकर उन्हें क्या उत्तर दूंगा ? और मेरे वेगको आप पहुँच सकते नही इसलिए चलिए मैं ले चलता हूँ  गरुड़ जी को अपनी शक्ति का भी गर्व कम नही था उन्होंने अमृत - हरण के समय समस्त देवताओं के छक्के छुड़ा दिए थे , इद्र के वज्र से भी उनका कुछ बिगड़ा नही था , पर यह वानर उनकी बात ही नही सुनता अब गरुड़ जी ने सोचा की इस वानर को बलपुर्वक उठा ले जाना चाहिए।

हनुमानजी ने मन में कहा , मेरे प्रभु भी बड़े विनोदी है उन महाराजा  द्वारिकाधीश ने कैसा धृष्ट पक्षी पाल लिया है बलपूर्वक मुझे उठाने आये ,
राम भक्त ने बहुत देरतक गरुड़ जी की बाते सुनी फिर उन्हें पकड़कर फैक दिया वे द्वारका के समीप समुन्द्र के पास जा गिरे।

भगवान के चक्र को भी गर्व था की उसकी शक्ति का अन्त नहीं है , हनुमानजी द्वारिकाधीश के पास जाने लगे , वह द्वारा रोध करके खड़ा हो गया
कौन भीतर जा रहा है ?
हनुमानजी ने कहा मैं हनुमान ! प्रभु ने बुलाया है मुझे।
चक्र "आज्ञा नही है _ भीतर जानेकी।
हनुमान जी फिरसे नम्र भावसे बोले आप पूछ लीजिये प्रभूसे मुझे प्रभु ने ही बुलाया है।
चक्र "मैं द्वार छोड़ कर नहीं जाऊँगा ,कोई आयेगा तो उसे पूछने को कह दूंगा   तुम यही रुके रहो।  हनुमानजी ने सोचा पता नही कोई कब आएगा और चक्र भीतर जाने दे नही रहा था उसे उठाकर हनुमानजी ने अपने मुह में रख लिया
और भीतर पहुच गए 

 भगवान लीलाधर ने धनुर्धर का वेशधार कर सिंघाशन पर विराजित थे श्रीमारुति नन्दन ने प्रभु के चरणों में मस्तक रखा तो भगवान अत्यंत स्नेह से उनके सिरपर कमल - कर फेरते वे लीलामय हंस कर पूछने लगे _ "तुम्हे  द्वार पर किसी ने बाधा तो नही दी ?
मारुती नंदन मुख में से चक्र को निकाल कर सम्मुख करते हुए कहा की यह रोक रहा था मुझे सो मेने सोचा की इसे प्रभु के पास ही ले चलता हूँ


इतने में समुन्द्र - जल से सर्वथा भीगे हांफते गुरुड़ जी पहुंचे।  अपने आराध्य के चरणों में हनुमानजी को बैठे देखा , उन्होंने तो मस्तक झुका लिया।
भगवान ने पूछा गरुड़ ! तुम्हारी यह दशा ... ?  क्या तुम समुद्र स्नान करने लगे थे ? हनुमानजी ने कहा प्रभु आप ने यह पक्षी पाल तो लिया है , किन्तु यह बहुत धृष्ट है।  साथ ही बहुत मन्दगति है यह तो पता नही कितनी देर में आ पता , मैंने इसे पकड़कर द्वार्का की और फैक दिया था !

फिर गरुड़ जी तनिक रुक कर हाथ जोड़कर मस्तक झुकाए , बोले प्रभु क्या कहना है ? लीलाधर पुर्षोतम मुस्कुराये मानो इशारो ही इशारो में गरुड़ जी को यह अहसास दिला दिया की भेरे भक्त का भक्ति का अभिमान रह सकता है जिन्हें अपने बल का गर्व है वे मुझे नही सुहाते
    { जय श्री राम जय जय श्री सीताराम } ,,,,,,,,,,
{ जय जय श्री राधे }
        
        

जपे सब नाम गिरधर का चलन ऐसी चला दो तुम !
काम मद लोभ को त्यागो जीवन सत्संग बना दो तुम !!


अगर हम सभी भाई बहन दृढ़ता के साथ भगवान को अपना स्वीकार कर ले तो इसका महान फल होगा , हमारा जीवन सफल हो जायेगा , इससे हमे बहुत प्रसन्नता होगी , बहुत आनंद मिलेगा इस बात को स्वीकार करने में लाभ ही लाभ है नुकसान कुछ है ही नही !
 

यह कोई मामूली बात नही है , यह वेदोंका , गीताका ,रामायणका भी सार है !
 हो सकता है कि आप मेसे कुछ भाई बहन नही मानें तो भी सच्ची बात सच्ची ही रहेगी , कभी झूठी नही हो सकती ,
 

अगर आप अपनी तरफ से मान लो , फिर आप के मानने में कोई कमी रहेगी तो उसे भगवान पूरी करेंगे , पर एक बार स्वीकार करके फिर आप इसे छोड़ना मत !

 हम भगवान के है यह मानते रहो तो हम अपने आप सुद्ध , निर्मल हो जायेंगे , जो लोहेको सोना बना दे , उस पारस से भी भगवान कमजोर है क्या ? भगवान के सम्बन्ध से जैसी शुद्धि होती है वैसी अपने उद्योग से नही होती , वर्षो तक सतसंग करने से जो लाभ नही होता , वह भगवान को अपना मान लेनेसे एक दिन में हो जाता है,,,,,,,,!!
                     { जय जय श्री राधे }  


सत्संग सच्चा साथी सबका कुसंग कुछ दिन रहसी
मत भटको कुसंग में सज्जनों सत्संग ही पार लगासी 


भगवान को अपना मानना , भगवान को याद रखना ही सत्संग है
भगवान के सिवाय किसी को अपना मानना , भगवान के सिवाय कुछ याद रखना ही कुसंग है।
भगवान का संग सत्संग है संसार का संग ही कुसंग है इसलिए
मन में ऐसा भाव बना लो की हम भगवानके है और एक भगवान ही हमारे अपने
 है सबकी सेवा बड़े प्रेम से करो मगर प्रेम सिर्फ भगवान से हो , इससे बड़ा और कोई सत्संग नही है !!
    { जय जय श्री राधे }