मानव शक्ति अपार है
ईश्वर ने हम सभी को सबसे कीमती ये मानव जन्म और मनुष्य का शरीर दिया है
फिरभी हमारी आँखों के आगे अज्ञान का जो पर्दा है उस कारण हम असली धन को देख
नही पाते
एक नोजवान अपनी गरीबी से तंग आकर अपने भाग्य को कोसने लगा
गरीबी दूर हो इस उपाय की खोज में वो एक संत से मिला महात्मा ने उसकी पूरी
बात सुनी ,
और बोले बेटे में एक व्यपारी को पहचानता हु , वो मनुष्य के अंग खरीद कर
अच्छे पैसे देता है , तुम अपनी दोनों आखे बेच दो वो पच्चास हजार रुपये देगा
युवक बोल आप कैसी बात करते है महाराज पच्चास हजार ले कर मैं क्या करूँगा बिना आँखों अँधा ना हो जाऊंगा
तब संत ने कहा तो ठीक है दोनों हाथ बेच दो तीस हजार रूपये मिल जायेंगे ,
युवक बोला अरे दो हाँथ बेच कर तीस हजार मिल भी गए तो किस काम आयेंगे मुझे
आपयिज नही बनना ,
संत बोले तो ऐसा करो अपनी दोनों टांगे उसे बेच
दो बीस हजार रुपये मिल जायेंगे , अच्छा दोनों ना सही ऐसा करो , एक ही बेच
दो दस् हजार क्या बुरे है ?
नोजवान बोला वाह महाराज वाह क्या रास्ता बताया है धन कमाने का मैं लंगड़ा नही हो जायूँगा
संत बोले फिर ठीक है पूरा सरीर एक लाख में बेच दो ,
नोजवान बोला एक लाख तो क्या अगर कोई एक करोड़ भी देगा तो भी में अपना शारीर नही बेचूंगा
संत बोले बेटे में यही समजाना चाहता हु तुम्हे भगवान ने जब करोडो नही
अरबो खरबों की कीमत का ये शरीर दिया तो भला तुम गरीब क्यों मानते हो अपने
आप को
नो जवान संत के चरणों में गिर कर बोला महात्मः आप ने मेरी आखे खोल दी आज्ञा दीजिये मुझे क्या करना चाहिए ?
संत बोले वत्स मानव शारीर एक अपार खजाना है , नर चाहे तो नारायण बन सकता है
अपने हर अंग से काम लो इस सरीर के रोम रोम शक्ति रूपी परमात्मा को अपने मन
मंदिर में बसा कर शत कर्म करो , जिस तरह किसी के वहा काम करने पर कोई
मजदूरी नही रखता ठीक उसी तरह इस मानव शरीर से किया हुआ कर्म के अनुसार
ईश्वर मजदूरी अवस्य देता है,व् मनुष्य की इच्छा पूर्ति जरुर होती है
सोने चान्दि हीरे जवारत तो क्या ईश्वर को साक्षी मान कर किये हुए शत कर्मो
से इस लोक का खजाना तो भरता ही है व , परलोक भी सुखमय हो जाता है......
{ जय जय श्री राधे }
Thursday, 28 February 2013
Friday, 15 February 2013
प्रत्येक आत्मा का पति एक परमात्मा ही है....
साधू संतो ने कई बार कहा है की पुरे विश्व का दूल्हा एक श्री हरी ही है और ये बात मेने भी अनेको बार महसुस की है । जब किसी गोपियाँ या मीरा के भाव लिखती हु तो मेरी आत्मा उनके दर्शन करने लगती उनमे खो जाती है धीरे धीरे वो तड़प पैदा हो जाती है , जैसे कोई आत्मा सरिरको छोड़ उनके चरणों से लिपटना चा रही हो , पर वो क्या है ?शब्द नही बनते मोन सी हो जाती हु ,मेरे भीतर एक गंभीरता छा जाती है जैसे आत्मा शर्मा रही हो अपनेमें सिमट कर लाज का घुंघट कर देती है , जैसे कोई दुलन सेज पर बेठी सिर निचे किये हुए नजरे धीरे से पलकों का घुंघट हटा रही हो । आवाज में वो खनक नही रहती , ऐसा लगता है अब कुछ भी पाना बाकी नही रहा । कृष्ण गोपी के विरह की बात लिखती हु तो चित वहि ठहर जाता है..........।
आखों के आगे वृंदावन छा जाता है| जैसे कृष्ण गोपियां को सुख देने के लिए उनके पीछे - पीछे भाग रहे हो , इतना सब कुछ समझने के बाद भी में असमझ सी हु की मेरा अश्तीत्व क्या है ?
साधू संतो ने कई बार कहा है की पुरे विश्व का दूल्हा एक श्री हरी ही है और ये बात मेने भी अनेको बार महसुस की है । जब किसी गोपियाँ या मीरा के भाव लिखती हु तो मेरी आत्मा उनके दर्शन करने लगती उनमे खो जाती है धीरे धीरे वो तड़प पैदा हो जाती है , जैसे कोई आत्मा सरिरको छोड़ उनके चरणों से लिपटना चा रही हो , पर वो क्या है ?शब्द नही बनते मोन सी हो जाती हु ,मेरे भीतर एक गंभीरता छा जाती है जैसे आत्मा शर्मा रही हो अपनेमें सिमट कर लाज का घुंघट कर देती है , जैसे कोई दुलन सेज पर बेठी सिर निचे किये हुए नजरे धीरे से पलकों का घुंघट हटा रही हो । आवाज में वो खनक नही रहती , ऐसा लगता है अब कुछ भी पाना बाकी नही रहा । कृष्ण गोपी के विरह की बात लिखती हु तो चित वहि ठहर जाता है..........।
आखों के आगे वृंदावन छा जाता है| जैसे कृष्ण गोपियां को सुख देने के लिए उनके पीछे - पीछे भाग रहे हो , इतना सब कुछ समझने के बाद भी में असमझ सी हु की मेरा अश्तीत्व क्या है ?
Monday, 11 February 2013
बालाजी कैसे प्रसन्न होते है......
एक बार किसी भक्त ने बालाजी से पूछा की , हे बालाजी आप कैसे प्रसन्न होते है ? सवामणी, नारियल छत्र या मुकुट से , बालाजी ने कहां तुम बताओ मेरा दिन रात क्या काम है ? उस भक्त ने कहा की आप तो सब दिन श्रीराम को ही भजते है ,
"बालाजी बोले फिर तुम खुद ही समझ जाओ में कैसे प्रसन्न होता हु , ना सवामणी से ,ना नारियल से , ना छत्र से , ना मुकुट से , इन सबकी मुझे कोई आवश्यकता नही , इन सबकी जगह कोई मेरे पास बेठ कर मुझे एक घंटे राम नाम का कीर्तन सुनाये तो मैं उसी श्रण उस भक्त पर प्रसन्न हो जाता हु , अन्यथा मैं किसी वष्तु से प्रसन्न होनेवाला नही ||
विरोद किसी सवामणि या चढ़ावे का नही है , कहने का तात्प्रिय है की, किस देव को क्या प्रिय है |
हा इन सब से भगवान श्री रामजी जरुर राजी होते है की मेरे भक्त के लाड कोड कर रहे है ।
बालाजी को जल्दी प्रसन्न करना हो , कोई मनोती मांगनी हो , मनोकामनाए पूर्ण करवानी हो तो भगवान श्री राम नाम के कीर्तन का चढ़ावा बोल दीजिये..... बालाजी तो संत है संतो को न तो स्वादिस्ट भोजन प्रिय है और ना ही श्रृंगार , सिर्फ एक लाल लंगोटी ही चाहिए ,और कुछ भी नही |
|| जय श्रीराम ,जय श्रीराम ,जय श्रीराम,जय श्रीराम,||
|| जय श्रीराम,जय श्रीराम,जय श्रीराम,जय श्रीराम,||
|| जय जय श्रीसीताराम ||
एक बार किसी भक्त ने बालाजी से पूछा की , हे बालाजी आप कैसे प्रसन्न होते है ? सवामणी, नारियल छत्र या मुकुट से , बालाजी ने कहां तुम बताओ मेरा दिन रात क्या काम है ? उस भक्त ने कहा की आप तो सब दिन श्रीराम को ही भजते है ,
"बालाजी बोले फिर तुम खुद ही समझ जाओ में कैसे प्रसन्न होता हु , ना सवामणी से ,ना नारियल से , ना छत्र से , ना मुकुट से , इन सबकी मुझे कोई आवश्यकता नही , इन सबकी जगह कोई मेरे पास बेठ कर मुझे एक घंटे राम नाम का कीर्तन सुनाये तो मैं उसी श्रण उस भक्त पर प्रसन्न हो जाता हु , अन्यथा मैं किसी वष्तु से प्रसन्न होनेवाला नही ||
विरोद किसी सवामणि या चढ़ावे का नही है , कहने का तात्प्रिय है की, किस देव को क्या प्रिय है |
हा इन सब से भगवान श्री रामजी जरुर राजी होते है की मेरे भक्त के लाड कोड कर रहे है ।
बालाजी को जल्दी प्रसन्न करना हो , कोई मनोती मांगनी हो , मनोकामनाए पूर्ण करवानी हो तो भगवान श्री राम नाम के कीर्तन का चढ़ावा बोल दीजिये..... बालाजी तो संत है संतो को न तो स्वादिस्ट भोजन प्रिय है और ना ही श्रृंगार , सिर्फ एक लाल लंगोटी ही चाहिए ,और कुछ भी नही |
|| जय श्रीराम ,जय श्रीराम ,जय श्रीराम,जय श्रीराम,||
|| जय श्रीराम,जय श्रीराम,जय श्रीराम,जय श्रीराम,||
|| जय जय श्रीसीताराम ||
6 /फरवरी की रात जब में व्रन्दावन वासी व् कृष्ण विरह का लेख लिख रही थी तो रात की एक बज ने को आई ।साब ने कहा मैम रात काफी हो गयी है सोना नही क्या ? साब ? साब यानि मेरे पति , मेने ध्यान नही दिया जैसे मुझे कुछ सुनाइ नही दिया हो । फिरसे कहा अरी मैम अब सो भी जाओ रात काफी हो गयी एक बजने को आई है......... 4 , 5 बार कहने पर मेरी तरफ से कोई जवाब नही मिला तो मेरे पास आकर बोले इतना कहा खो गयी ? तुम कहो तो इस ठाकुर से ही तुमारा विवाह करवादे , ये बात सुन कर मेरे भीतर गंभीरता छा गयी , मेरे मुख से निकला वोतो कबका हो चूका है | उन्होंने बात तो मजाक में कही पर मेरे भीतर गभीरता छा गयी वो सब्द मेरे कानो में अभी तक गूंज रहा है , क्या सच में किसी आत्मा का विवाह परमात्मा से होता है ? में भी असमज में हु पता नही अपर आत्मा उनके चरणों से लिपटने को बहुत आतुर हो रही थी जैसे मेरे सरीर से निकल कर भाग जाएगी । एक बार मेरे छोटे बेटे मनीष ने कहा मम्मी आप को देख ऐसा लकता है की भगवान कृष्ण की एक और पत्नी बढ़ गयी , भगवान कृष्ण की शोलह हजार एक सो आठ थी पर अब उनकी संख्या बढ़ गयी पता नही उसने ऐसा क्यों कहा , मेरे आस पास रहने वाले सब यही महसूस कर रहे है की मेने श्री कृष्ण को अपनी आत्मा का पति मान लिया,पर पता नही में उनके योग्य हु भी या नही जबतक उनसे मेरा रूबरू नही हो जाता में कैसे कहु
ये लेख तो मेने 7 फरवरी की सुबह को ही लिख दिया था पर पोस्ट आज कर रही हु ....
ये लेख तो मेने 7 फरवरी की सुबह को ही लिख दिया था पर पोस्ट आज कर रही हु ....
Friday, 8 February 2013
व्रजवासियो को श्याम विरह का विलाप.
ठाकुर जी वृन्दावन से मथुरा जाने लगे तो , व्रजवासियो के ह्रदय पर मानो ब्रजघात हो गया हो । विरह की मारी बासुरी रो रही है "हे गोविन्द अब मुझे कौन अधरों से लगाएगा , वो गईया रो रही है , हे गोविन्द विधाता ने हमे पसु क्यों बनाया ? आज हमारा स्वामी जा रहा है पर हम रोक नही पा रही है । जुबा होती तो तुम से विनती कर रोक देती...."
पसु ,पक्षी गोपी ग्वाला सबके के मुख से एक ही शब्द निकलता है -
"प्रीत निभाना ओ सावरिया ।
दरस दिखाना ओ सावरिया ।
ओ पांडू रंगा भूल बिछड़ मत जनारे ।
ओ प्रियतम प्रितकि रित निभाना रे ।
ओ कन्हेइया हम को तू ना भूलना रे ।
हे कन्हेया कही तू हम व्रजवासियो को भूल तो नही जायेगा न ?तुजे हमारी याद तो आयेगि न..........?
मैया बे सुध सी पड़ी है...."
अगर व्रजवासी कृष्ण के विरह में इतने दुखी है तो ऐसी बात नही है की कृष्ण के ह्रदयमे बिछड़ने की पीड़ा नहीं है ,
ठाकुर जी भी बहुत दुखी है , मन तो ठाकुर जी का भी बहुत करता है की इन के साथ में मैं भी रो लू पर सोचा की मैं भी इन सबके सामने रोने लग जाऊंगा तो इनको लगेगा की हमारा कन्हेया बहुत दुखी हो कर गया , इसलिए ठाकुर जी अपने को संभालते हुए नजरे फेर लेते है मानो सबको ये दिखा रहे हो की हमारा कृष्ण राजी मन से जा रहा हो ।
श्री कृष्ण रथ में बेठे ,रथ कुछ दूर गया, ठाकुर जी दाऊ दादा के कंदे पर सीर रख कर फुट - फुट कर रोने लगे - "हे दाऊ दादा ये मैंने क्या कर दिया ? जिस मैया ने मेरे सीर के बाल टूटने जितनी भी तकलीफ नही होने दी, आज मैं उस मैया का दिल तोड़ कर आ गया । हे दाऊ दादा अब मुझे कनुवा कनुवा कह कर कौन बुलायेगा " ।
दाऊ दादा कृष्ण को समझाते है की " हे कृष्ण ! तू ऐसे करेगा तो फिर इस व्रज का क्या होगा ? बाकि लीलाओं का क्या होगा ? अभी तो तुझे बहुत बड़े बड़े काम करने है ।"
ठाकुर जी रोते हुए कहते है की " हे दाऊ दादा ! अब तो ऐसा लगता है की इस भूमि पर जैसे मेरा कोई काम ही नही है । अब ये कंस को , जरासन को, मारना कोई लीला नही । अगर लीला का सुख था तो मेरी मैया के साथ, मेरी गोपियाँ के साथ, मेरी बांसुरी के साथ, उन ग्वाल बालों के साथ था । अब ये अब छुट गए । मेरी मैया छुट गयी, मेरी गईया छुट गई, मेरे सखा छूट गए , मेरी श्यामिनी राधा छूट गयी, मेरी बांसुरी छुट गयी, मेरी गोपियाँ छुट गयी।"
समझे तो कृष्ण के ह्रदय में भी बहुत प्रेम है।
जरा कल्पना कीजिये जिनका जीवन ही श्रीकृष्ण था, हरपल उनके दर्शनों के लिए आतुर रहते थे, उनसे बिछड़ने की दर्द पीड़ा केसे सही होगी ? जिस के बालपन के सब खेल छूट गए हो, सब सखा छूट गये हो, उन श्रीकृष्ण के ह्रदय में कितनी पीड़ा रही होगी ?
आप कहेंगे की वे तों भगवान है, भगवान को कैसा दुःख ?
पर भगवान ने अपने भीतर भी तो दिल रचा है। जहाँ दिल हो वहां दुःख कैसे न हो। हम सबको वे दिल से ही तो अपनाते है। दिमाग से तो हम जैसे अभागे मानते है, जरा दिमाग को परे रख कर भगवान में दिल लगा कर देखिये....।
।। हरे श्री कृष्ण ,हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।।
ठाकुर जी वृन्दावन से मथुरा जाने लगे तो , व्रजवासियो के ह्रदय पर मानो ब्रजघात हो गया हो । विरह की मारी बासुरी रो रही है "हे गोविन्द अब मुझे कौन अधरों से लगाएगा , वो गईया रो रही है , हे गोविन्द विधाता ने हमे पसु क्यों बनाया ? आज हमारा स्वामी जा रहा है पर हम रोक नही पा रही है । जुबा होती तो तुम से विनती कर रोक देती...."
पसु ,पक्षी गोपी ग्वाला सबके के मुख से एक ही शब्द निकलता है -
"प्रीत निभाना ओ सावरिया ।
दरस दिखाना ओ सावरिया ।
ओ पांडू रंगा भूल बिछड़ मत जनारे ।
ओ प्रियतम प्रितकि रित निभाना रे ।
ओ कन्हेइया हम को तू ना भूलना रे ।
हे कन्हेया कही तू हम व्रजवासियो को भूल तो नही जायेगा न ?तुजे हमारी याद तो आयेगि न..........?
मैया बे सुध सी पड़ी है...."
अगर व्रजवासी कृष्ण के विरह में इतने दुखी है तो ऐसी बात नही है की कृष्ण के ह्रदयमे बिछड़ने की पीड़ा नहीं है ,
ठाकुर जी भी बहुत दुखी है , मन तो ठाकुर जी का भी बहुत करता है की इन के साथ में मैं भी रो लू पर सोचा की मैं भी इन सबके सामने रोने लग जाऊंगा तो इनको लगेगा की हमारा कन्हेया बहुत दुखी हो कर गया , इसलिए ठाकुर जी अपने को संभालते हुए नजरे फेर लेते है मानो सबको ये दिखा रहे हो की हमारा कृष्ण राजी मन से जा रहा हो ।
श्री कृष्ण रथ में बेठे ,रथ कुछ दूर गया, ठाकुर जी दाऊ दादा के कंदे पर सीर रख कर फुट - फुट कर रोने लगे - "हे दाऊ दादा ये मैंने क्या कर दिया ? जिस मैया ने मेरे सीर के बाल टूटने जितनी भी तकलीफ नही होने दी, आज मैं उस मैया का दिल तोड़ कर आ गया । हे दाऊ दादा अब मुझे कनुवा कनुवा कह कर कौन बुलायेगा " ।
दाऊ दादा कृष्ण को समझाते है की " हे कृष्ण ! तू ऐसे करेगा तो फिर इस व्रज का क्या होगा ? बाकि लीलाओं का क्या होगा ? अभी तो तुझे बहुत बड़े बड़े काम करने है ।"
ठाकुर जी रोते हुए कहते है की " हे दाऊ दादा ! अब तो ऐसा लगता है की इस भूमि पर जैसे मेरा कोई काम ही नही है । अब ये कंस को , जरासन को, मारना कोई लीला नही । अगर लीला का सुख था तो मेरी मैया के साथ, मेरी गोपियाँ के साथ, मेरी बांसुरी के साथ, उन ग्वाल बालों के साथ था । अब ये अब छुट गए । मेरी मैया छुट गयी, मेरी गईया छुट गई, मेरे सखा छूट गए , मेरी श्यामिनी राधा छूट गयी, मेरी बांसुरी छुट गयी, मेरी गोपियाँ छुट गयी।"
समझे तो कृष्ण के ह्रदय में भी बहुत प्रेम है।
जरा कल्पना कीजिये जिनका जीवन ही श्रीकृष्ण था, हरपल उनके दर्शनों के लिए आतुर रहते थे, उनसे बिछड़ने की दर्द पीड़ा केसे सही होगी ? जिस के बालपन के सब खेल छूट गए हो, सब सखा छूट गये हो, उन श्रीकृष्ण के ह्रदय में कितनी पीड़ा रही होगी ?
आप कहेंगे की वे तों भगवान है, भगवान को कैसा दुःख ?
पर भगवान ने अपने भीतर भी तो दिल रचा है। जहाँ दिल हो वहां दुःख कैसे न हो। हम सबको वे दिल से ही तो अपनाते है। दिमाग से तो हम जैसे अभागे मानते है, जरा दिमाग को परे रख कर भगवान में दिल लगा कर देखिये....।
।। हरे श्री कृष्ण ,हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।।
Wednesday, 6 February 2013
मुदभ्रुक्सुन लीला ,अर्थार्त ठाकुर जी माटी खाते है......
बाल कृष्ण लाल थोड़े बड़े हुए माँ यशोदा के आगे जीद करने लगे की माँ अब मोये आज्ञा दे अब में खेलवे को जाऊ ? मैया बोली लाला कहा खेलवे को जायेगो ?
ना मैया अब में खेलवेको जाऊगो, मोये खेलवे को जाना है ।
मैया ने सोचा इस को अकेला कैसे खेलवे को भेजू ?
मैया ने मनसुख राम जी को बुलाया और मनसुख राम जी के साथ
बाल कृष्ण लाल को खेलने को भेज ,वहा पर बाल कृष्ण लाल खेलते - खेलते मुदभ्रुक्सुना लीला करते है अर्थार्त ठाकुर जी माटी खाते ।
मनसुखरामजी मईया से सिकायत करते है की
"मैया तेरा लाला माटी खाता है
मईया कहती में मेरे लाला को कभी माखन मिश्री की मानायी नही करू फिर ये माटी क्यों खावे ?
मनसुखराम जी बोले नही मैया मेने अपनी आँखों से देखा, तेरा लाला माटी खाता है ।
मैयाने मुखमे अंगुली डाली माटी के डले निकले बाद में मैया ने पकड़ा बाल कृष्ण लाल का कान ।
रे छोरे माटी खावे ? आ आ .... कर। क्या - क्या है तेरे मुख में?
ठाकुर जी बोले माँ तू देख नही सकेगी ।
मैया बोली , आ आ .... कर क्या नही देख सकेगी ? आआ..... कर।
जैसे ही ठाकुर जी ने मुख खोला तो पूरा भ्रम्ह्मांड ठाकूर के मुख में नजर आने लगा सभी तीर्थ इत्यादि , मैया ने लाला के मुख में देखा
मैया देखती ही रह गयी ,मैया ने सोचा की इसका मतलब मेरा बालक कोई सामान्य बालक नही है , ये कोई ब्रह्म् का ही अवतार है ,
ठाकुर जी ने सोचा गड़ बड़ हो गयी अब मेरे माँ मुझे भगवान मानेगी अब ना तों मुझे गोदी में बिठायेगी और ना ही मुझे माखन मिश्री खीलाएगी एक सिंगासन पर बिठा देगी रसोई तैयार कर भोग आगे रख कर पर्दा करके बोलेगी हे भगवान भोग लगे और ले जायेगी , माँ की भक्ति तो मिलेगी पर माँ का स्नेह नही मिलेगा ,
ठाकुर जी ने ऐसी योग माया फेलाई ,मैया ने ठाकुर जी के मुख में क्या देखा वो सब भूल गयी इतना याद रहा की लाला के मुख में माटी देखि
मैया पिटाई करने लगी ऐ छोरा उदमी तेरे जैसे दो चार हो जाते तो मेरा क्या हाल होता एक है फिरभी तूने परिशाना कर रखा है ,गोपीया सुनेगी तो क्या कहेगी यशोदा अपने लाला को खाने को कुछ देती नही इसलिए छोरा माटी खाता है ,मैया ने ठाकुर जी को उखल से बान्द दिया
ठाकुरजी उखल से बन्दे - बन्दे लीला करते है जो नन्द भवन में यमुला अर्जुनदो वृक्ष थे जिनको नारद जी ने श्राप दिया था ठाकुर जी ने उनको धरासायी करके उनको अपने धाम भेजा
वृक्ष निचे पड़े तो धड़ामसी आवाज आई ,
नन्द बाबा आये कहा मेरे लाला को किसने बांदा ? क्यों बांदा ? गोपियाँ ने कहा बाबा हमारे ऊपर गुस्सा मत करो इसकी माँ ने ही बांदा इसकी माँ से ही पूछो ,
बाबा बोले क्योरी यशोदा तेने लाला को बांदा ? हाँ क्या करू बहुत उदमी हो गया तंग आ गयी में इस छोरे से, आप अपने साथ ले जाओ तो खबर पड़े ,
नन्द बाबा ने गोदी में लिया बोले देख बेठा ये तेरी माँ तुजे दाटी लगाती है , पिटाई करती है कभी बान्दति है माँ के पास रहना नही ,आ चल अपन तो हथाई पे चलते है , बैठक में चलते है
ठाकुर जी ने सोचा बाबा के साथ जाऊँगा तो वहा मिलेगा क्या सिवाय गपोके बातो के ?, माँ के पास रहुगा तो माँ कभी माखन किलाएगी , कभी मिश्री खिलाएगी , मिठाई खिलाएगी ,
ठाकुर जी तो उतरे बाबा की गोदी से , और मैया की गोदी में जा कर चिपक गए मैया बोली ये चटोरा कही जानेवाला नही.....
आ हा हा ठाकुर ने माँ के मुख से नाम सुना चटोरा ,इतने प्रसन्न हुवे की चलो एक नया नाम तो मिला , वैकुंठ नाथ ब्रह्मा नाथ सच्चिदा नन्द ये सब नाम सुन-सुन कर मेरे तो कान थक गए ,ठाकुरजी किसी वास्तु के चटोरे नही ,ये प्रेम के चटोरे है ये भाव के चटोरे है प्रेम खाते है
|| जय जय श्री राधे ||
बाल कृष्ण लाल थोड़े बड़े हुए माँ यशोदा के आगे जीद करने लगे की माँ अब मोये आज्ञा दे अब में खेलवे को जाऊ ? मैया बोली लाला कहा खेलवे को जायेगो ?
ना मैया अब में खेलवेको जाऊगो, मोये खेलवे को जाना है ।
मैया ने सोचा इस को अकेला कैसे खेलवे को भेजू ?
मैया ने मनसुख राम जी को बुलाया और मनसुख राम जी के साथ
बाल कृष्ण लाल को खेलने को भेज ,वहा पर बाल कृष्ण लाल खेलते - खेलते मुदभ्रुक्सुना लीला करते है अर्थार्त ठाकुर जी माटी खाते ।
मनसुखरामजी मईया से सिकायत करते है की
"मैया तेरा लाला माटी खाता है
मईया कहती में मेरे लाला को कभी माखन मिश्री की मानायी नही करू फिर ये माटी क्यों खावे ?
मनसुखराम जी बोले नही मैया मेने अपनी आँखों से देखा, तेरा लाला माटी खाता है ।
मैयाने मुखमे अंगुली डाली माटी के डले निकले बाद में मैया ने पकड़ा बाल कृष्ण लाल का कान ।
रे छोरे माटी खावे ? आ आ .... कर। क्या - क्या है तेरे मुख में?
ठाकुर जी बोले माँ तू देख नही सकेगी ।
मैया बोली , आ आ .... कर क्या नही देख सकेगी ? आआ..... कर।
जैसे ही ठाकुर जी ने मुख खोला तो पूरा भ्रम्ह्मांड ठाकूर के मुख में नजर आने लगा सभी तीर्थ इत्यादि , मैया ने लाला के मुख में देखा
मैया देखती ही रह गयी ,मैया ने सोचा की इसका मतलब मेरा बालक कोई सामान्य बालक नही है , ये कोई ब्रह्म् का ही अवतार है ,
ठाकुर जी ने सोचा गड़ बड़ हो गयी अब मेरे माँ मुझे भगवान मानेगी अब ना तों मुझे गोदी में बिठायेगी और ना ही मुझे माखन मिश्री खीलाएगी एक सिंगासन पर बिठा देगी रसोई तैयार कर भोग आगे रख कर पर्दा करके बोलेगी हे भगवान भोग लगे और ले जायेगी , माँ की भक्ति तो मिलेगी पर माँ का स्नेह नही मिलेगा ,
ठाकुर जी ने ऐसी योग माया फेलाई ,मैया ने ठाकुर जी के मुख में क्या देखा वो सब भूल गयी इतना याद रहा की लाला के मुख में माटी देखि
मैया पिटाई करने लगी ऐ छोरा उदमी तेरे जैसे दो चार हो जाते तो मेरा क्या हाल होता एक है फिरभी तूने परिशाना कर रखा है ,गोपीया सुनेगी तो क्या कहेगी यशोदा अपने लाला को खाने को कुछ देती नही इसलिए छोरा माटी खाता है ,मैया ने ठाकुर जी को उखल से बान्द दिया
ठाकुरजी उखल से बन्दे - बन्दे लीला करते है जो नन्द भवन में यमुला अर्जुनदो वृक्ष थे जिनको नारद जी ने श्राप दिया था ठाकुर जी ने उनको धरासायी करके उनको अपने धाम भेजा
वृक्ष निचे पड़े तो धड़ामसी आवाज आई ,
नन्द बाबा आये कहा मेरे लाला को किसने बांदा ? क्यों बांदा ? गोपियाँ ने कहा बाबा हमारे ऊपर गुस्सा मत करो इसकी माँ ने ही बांदा इसकी माँ से ही पूछो ,
बाबा बोले क्योरी यशोदा तेने लाला को बांदा ? हाँ क्या करू बहुत उदमी हो गया तंग आ गयी में इस छोरे से, आप अपने साथ ले जाओ तो खबर पड़े ,
नन्द बाबा ने गोदी में लिया बोले देख बेठा ये तेरी माँ तुजे दाटी लगाती है , पिटाई करती है कभी बान्दति है माँ के पास रहना नही ,आ चल अपन तो हथाई पे चलते है , बैठक में चलते है
ठाकुर जी ने सोचा बाबा के साथ जाऊँगा तो वहा मिलेगा क्या सिवाय गपोके बातो के ?, माँ के पास रहुगा तो माँ कभी माखन किलाएगी , कभी मिश्री खिलाएगी , मिठाई खिलाएगी ,
ठाकुर जी तो उतरे बाबा की गोदी से , और मैया की गोदी में जा कर चिपक गए मैया बोली ये चटोरा कही जानेवाला नही.....
आ हा हा ठाकुर ने माँ के मुख से नाम सुना चटोरा ,इतने प्रसन्न हुवे की चलो एक नया नाम तो मिला , वैकुंठ नाथ ब्रह्मा नाथ सच्चिदा नन्द ये सब नाम सुन-सुन कर मेरे तो कान थक गए ,ठाकुरजी किसी वास्तु के चटोरे नही ,ये प्रेम के चटोरे है ये भाव के चटोरे है प्रेम खाते है
|| जय जय श्री राधे ||
Tuesday, 5 February 2013
स्वामी श्री रामसुखदास जी महाराज
अब हमे परमात्मा की प्राप्ति ही करनी है
हमे इस मार्ग पर ही चलना है ऐसा अटल निश्चय हो जाय ,लोग निंदा करे या स्तुति करे, धन आ जाय या चला जाय ,सरीर ठीक रहे या बीमार हो जाय ,हम जीते रहे या मर जायँ पर हम इस बात पर अडिग रहेंगे ! इस तरह "मैं -पनमें यह भाव कर लिया जाय की में तो केवल पारमार्थिक साधक हूँ तो फिर साधन अपने आप होगा.....
जय श्री कृष्ण —
अब हमे परमात्मा की प्राप्ति ही करनी है
हमे इस मार्ग पर ही चलना है ऐसा अटल निश्चय हो जाय ,लोग निंदा करे या स्तुति करे, धन आ जाय या चला जाय ,सरीर ठीक रहे या बीमार हो जाय ,हम जीते रहे या मर जायँ पर हम इस बात पर अडिग रहेंगे ! इस तरह "मैं -पनमें यह भाव कर लिया जाय की में तो केवल पारमार्थिक साधक हूँ तो फिर साधन अपने आप होगा.....
जय श्री कृष्ण —
भोजराज जी मीरा बाई के चरणों में सर रखते हुए कहा की अब आप ही मेरी गुरु है..
मीरा बाई व् भोजराजजी के विवाह को चार महीने बीत गए । मीरा अपने नित्य कर्म में लग गयी , अपने गिरधर गोपाल की सेवा पूजा में लग गयी । एक दिन भोजराज जी मीरा के श्यामकुञ्ज में आये मसनदके सहारे गद्दी पर विराजे मीरा से पूछने लगे- " सुना है आप ने योग की शिक्षा भी ली है , ज्ञान और भक्ति आप के लिए दोनों ही सहज है । यदि थोड़ी बहुत शिक्षा सेवक को भी प्राप्त हो तो यह जीवन सफल हो जाय।"
मीरा भी थोड़ी सी दूर एक दूसरी गद्दी पर विराजी। भोजराजजी की तरफ देखते हुए बोली- "यह क्या फर्माते है आप ? प्रभु की कृपा से आप मिले है। कोई दूसरा होता तो अब तक मीरा के चिता की राख भी न रहती।"
भोजराजजी ने कहा आप जिनकी भक्ति करती है क्या आप ने कभी साक्षात् दर्शन किये है ?
यह प्रश्न सुनकर मीरा की आँखें भर आई और गला रुंद गया कुछ पल में अपने आप को संभाल कर बोली अब में आप से क्या छुपाऊ मन से तो वह रूप पलक झपकने जितने समय भी ओझल नही होता , किन्तु अक्षय तृतीय के प्रभात से पूर्व काल मुझे स्वपन आया की प्रभु बींद बन कर पधारे, देवता और द्वारिकावासी बारात में आये दोनों और चवर डुलायें जा रहे थे छत्र तना था उस रूप का क्या वर्नन करू...... मीरा ठकुजी के रूप का वर्णन करते करते कहने लगी उनके समान कुछ भी नही - कुछ भी नही,मीरा बोलते बोलते रुक गयी आखो से झर झर आसू बहने लगे गला रुद गया अपने सरीर की सुद्ध भूल गयी घुंघट हट गया , भोजराजजी ने दासी को बुलवाए और अपनी स्वामिनी की और संकेत किया उसने मुह धुलाया और जल पात्र मुखसे लगाया मीरा को चेतना प्राप्त हुई
मीरा बोली में क्या कह रही थी ? भोजराज बोले की आपने फ़रमाया की प्रभु अक्षय त्तियाको बींद बनकर पधारे थे ....
मीरा बोली हुकुम फिर ह्म्हारा हथलेवा हस्त मिलाप हुआ उनके पीताम्बर से मेरी साड़ी की गांठ बाँधी गयी फिर फेरे हुए फिर हमे महलो में पहुचाया गया में चरणों में झुकी और प्रभु ने बहो में भर लिया ,
मीरा फिर रो पड़ी मीरा के ढलते आसू लगा जैसे मोती की लडिया टूटकर झड रही हो ,भोजराज ने मीरा को गौर से देखा कही भी दिखावा नही , मीरा ने भोजराज की तरफ देख दृष्टि झूका ली , भोजराज ने फिर याद दिलाया ,आप कुछ फर्मा रही थी ? मीरा मुस्कुरा कर बोली हुकुम क्या अर्ज कर रही थी ? मेतो पागल हु ,आपको कोई अशोभ बात तो नही अर्ज कर रही थी
भोजराजजी बोले नही हुकुम आप ठाकुरजीसे विवाहकी बात फरमा रही थी , मीरा बोली आप के यहाँ से आया चुडला तो मेने पहना ही नही सब गहने वस्त्र ज्योके त्यों पड़े है मेने जो पहन रखा था वो सब द्वारका से आया हुआ पढला था , भोजराज असमझ से रह गये " क्या में द्वारिका से आया पढला व् यहाँ का पढला देख सकता हु ?
मीरा ने दासियों को हुकुम दिया की दोनों बक्शे इधर ले आओ और खोल कर दोनों सामग्री अलग अलग रखदो , भोजराज जी ने आश्चार्य से देखा सब कुछ एकसा , फिर भी चित्तोड़ के महाराणा का वैभ उनके सामने सुन्य था , भोजराज ने श्रध्दापूर्वक उन सब को छुआ ,और सब दासियों यथा स्थान रख कर चली गयी
भोजराज उठकर मीरा के चरणों में सीर धर दिया , मीरा ने चोक कर कहा अरे यह क्या कर रहे है आप ? और पांव छुराने का प्रयत्न किया , भोजराज जी ने कहा अब आप ही मेरी गुरु है मुझ मतिहिन को रास्ता सुझाकर प्रभु के चरणों में लगा दीजिये ,भोजराज जी का गला रुद गया नेत्रों से कई बुँदे निकल कर मीरा के अमल धवल चरणोंका अभिषेक कर उठे , मीरा का हाथ सहज ही उनके सीर पर चला गया , बोली उठिए! विराजिये!
प्रभू की महिमा अपार है। शरणागत की लाज उन्हीको है । फिर भोजराजजी ने अपने को सम्भाला । वे वापस गद्धी पर जा विराजे साफा के पल्लू से अपने आसू पोछे।
उसी दिन से भोजराजजी ने मीरा बाई को अपना गुरु बना लिया
भगवत कथा ही मनुष्य के मोक्ष का मार्ग है
भगवत कथा जिस का अर्थ है सिर्फ भगवान से सम्बन्धित बातें उन्ही की लीलाओं का ह्रदय से स्वागत, उनके गुण का वर्णन, मनुष्य की मुक्ति कैसे हो परमात्मा की प्राप्ति कैसे हो, संसारियों से मोह हटाकर उनके चरणों में प्रेम कैसे हो, उनके चरणों में चित्त लग जाये ।
भगवत कथा सुनकर भगवान के नाम में भी प्रीति हो जाये ।
जब नाम में ही प्रीति हो तो नामधारी से वंचित कैसे रह
सकते है। इसी को भगवत कथा कहते है ।
पर आज कल कुछ संतो ने अलग ही ढंग बना रखा है।
मैं किसी संतो की निंदा नही कर रही हूँ। जैसा देख रही हूँ वो ही बता रही हूँ ।
कथा वाचक भगवत कथा तो कम करते है और नेताओ की कथा ज्यादा होती है , ऐसा क्यों?
आधे से ज्यादा समय नेताओ के स्वागत में ही बिता देते है और जो भक्त भागवत कथा सुनने आते है वो उन कथा से वंचित रह जाते है। वहां भगवान का प्रचार नही नेताओ का परचार होता है।
जरा विचार कीजिये भगवान को किसी नेता या किसी व्यक्ति विशेष से क्या लेना-देना ,परमात्मा के लिए सब एक सामन है। उस भगवत कथा की आड् में जिन नेताओ को वी-आई-प़ी बना कर स्वागत किया जाता है वो सिर्फ होठों से होता है , दिलसे नही।
वहां तो सिर्फ भगवत प्रेमिओ का ही स्वागत होता है जो स्वयं भगवान करते है। वे नेता ये नही सोचते की यहाँ तो हमारा स्वागत किया जा रहा है, पर परलोक में हमारा क्या हाल होगा। जो हमारी वजह से कथा मे विलम्ब होता है, क्या वहां भी कहेंगे की आओ नेता जी। कौन नेता, कैसा नेता ? कौन मंत्री कैसा मंत्री ? ये पहचान वहां कोई काम नही आती।
वहां तो एक ही पहचान काम आती है, हरी भक्त, जो सत्य में भगवान का प्रेमी हो जिनका भगवान के पार्षदों के द्वारा स्वागत किया जाता है की आओ भक्तो आप का स्वागत है। कितना सुन्दर आसन लगायेंगे जरा कल्पना कीजिये....
भगवान के प्रेमी इस लोक में तो सुखी होता ही है, परलोक में भी सुखी हो जाता है ।
जहाँ तक मेरे विचार हैं की जो भगवत कथा करवाता है उनसे कथावाचक संत को साफ शब्दों में मना कर देना चहिये की भागवत कथा में कोई व्यक्ति विशेष नही होगा किसी को भी वी-आई-पि मान कर स्वागत नही होगा।
कोई विशेष स्थान नही होगा। कथा सुनने वाले सभी भक्तजन एक ही समान होंगे तब सही अर्थो में भगवत कथा होती है। जहाँ सिर्फ भागवत को ही माल्यार्पण किया जाये....
कोई कथा करवाने वाला पैसे की झड़ी लगा देता है तो लोगो में चर्चा होने लग जाती है की वहां क्या गजब की कथा करवाई। मैं आप सबसे पूछती हूँ की पैसे से गजब की कथा कैसे हो सकती है? क्या उन पेसो से भगवान का प्रेम खरीद कर वहां बैठे प्रत्येक व्यक्ति के मन में डाला जाता है ? अगर ऐसा नही होता तो फिर गजब की कैसे हुई ?
गजब की वो नही होती जिनमे नेताओ को वि -आइ पि बना कर स्वागत किया जाये उनके पद का प्रचार किया जाये , बल्कि गजब की वो होती है जिस मे कथा वाचक के मुख से निकले भगवान के गुण व् उनके स्वरुप सुनने से ही भगवान में प्रीति हो जाये उनके नाम का ऐसा रंग चढ़ जाए की फिर कभी उतरे ही नही । ऐसी लगन लग जाये की जहाँ नजर जाए, श्याम सुन्दर ही नजर आये।
।। जय श्री कृष्ण , श्री राधे ।।
Sunday, 3 February 2013
मीराबाई के विवाह की पिछली रात
उनका विवाह श्री श्याम सुन्दर के साथ...
अक्षय त्तियाका प्रभात प्रातः काल मीरा बाई पलंग पर सो कर उठी तो दासियाँ चकित रह गयी उन्होंने दौड़कर झाला जी को सुचना दी
उन्होंने आ कर देखा की मीरा विवाह के साजसे सजी है बहोमे चुड़ला पहना है जो विवाह के समय वर के यहाँ से वधु को पहनाया जाता है , नाक में नथ, सिरपर रखडी, शिरोभूषण, हाथो में रची मेहंदी , दाहिनी हथेली में हस्तमिलापका चिह्न , और साड़ीकी पटली में खोंसा हुआ पीताम्बर गठजोड़ा , चोटी में गुँथे फूल , और केशोंमे पिरोये गये मोती , कक्ष में और पलंग पर बिखरे फूल देख कर ,मीराबाई की माँ ने हडबडा कर पूछा "यह क्या मीरा बारात तो अब आएगी न ??
मीरा ने सिर निचा किये पांव के अंगूठे से धरा पर रेख खीच ते हुए कहा आप सबको ब्याहने की बहुत जल्दी थी न ?आज पिछली रातको मेरा विवाह हो गया
भाबू प्रभु ने कृपा कर मुझे अपना लिया मेरा हाथ थाम कर उन्होंने भवसागर से पार कर दिया... मीरा के आखोमें हर्ष के आंसू निकल पड़े ,
मीरा को गहनों व् श्रंगार से सजे देख माँ ने पूछा ये गहने तो अमुल्य है मीरा कहा से आये ? मीरा " पडला है भाबू ( बारात और वरके साथ वधु के लिए आनेवाली सामग्री को पडला या बरी कहा जाता है ये सब पडलेमें आये है ...
मीरा ने धीरे धीरे लजाते हुए कहा पोसागे मेवा और श्रृंगार सामग्री और भी है, वे इधर रखे है आप देख सम्हाल ले
श्याम सुन्दर के वहां से आये जेवर व् पोशाके देख मीरा बाई की माँ की आखे फेल गयी......! जरी के वस्त्रो पर हीरे जवारत का काम किया गया था जो अँधेरे में भी चमचमा रहे थे ,
वीरमदेवजी आये उन्होंने सब कुछ देखा और समझा मन में कहा ,
मीरा का विवाह करवा कर क्यों इसे दुःख दे रहे है हम .किन्तु अब तो घड़िया घट रही है कुछ भी बस में नही रहा ,वे निश्वास छोड़ कर बाहर चले गए
मीरा श्यामकुञ्ज में जा कर नित्य कर्म करने लग गयी, माँ ने आकर लाड लडाते हुए समझाया.... बेटी आज तो तेरा विवाह है चलकर सखियों व् भोजाइयो के बीच बैठ , यह भजन पूजा अब रहने दे
मीरा " भाबू सबको एक जैसा खेल अच्छा नही लगता आज यह पडला देखकर और मेरी हथेली का यह चिह्न देख कर भी आप को विश्वास नही हुआ,
भाबू बोली "विश्वास तो है बेटी पर तुजे मालूम है की तेरी तनिक सी ना कितना अनर्थ कर देगी इस मेड़ता में ? मीरा समझ गयी भाबू से बोली माँ आप चिंता न करिए जब भी कोई नेग करना हो बुला लीजियेगा मैं आ जाउंगी ,
"वाह मेरी लाडली तूने मेरी चिंता दूर कर दी ,
और भोजराजजी की बारात दरवाजे पर आ खड़ी हुए....
चितोड़ से आया हुआ पडला रनिवास में पंहुचा ,जब मीराको धारण करने का समय आया तो मीरा ने कहा भाबू सब वैसा का वैसा ही तो है ? इसे ही रहने दो....
फेरो की समय बायें हाथसे गिरधर गोपाल साथ ले लिया
मीरा ने मंडपमें अपने और भोजराजजी के बीचमें ठाकुर जी को विराज मान कर दिया जगह कम पड़ी तो भोजराज जी थोड़ा परे सरक गए......
भोजराजजी मीराबाई के अच्छे मित्र बने ना की पति
जय श्री कृष्ण
उनका विवाह श्री श्याम सुन्दर के साथ...
अक्षय त्तियाका प्रभात प्रातः काल मीरा बाई पलंग पर सो कर उठी तो दासियाँ चकित रह गयी उन्होंने दौड़कर झाला जी को सुचना दी
उन्होंने आ कर देखा की मीरा विवाह के साजसे सजी है बहोमे चुड़ला पहना है जो विवाह के समय वर के यहाँ से वधु को पहनाया जाता है , नाक में नथ, सिरपर रखडी, शिरोभूषण, हाथो में रची मेहंदी , दाहिनी हथेली में हस्तमिलापका चिह्न , और साड़ीकी पटली में खोंसा हुआ पीताम्बर गठजोड़ा , चोटी में गुँथे फूल , और केशोंमे पिरोये गये मोती , कक्ष में और पलंग पर बिखरे फूल देख कर ,मीराबाई की माँ ने हडबडा कर पूछा "यह क्या मीरा बारात तो अब आएगी न ??
मीरा ने सिर निचा किये पांव के अंगूठे से धरा पर रेख खीच ते हुए कहा आप सबको ब्याहने की बहुत जल्दी थी न ?आज पिछली रातको मेरा विवाह हो गया
भाबू प्रभु ने कृपा कर मुझे अपना लिया मेरा हाथ थाम कर उन्होंने भवसागर से पार कर दिया... मीरा के आखोमें हर्ष के आंसू निकल पड़े ,
मीरा को गहनों व् श्रंगार से सजे देख माँ ने पूछा ये गहने तो अमुल्य है मीरा कहा से आये ? मीरा " पडला है भाबू ( बारात और वरके साथ वधु के लिए आनेवाली सामग्री को पडला या बरी कहा जाता है ये सब पडलेमें आये है ...
मीरा ने धीरे धीरे लजाते हुए कहा पोसागे मेवा और श्रृंगार सामग्री और भी है, वे इधर रखे है आप देख सम्हाल ले
श्याम सुन्दर के वहां से आये जेवर व् पोशाके देख मीरा बाई की माँ की आखे फेल गयी......! जरी के वस्त्रो पर हीरे जवारत का काम किया गया था जो अँधेरे में भी चमचमा रहे थे ,
वीरमदेवजी आये उन्होंने सब कुछ देखा और समझा मन में कहा ,
मीरा का विवाह करवा कर क्यों इसे दुःख दे रहे है हम .किन्तु अब तो घड़िया घट रही है कुछ भी बस में नही रहा ,वे निश्वास छोड़ कर बाहर चले गए
मीरा श्यामकुञ्ज में जा कर नित्य कर्म करने लग गयी, माँ ने आकर लाड लडाते हुए समझाया.... बेटी आज तो तेरा विवाह है चलकर सखियों व् भोजाइयो के बीच बैठ , यह भजन पूजा अब रहने दे
मीरा " भाबू सबको एक जैसा खेल अच्छा नही लगता आज यह पडला देखकर और मेरी हथेली का यह चिह्न देख कर भी आप को विश्वास नही हुआ,
भाबू बोली "विश्वास तो है बेटी पर तुजे मालूम है की तेरी तनिक सी ना कितना अनर्थ कर देगी इस मेड़ता में ? मीरा समझ गयी भाबू से बोली माँ आप चिंता न करिए जब भी कोई नेग करना हो बुला लीजियेगा मैं आ जाउंगी ,
"वाह मेरी लाडली तूने मेरी चिंता दूर कर दी ,
और भोजराजजी की बारात दरवाजे पर आ खड़ी हुए....
चितोड़ से आया हुआ पडला रनिवास में पंहुचा ,जब मीराको धारण करने का समय आया तो मीरा ने कहा भाबू सब वैसा का वैसा ही तो है ? इसे ही रहने दो....
फेरो की समय बायें हाथसे गिरधर गोपाल साथ ले लिया
मीरा ने मंडपमें अपने और भोजराजजी के बीचमें ठाकुर जी को विराज मान कर दिया जगह कम पड़ी तो भोजराज जी थोड़ा परे सरक गए......
भोजराजजी मीराबाई के अच्छे मित्र बने ना की पति
जय श्री कृष्ण
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