Friday, 8 February 2013

व्रजवासियो को श्याम विरह का विलाप.

ठाकुर जी वृन्दावन से मथुरा जाने लगे तो , व्रजवासियो के ह्रदय पर मानो  ब्रजघात हो गया हो । विरह की मारी बासुरी रो रही है  "हे गोविन्द अब मुझे कौन अधरों से लगाएगा ,  वो गईया रो रही है , हे गोविन्द विधाता ने हमे  पसु क्यों बनाया ? आज हमारा स्वामी जा रहा है पर हम रोक नही पा रही है । जुबा होती तो तुम से विनती कर रोक देती...."
पसु ,पक्षी गोपी ग्वाला सबके के मुख से एक ही शब्द निकलता है -
"प्रीत निभाना ओ सावरिया ।
 दरस दिखाना ओ सावरिया ।
 ओ पांडू रंगा भूल बिछड़ मत जनारे ।
 ओ प्रियतम प्रितकि रित निभाना रे ।
 ओ कन्हेइया हम को तू ना भूलना रे ।
हे कन्हेया कही तू हम व्रजवासियो  को भूल तो नही जायेगा न ?तुजे हमारी याद तो आयेगि न..........?
मैया बे सुध सी पड़ी है...."
                             अगर व्रजवासी कृष्ण के विरह में इतने दुखी है तो ऐसी बात नही है की कृष्ण के  ह्रदयमे बिछड़ने की पीड़ा नहीं है ,
ठाकुर जी भी बहुत दुखी है , मन तो ठाकुर जी का भी बहुत करता है की इन के साथ में मैं भी रो लू पर सोचा की मैं भी इन सबके सामने रोने लग जाऊंगा तो इनको लगेगा की हमारा कन्हेया बहुत दुखी हो कर गया , इसलिए ठाकुर जी अपने को संभालते हुए नजरे फेर लेते है मानो सबको ये दिखा रहे हो की हमारा कृष्ण राजी मन से जा रहा हो ।
                                      श्री कृष्ण रथ में बेठे ,रथ कुछ दूर गया, ठाकुर जी दाऊ दादा के कंदे पर सीर रख कर फुट - फुट कर रोने लगे - "हे दाऊ दादा ये मैंने क्या कर दिया ? जिस मैया ने मेरे सीर के बाल टूटने जितनी भी तकलीफ नही होने दी, आज मैं उस मैया का दिल तोड़ कर आ गया । हे दाऊ दादा अब मुझे कनुवा कनुवा कह कर कौन बुलायेगा " ।
 दाऊ दादा कृष्ण को समझाते है की " हे कृष्ण ! तू ऐसे करेगा तो फिर इस व्रज का क्या होगा ? बाकि लीलाओं का क्या होगा ? अभी तो तुझे बहुत बड़े बड़े काम करने है ।"
              ठाकुर जी रोते हुए कहते है की " हे दाऊ दादा ! अब तो ऐसा लगता है की इस भूमि पर जैसे मेरा कोई काम ही नही है । अब ये कंस को , जरासन को,  मारना कोई लीला नही । अगर लीला का सुख था तो मेरी मैया के साथ, मेरी गोपियाँ के साथ, मेरी बांसुरी के साथ, उन ग्वाल बालों के साथ था । अब ये अब छुट गए । मेरी मैया छुट गयी, मेरी गईया छुट गई, मेरे सखा छूट गए , मेरी श्यामिनी राधा छूट गयी, मेरी बांसुरी छुट गयी, मेरी गोपियाँ  छुट गयी।"
समझे तो कृष्ण के ह्रदय में भी बहुत प्रेम है।
       जरा कल्पना कीजिये जिनका जीवन ही श्रीकृष्ण था, हरपल उनके दर्शनों के लिए आतुर रहते थे, उनसे बिछड़ने की दर्द पीड़ा केसे सही होगी ? जिस के बालपन के सब खेल छूट गए हो, सब सखा छूट गये हो, उन श्रीकृष्ण के ह्रदय में कितनी पीड़ा रही होगी ?
आप कहेंगे की वे तों भगवान है, भगवान को कैसा दुःख ?
                            पर भगवान ने अपने भीतर भी तो दिल रचा है। जहाँ दिल हो वहां  दुःख  कैसे न हो।  हम सबको वे दिल से ही तो अपनाते है। दिमाग से तो हम जैसे अभागे मानते है, जरा दिमाग को परे रख कर भगवान में दिल लगा कर देखिये....।
                            ।। हरे श्री कृष्ण ,हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।।

                           

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