Tuesday, 5 February 2013


भोजराज जी मीरा बाई के चरणों में सर रखते हुए कहा की अब आप ही मेरी गुरु है..

मीरा बाई  व् भोजराजजी के विवाह को चार महीने बीत गए । मीरा अपने नित्य कर्म में लग गयी , अपने गिरधर गोपाल  की सेवा पूजा में लग गयी । एक दिन भोजराज जी मीरा के श्यामकुञ्ज में आये मसनदके सहारे गद्दी पर विराजे मीरा से पूछने लगे- " सुना है आप ने योग की शिक्षा  भी ली है , ज्ञान और भक्ति आप के लिए दोनों ही सहज है । यदि थोड़ी बहुत शिक्षा सेवक को भी प्राप्त हो तो यह जीवन सफल हो जाय।"

मीरा भी थोड़ी सी दूर एक दूसरी गद्दी पर विराजी। भोजराजजी की तरफ देखते हुए बोली- "यह क्या फर्माते है आप ? प्रभु की कृपा से आप मिले है। कोई दूसरा होता तो अब तक मीरा के चिता की राख भी न रहती।"
भोजराजजी ने कहा आप जिनकी भक्ति करती है क्या आप ने कभी साक्षात् दर्शन किये है ?

यह प्रश्न सुनकर मीरा की आँखें भर आई और गला रुंद गया कुछ पल में अपने आप को संभाल कर बोली अब में आप से क्या छुपाऊ मन से तो वह रूप पलक झपकने जितने समय भी  ओझल नही होता , किन्तु अक्षय तृतीय  के प्रभात से पूर्व काल मुझे स्वपन आया की प्रभु बींद बन कर पधारे,  देवता और द्वारिकावासी बारात में आये दोनों और चवर डुलायें जा रहे थे छत्र तना था उस रूप का क्या वर्नन करू...... मीरा ठकुजी के रूप का वर्णन करते करते कहने लगी उनके समान कुछ भी नही - कुछ भी नही,मीरा बोलते बोलते रुक गयी आखो से झर झर  आसू बहने  लगे गला रुद गया  अपने सरीर की सुद्ध भूल गयी घुंघट हट गया , भोजराजजी ने दासी को बुलवाए और अपनी स्वामिनी की और संकेत किया उसने मुह धुलाया और जल पात्र मुखसे लगाया मीरा को चेतना प्राप्त हुई

मीरा बोली में क्या कह रही थी ? भोजराज बोले की आपने फ़रमाया की प्रभु  अक्षय त्तियाको बींद बनकर पधारे थे ....
मीरा बोली हुकुम फिर ह्म्हारा हथलेवा हस्त मिलाप हुआ उनके पीताम्बर से मेरी साड़ी की गांठ बाँधी गयी फिर फेरे हुए फिर हमे महलो में पहुचाया गया में चरणों में झुकी और प्रभु ने बहो में भर लिया ,

मीरा फिर रो पड़ी मीरा के ढलते आसू लगा जैसे मोती की लडिया टूटकर झड रही हो ,भोजराज ने मीरा को गौर से देखा कही भी दिखावा नही , मीरा ने भोजराज की तरफ देख दृष्टि झूका ली , भोजराज ने फिर याद दिलाया ,आप कुछ फर्मा रही थी ? मीरा मुस्कुरा कर बोली हुकुम क्या अर्ज कर रही थी ? मेतो पागल हु ,आपको कोई अशोभ बात तो नही अर्ज कर रही थी

भोजराजजी बोले नही हुकुम आप ठाकुरजीसे विवाहकी बात फरमा रही थी , मीरा बोली आप के यहाँ से आया चुडला तो मेने पहना ही नही सब गहने वस्त्र ज्योके त्यों पड़े है मेने जो पहन रखा था वो सब द्वारका से आया हुआ पढला था , भोजराज असमझ से रह गये  " क्या में द्वारिका से आया पढला व् यहाँ का पढला देख सकता हु ?

मीरा ने दासियों को हुकुम दिया की दोनों बक्शे इधर ले आओ और खोल कर  दोनों सामग्री अलग अलग रखदो , भोजराज जी ने आश्चार्य से देखा सब कुछ एकसा , फिर भी चित्तोड़ के महाराणा का वैभ उनके सामने सुन्य था , भोजराज ने श्रध्दापूर्वक उन सब को छुआ ,और सब दासियों यथा स्थान रख कर चली गयी

भोजराज उठकर मीरा के चरणों में सीर धर दिया , मीरा ने चोक कर कहा अरे यह क्या कर रहे है आप ? और पांव छुराने का प्रयत्न किया , भोजराज जी ने कहा अब आप ही मेरी गुरु है मुझ मतिहिन को रास्ता सुझाकर प्रभु के चरणों में लगा दीजिये ,भोजराज जी का गला रुद गया नेत्रों से कई बुँदे निकल कर मीरा के अमल धवल चरणोंका अभिषेक कर उठे , मीरा का हाथ सहज ही उनके सीर पर चला गया , बोली उठिए! विराजिये!
प्रभू  की महिमा अपार है। शरणागत की लाज उन्हीको है । फिर भोजराजजी  ने अपने को सम्भाला । वे वापस गद्धी पर जा विराजे साफा के पल्लू से अपने आसू पोछे।
उसी दिन से भोजराजजी ने मीरा बाई को अपना गुरु बना लिया


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