Thursday, 28 March 2013
Tuesday, 26 March 2013
व्रज में रतन राधिका गोरी ,
राधे खेले श्याम संग होरी
व्रज में रतन राधिका गोरी ,
बाह पकड़ के कलयिया मरोड़ी
भर पीछकरी मोरे अंग पे छोड़े
हो नटखट रंग दिनी मोरी चोली
व्रज में रतन राधिका गोरी
अबीर गुलालके बादल छाये
होरी है, होरी है ,शोर मचाये
हो सखिया खेर मोहे झक झोरी
व्रज में रतन राधिका गोरी
राधे खेले श्याम संग होरी
व्रज में रतन राधिका गोरी.....
{ जय जय श्री राधे }
प्रभु जिसको तारे
कौन उसको मारे
प्रह्लाद जी की भक्ति देख हिरण्यकशिप ने सोचा की ये मेरा बेटा हो कर शांत कैसे है , मेरा बेटा तो जन्मजात से ही उत्पाती होना चाहिए , ये कैसे शान्ति से रहता है ये कैसे भजन कर रहा है.. इसे मुझे देत्य कुलके हिसाब से बनाना पड़ेगा
और संडाम्रगऋषि के पास विद्द्या अद्ययन करने भेज दिया , जो संडाम्रगऋषि के यहाँ एक ही शिक्षा दी जाती थी मारना कैसे ,पीटना कैसे , लूटना कैसे , भिड़ना कैसे , लेकिन प्रह्लाद जी तो जरा भी ध्यान नहीं देते ,
एक दिन प्रह्लाद जी को हिरण्यकशिप अपनी गोदी में बिठा कर पूछा बेटा क्या शिक्षा पाई ? , प्रह्लाद जी बोले पिता जी , ( श्रवणंम , कीर्तनम , विश्नो ,स्मरणम , पादसेवनम , अर्चनम वंदनम ,दाश्यम , सख्यम , आत्म निवेदम...),
ये नवदा भक्ति है ! पिता जी इन नों भक्ति में से एक भी भक्ति भगवान के चरणों में हो जाये तो जिव का कल्याण हो जाये ! हिरण्यकशिप क्रोधित हो कर बोले "रे मुर्ख तुझे पता है ना ! मुझे भगवान बिलकुल प्रिय नहीं लगते फिर तू क्यों मेरे सामने भगवान का नाम लेता है ? तू जिस नारायण का नाम लेता है वो मेरा सबसे बड़ा सत्रु है , और तुम मेरे पुत्र हो कर मेरे सत्रु का नाम लेता है..
प्रह्लाद जी को फिर से वही संडाम्रगऋषि के यहाँ भेज दिया जहा , मारना ,पीटना , लूटना, भिड़ना इस प्रकारकी शिक्षा दी जाती थी
एक दिन संजोग ऐसा बना की गुरु जी किसी काम से बाहर गए , प्रह्लाद जी ने सब शिष्यों को इकट्टा किया , और सब को कहा सुनो भाई अपनको जन्म देत्य कुल में मिला इसका अभिप्राय ये थोड़ी की अपन भी खोटा खोटा काम करे अपन भी तो भगवान का भजन करके भगवान को पा सकते है ! उन देत्य बालको ने कहा भाई हमको तो भगवान का भजन करना आता नही , कैसे भगवान का भजन करते है ? तू बड़ी अच्छी अच्छी बाते करता है तुही हमे सिखादे ? प्रह्लाद जी बोले जैसे में कीर्तन करू वैसे तुम भी कीर्तन करो,
गोविन्द बोलो हरी गोपाल बोलो
गोविन्द बोलो हरी गोपाल बोलो..
संडाम्रग आये बालको को कीर्तन करते देखा , की ये क्या पहले तो एक ही बालक भारी पड़ता था अब तो सब बालक बिगड़ गए ,
संडाम्रगऋषि गए , हिरण्यकशिप के पास बोले " महाराज पहले तो आप का एक बालक ही बिगड़ा हुआ था , अबतो सब बालक बिगड़ गये , हिरण्यकशिप ने अपने सेनिक को भेजा की जाओ उसे पकड़ कर मेरे पास ले आओ , पर जो भी सेनिक जाते, वहाँ सब बालको को कीर्तन करते हुए देखते , और सोचने लगते की राजा की नोकरी खूब करी पर ऐसा सुख ऐसा आनन्द कभी नही देखा , जो होगा सो देखा जायेगा । अपने तीर ,कमान ,भाले ,तलवार , रख देते एक कोने में और सब बाल को के पीछे कीर्तन करने बैठ जाते ।
गोविन्द बोलो हरी गोपाल बोलो
गोविन्द बोलो हरी गोपाल बोलो..
संडाम्रगऋषि फिर आये बोले महाराज पहले तो आप का एक बालक ही बिगड़ा हुआ था, फिर सब विद्यार्थी बिगड़े , अब तो आप की पूरी सेना भी बिगड़ गयी सब आपके सत्रु के कीर्तन में लग गये , हिरण्यकशिप ने सोचा ये छोरा ऐसे नही मानेगा , सारा दिन मेरे सत्रु नारायण का नाम लेता है ।
हिरण्यकशिप ने पहलादजी को मारने का आदेश दे दिया।,
होलिका नाम की एक राक्षसी थी जिस के पास चादर थी , उसने कहा की मैं इस चादर को ओढ़ कर बैठ जाऊ और कोई मुझे आग लगादे तो में बच जाउंगी और मैरि गोदीमे बेठेगा वो जल जायेगा , और पहलाद जी को होलिका की गोदीमे बिठा कर आग लगादी
अचानक हवा ऐसी जोर की चली , वो चादर हवामे उड़ कर प्रह्लाद जी पर गिर गयी प्रह्लाद जी बच गए , होलिका जल गयी ।।
हिरण्यकशिप ने अनेक प्रकार से प्रह्लाद जी को मारने की कोशिश की , पर सब जगह प्रह्लादजी का रक्षण हो जाता , हिरण्यकशिप ने ब्रह्मा जी से बहुत से वरदान पाए थे पर भगवान अपने भक्त का अपमान नही देख सकते अपने भक्त की रक्षा के लिए अलग रूप से भी अवतरित हो जाते है।
आज भी हम सब होलि का त्यौहार एक भक्त के भरोसे की जीत पर ही मनाते है... जय श्री कृष्ण जय जय श्री राधे
कौन उसको मारे
प्रह्लाद जी की भक्ति देख हिरण्यकशिप ने सोचा की ये मेरा बेटा हो कर शांत कैसे है , मेरा बेटा तो जन्मजात से ही उत्पाती होना चाहिए , ये कैसे शान्ति से रहता है ये कैसे भजन कर रहा है.. इसे मुझे देत्य कुलके हिसाब से बनाना पड़ेगा
और संडाम्रगऋषि के पास विद्द्या अद्ययन करने भेज दिया , जो संडाम्रगऋषि के यहाँ एक ही शिक्षा दी जाती थी मारना कैसे ,पीटना कैसे , लूटना कैसे , भिड़ना कैसे , लेकिन प्रह्लाद जी तो जरा भी ध्यान नहीं देते ,
एक दिन प्रह्लाद जी को हिरण्यकशिप अपनी गोदी में बिठा कर पूछा बेटा क्या शिक्षा पाई ? , प्रह्लाद जी बोले पिता जी , ( श्रवणंम , कीर्तनम , विश्नो ,स्मरणम , पादसेवनम , अर्चनम वंदनम ,दाश्यम , सख्यम , आत्म निवेदम...),
ये नवदा भक्ति है ! पिता जी इन नों भक्ति में से एक भी भक्ति भगवान के चरणों में हो जाये तो जिव का कल्याण हो जाये ! हिरण्यकशिप क्रोधित हो कर बोले "रे मुर्ख तुझे पता है ना ! मुझे भगवान बिलकुल प्रिय नहीं लगते फिर तू क्यों मेरे सामने भगवान का नाम लेता है ? तू जिस नारायण का नाम लेता है वो मेरा सबसे बड़ा सत्रु है , और तुम मेरे पुत्र हो कर मेरे सत्रु का नाम लेता है..
प्रह्लाद जी को फिर से वही संडाम्रगऋषि के यहाँ भेज दिया जहा , मारना ,पीटना , लूटना, भिड़ना इस प्रकारकी शिक्षा दी जाती थी
एक दिन संजोग ऐसा बना की गुरु जी किसी काम से बाहर गए , प्रह्लाद जी ने सब शिष्यों को इकट्टा किया , और सब को कहा सुनो भाई अपनको जन्म देत्य कुल में मिला इसका अभिप्राय ये थोड़ी की अपन भी खोटा खोटा काम करे अपन भी तो भगवान का भजन करके भगवान को पा सकते है ! उन देत्य बालको ने कहा भाई हमको तो भगवान का भजन करना आता नही , कैसे भगवान का भजन करते है ? तू बड़ी अच्छी अच्छी बाते करता है तुही हमे सिखादे ? प्रह्लाद जी बोले जैसे में कीर्तन करू वैसे तुम भी कीर्तन करो,
गोविन्द बोलो हरी गोपाल बोलो
गोविन्द बोलो हरी गोपाल बोलो..
संडाम्रग आये बालको को कीर्तन करते देखा , की ये क्या पहले तो एक ही बालक भारी पड़ता था अब तो सब बालक बिगड़ गए ,
संडाम्रगऋषि गए , हिरण्यकशिप के पास बोले " महाराज पहले तो आप का एक बालक ही बिगड़ा हुआ था , अबतो सब बालक बिगड़ गये , हिरण्यकशिप ने अपने सेनिक को भेजा की जाओ उसे पकड़ कर मेरे पास ले आओ , पर जो भी सेनिक जाते, वहाँ सब बालको को कीर्तन करते हुए देखते , और सोचने लगते की राजा की नोकरी खूब करी पर ऐसा सुख ऐसा आनन्द कभी नही देखा , जो होगा सो देखा जायेगा । अपने तीर ,कमान ,भाले ,तलवार , रख देते एक कोने में और सब बाल को के पीछे कीर्तन करने बैठ जाते ।
गोविन्द बोलो हरी गोपाल बोलो
गोविन्द बोलो हरी गोपाल बोलो..
संडाम्रगऋषि फिर आये बोले महाराज पहले तो आप का एक बालक ही बिगड़ा हुआ था, फिर सब विद्यार्थी बिगड़े , अब तो आप की पूरी सेना भी बिगड़ गयी सब आपके सत्रु के कीर्तन में लग गये , हिरण्यकशिप ने सोचा ये छोरा ऐसे नही मानेगा , सारा दिन मेरे सत्रु नारायण का नाम लेता है ।
हिरण्यकशिप ने पहलादजी को मारने का आदेश दे दिया।,
होलिका नाम की एक राक्षसी थी जिस के पास चादर थी , उसने कहा की मैं इस चादर को ओढ़ कर बैठ जाऊ और कोई मुझे आग लगादे तो में बच जाउंगी और मैरि गोदीमे बेठेगा वो जल जायेगा , और पहलाद जी को होलिका की गोदीमे बिठा कर आग लगादी
अचानक हवा ऐसी जोर की चली , वो चादर हवामे उड़ कर प्रह्लाद जी पर गिर गयी प्रह्लाद जी बच गए , होलिका जल गयी ।।
हिरण्यकशिप ने अनेक प्रकार से प्रह्लाद जी को मारने की कोशिश की , पर सब जगह प्रह्लादजी का रक्षण हो जाता , हिरण्यकशिप ने ब्रह्मा जी से बहुत से वरदान पाए थे पर भगवान अपने भक्त का अपमान नही देख सकते अपने भक्त की रक्षा के लिए अलग रूप से भी अवतरित हो जाते है।
आज भी हम सब होलि का त्यौहार एक भक्त के भरोसे की जीत पर ही मनाते है... जय श्री कृष्ण जय जय श्री राधे
Saturday, 23 March 2013
मीराबाई के देवर रतनसिंहजी को भी विश्वास हो गया था की भाभिसा से मिलने ठाकुर जी आते है.....
सावन की तीज के दिन भोजराजजी भी झूले झूल रहे थे , जैसे ही झुला धीमे पड़ा भोजराज के छोटे भाई रतनसिंह ने डोर सहित अपने भाई को बाहों में भर लिया और कहा की अब जल्दी से भाभिसा का नाम बता दीजिये , अब अगर आप ने विलम्ब किया तो मैं झूले से उतरने नही दूँगा ,
भोजराज बोले ("मेड़तिया घर रि थाती मीरा आभ आकाश कुसुम का फूल), इतना नाम सुना फिर तो रतनसिंग आभ आकाश कुसुम फूल का विचार ही करते रहे ,
एक दिन भोजराज को अकेला पा कर रतनसिंग अभिवाद्क कर समीप आ कर बैठ गए ,रतनसिंग ने देखा की भोजराज किसी गहन विचार में मग्न है रतनसिंग बोले बावजी हुकुम....?
भोजराज चोक कर हँस पड़े , बातो बातो में दोनों ही भाई ठठाकर हँस पड़े रतनसिंग ने गंभीर होकर कहा कितने समय बाद आपको ऐसे मुक्त कंठो से हँस ते हुए देख रहा हु।
भोजराज "अच्छा कहो कैसे आना हुआ ? रतनसिंग " बहुत समय से एक बात उथल - पुथल मचाये हुए है अवसर नही मिला और कभी हिम्मत न पड़ी , आज दोनों ही मिल गए है न , भोजराज "हा तो कह डालो , रतनसिंग "पहले वचन दो मेरी बात टालोगे तो नही ? भोजराज हंसते हुए बोले अरे टालने को क्या एक तुम्ही बचे हो ? बहुत लोग भरे पड़े है , रतनसिंग " उस दिन झूले पर आपने भाभीसा हुकुम का नाम लेते हुए उन्हें आभ आकाश का फूल क्यों कहा?
भोजराज बोले "क्या तुम्हारी भाभी तुम्हे बदसूरत दिखाई देती है ? रतनसिंग " नही मैंने आज तक इतनी सुन्दर कही नही देखि विधाता ने सोच - समझ कर जोड़ी मिलायी है , पर आकाश कुसुम कैसे है ? भोजराज " इसीलिए की वह धरा के सभी फूलो से सुन्दर है , रतनसिंग " बावजी हुकुम ! शाश्त्र अभ्यास से भले ही मैं जी चुराता रहा पर थोड़ी समझ आप के इस सेवक में है, इसी कारण वहाँ खड़े इतने लोगो में किसीका ध्यान इस और नही गया किन्तु मैं उसी क्षण बेचैन हो उठा हूँ । क्या इतना अपदार्थ हूँ की .........। रतनसिंग ने भोजराज की और सजल नेत्रों से देखा । भोजराज ने भाई को बाहों में भर लिया - और रुदे कंठ से बोले ऐसा न कहो ऐसा न कहो भाई !
भोजराज कुछ क्षण के लिए चुप होकर सामने कही दूर जैसे क्षीतिज् में कुछ ढूंडने लगे हो तब ,रतनसिंग ने उनके मुखपर आनेवाली उतार - चढ़ाव का निरिक्षण करते रहे , भोजराज काफी देर बाद बोले क्या करोगे सुन कर आभ आकाश कुसुम का फूल क्यों कहा ? ,
रतनसिंग "यह नही जनता पर फिर भी सुन्ना चाहता हु आकाश कुसुम किसे कहते है ? सुन्दर किन्तु जो अप्राप्य हो। भोजराज बोले बस यही है जो तुम जानना चाहते हो । बावजी हुकुम ! रतनसिंग केवल सम्बोधन करके रह गए ,क्षण भर में अपने को संभल कर रतनसिंग ने पूछा क्यों ? कैसे ?
भोजराज बोले यदि तुम्हे ज्ञात हो जाये की जिसे तुम विवाह कर लाये हो वो पर - स्त्री है तो तुम क्या कहोगे ?
रतनसिंग बोले पर स्त्री पर कैसे ? भाभिसा हो या कोई भी स्त्री । कोई भी विवाहिता नारी पुनः विवाह के लिए कैसे तैयार हो सकती है ? मेरी तो बुध्दि ही काम नही कर रही है , कैसे हुआ ये सब ?
भोजराज "मेड़ते में कुवर कलेवे में हमारे बीच कौन था ? रतनसिंग " ठाकुरजी विराजे थे । अच्छा बावजी हुकुम ! वहाँ ठाकुर जी का क्या कम था ? कैसी परम्परा है इन मेड़तियों के वहाँ ? भोजराज बोले , स्मरण हो तुमको ? तुम ने कहा की ये क्या टोटका है ? तब मेने कहा की बींद तो येही है और मैं टोटका हूँ ,रतनसिंग " हाँ हुकुम ! याद आ गया तो क्या भाभीसा.........।
भोजराज " हा बचपन में किसी की बारातको देखकर उन्होंने अपनी माँ से पूछा की की यह कौन है ? उन्होंने बताया की की नगरसेठ की बेटी का बींद है । तुम्हारी भाभिसा ने जिद्द की , की मेरा बींद कौन है बताओ । बहुत बहलाने पर भी ये न मानी तो उनकी माँ ने कह दिया की ये गिरधर गोपाल तुम्हारे बींद है।
बस उसी दिन वह बात इतनी गहरी बैठ गयी की ठाकुर जी को आना ही पड़ा , रतनसिंग ने आश्चर्य से भर कर पूछा ठाकुर की को आना पड़ा ? भोजराज बोले हाँ अक्षय त्तियाकी पहली रात उनका विवाह ठाकुर जी के साथ हो गया। रतनसिंग बोले आप को कैसे विश्वास आया ऐसी बिना सीर -पैर की बात पर ?
भोजराज बोले यहाँ से गया पडला ज्यो का त्यों रखा है , मैंने दोनों ही पडले देखे है , पर द्वारका के वस्त्राभूषण इतने मूल्यवान है की अनुमान लगाना कठीन है । और अभी तीज की रात को भी ठाकुर जी पधारे थे , रतनसिंग बोले आप ने देखा ठाकुरजी को ? नहीं किन्तु जो कुछ देखा उससे ज्ञात हो रहा था की वहाँ तीसरा कोई और भी है , भोजराज जी की बातो से रतनसिंग को भी विश्वास हो गया की भाभिसा से मिलने ठाकुर जी आते है....
मेरे तो गिरधर गोपाल दुसरो ना कोई
जा के सिर मोर मुकुट मेरो पति सोयी
जय श्री गिरधर गोपाल
सावन की तीज के दिन भोजराजजी भी झूले झूल रहे थे , जैसे ही झुला धीमे पड़ा भोजराज के छोटे भाई रतनसिंह ने डोर सहित अपने भाई को बाहों में भर लिया और कहा की अब जल्दी से भाभिसा का नाम बता दीजिये , अब अगर आप ने विलम्ब किया तो मैं झूले से उतरने नही दूँगा ,
भोजराज बोले ("मेड़तिया घर रि थाती मीरा आभ आकाश कुसुम का फूल), इतना नाम सुना फिर तो रतनसिंग आभ आकाश कुसुम फूल का विचार ही करते रहे ,
एक दिन भोजराज को अकेला पा कर रतनसिंग अभिवाद्क कर समीप आ कर बैठ गए ,रतनसिंग ने देखा की भोजराज किसी गहन विचार में मग्न है रतनसिंग बोले बावजी हुकुम....?
भोजराज चोक कर हँस पड़े , बातो बातो में दोनों ही भाई ठठाकर हँस पड़े रतनसिंग ने गंभीर होकर कहा कितने समय बाद आपको ऐसे मुक्त कंठो से हँस ते हुए देख रहा हु।
भोजराज "अच्छा कहो कैसे आना हुआ ? रतनसिंग " बहुत समय से एक बात उथल - पुथल मचाये हुए है अवसर नही मिला और कभी हिम्मत न पड़ी , आज दोनों ही मिल गए है न , भोजराज "हा तो कह डालो , रतनसिंग "पहले वचन दो मेरी बात टालोगे तो नही ? भोजराज हंसते हुए बोले अरे टालने को क्या एक तुम्ही बचे हो ? बहुत लोग भरे पड़े है , रतनसिंग " उस दिन झूले पर आपने भाभीसा हुकुम का नाम लेते हुए उन्हें आभ आकाश का फूल क्यों कहा?
भोजराज बोले "क्या तुम्हारी भाभी तुम्हे बदसूरत दिखाई देती है ? रतनसिंग " नही मैंने आज तक इतनी सुन्दर कही नही देखि विधाता ने सोच - समझ कर जोड़ी मिलायी है , पर आकाश कुसुम कैसे है ? भोजराज " इसीलिए की वह धरा के सभी फूलो से सुन्दर है , रतनसिंग " बावजी हुकुम ! शाश्त्र अभ्यास से भले ही मैं जी चुराता रहा पर थोड़ी समझ आप के इस सेवक में है, इसी कारण वहाँ खड़े इतने लोगो में किसीका ध्यान इस और नही गया किन्तु मैं उसी क्षण बेचैन हो उठा हूँ । क्या इतना अपदार्थ हूँ की .........। रतनसिंग ने भोजराज की और सजल नेत्रों से देखा । भोजराज ने भाई को बाहों में भर लिया - और रुदे कंठ से बोले ऐसा न कहो ऐसा न कहो भाई !
भोजराज कुछ क्षण के लिए चुप होकर सामने कही दूर जैसे क्षीतिज् में कुछ ढूंडने लगे हो तब ,रतनसिंग ने उनके मुखपर आनेवाली उतार - चढ़ाव का निरिक्षण करते रहे , भोजराज काफी देर बाद बोले क्या करोगे सुन कर आभ आकाश कुसुम का फूल क्यों कहा ? ,
रतनसिंग "यह नही जनता पर फिर भी सुन्ना चाहता हु आकाश कुसुम किसे कहते है ? सुन्दर किन्तु जो अप्राप्य हो। भोजराज बोले बस यही है जो तुम जानना चाहते हो । बावजी हुकुम ! रतनसिंग केवल सम्बोधन करके रह गए ,क्षण भर में अपने को संभल कर रतनसिंग ने पूछा क्यों ? कैसे ?
भोजराज बोले यदि तुम्हे ज्ञात हो जाये की जिसे तुम विवाह कर लाये हो वो पर - स्त्री है तो तुम क्या कहोगे ?
रतनसिंग बोले पर स्त्री पर कैसे ? भाभिसा हो या कोई भी स्त्री । कोई भी विवाहिता नारी पुनः विवाह के लिए कैसे तैयार हो सकती है ? मेरी तो बुध्दि ही काम नही कर रही है , कैसे हुआ ये सब ?
भोजराज "मेड़ते में कुवर कलेवे में हमारे बीच कौन था ? रतनसिंग " ठाकुरजी विराजे थे । अच्छा बावजी हुकुम ! वहाँ ठाकुर जी का क्या कम था ? कैसी परम्परा है इन मेड़तियों के वहाँ ? भोजराज बोले , स्मरण हो तुमको ? तुम ने कहा की ये क्या टोटका है ? तब मेने कहा की बींद तो येही है और मैं टोटका हूँ ,रतनसिंग " हाँ हुकुम ! याद आ गया तो क्या भाभीसा.........।
भोजराज " हा बचपन में किसी की बारातको देखकर उन्होंने अपनी माँ से पूछा की की यह कौन है ? उन्होंने बताया की की नगरसेठ की बेटी का बींद है । तुम्हारी भाभिसा ने जिद्द की , की मेरा बींद कौन है बताओ । बहुत बहलाने पर भी ये न मानी तो उनकी माँ ने कह दिया की ये गिरधर गोपाल तुम्हारे बींद है।
बस उसी दिन वह बात इतनी गहरी बैठ गयी की ठाकुर जी को आना ही पड़ा , रतनसिंग ने आश्चर्य से भर कर पूछा ठाकुर की को आना पड़ा ? भोजराज बोले हाँ अक्षय त्तियाकी पहली रात उनका विवाह ठाकुर जी के साथ हो गया। रतनसिंग बोले आप को कैसे विश्वास आया ऐसी बिना सीर -पैर की बात पर ?
भोजराज बोले यहाँ से गया पडला ज्यो का त्यों रखा है , मैंने दोनों ही पडले देखे है , पर द्वारका के वस्त्राभूषण इतने मूल्यवान है की अनुमान लगाना कठीन है । और अभी तीज की रात को भी ठाकुर जी पधारे थे , रतनसिंग बोले आप ने देखा ठाकुरजी को ? नहीं किन्तु जो कुछ देखा उससे ज्ञात हो रहा था की वहाँ तीसरा कोई और भी है , भोजराज जी की बातो से रतनसिंग को भी विश्वास हो गया की भाभिसा से मिलने ठाकुर जी आते है....
मेरे तो गिरधर गोपाल दुसरो ना कोई
जा के सिर मोर मुकुट मेरो पति सोयी
जय श्री गिरधर गोपाल
Tuesday, 19 March 2013
भगवान भी भक्त की प्रतीक्षा में खड़े रह सकते है
भीष्म पितामाह की अंतिम इच्छा है की जबतक मेरे प्राण है तब तक गोविन्द मेरे सन्मुख खड़ा रहे
और कह दिया की "हे गोविन्द जब तक मेरे प्राण न निकले तब तक आप मेरे सामने यु ही खड़े रहो , और प्राण निकल ने की प्रतीक्षा करो ,
जिनकी प्रतीक्षा में पूरा विश्व खड़ा है पूरा ब्रह्माण्ड जिनकी प्रतीक्षा करता है आज भीष्म पितामाह ने त्रिलोकी के नाथ को अपने प्राणों की प्रतीक्षा में खड़ा कर दिया , की हे गोविन्द यु ही खड़े रहो।
ये बात हर कोई नही कह सकता , भगवान को खड़ा रहने का आदेश कोई ज्ञानी नहीं दे सकता , की खड़े हो जाओ मेरे सामने , योगी नही कह सकता की खड़े रहो मेरे सामने, ये शक्ति तो केवल भक्ति में ही है किसी प्रेमी में ही है ये आदेश तो एक भक्त ही दे सकता है , प्रेमी ही दे सकता है ,
और ठाकुर जी प्रेम की ही भाषा समझते है , और मानते भी है
इसलिए
भगवान कहते है की तुम यदि नाचना चाहते हो तो मेरी माया ले जाओ , खूब नाचोगे , माया नचाती है,और मुझे नचाना चाहते हो, तो मेरी भक्ति ले जाओ मेरा प्रेम ले जाओ , मुझ से प्रेम माग लो , जो मुझ से प्रेम करता है में उसके अधीन हु , जो मुझे अपना प्रेमी मानता हो में उसी क्षण उनके प्रेम के बंदन में बंद जाता हु,
इस लिए मैं भी आप सबसे यही कहूँगी , की
प्रभु से करो प्रेम इतना की किसी और से करने की गुन्जाईस ही न रहे
वो मुस्कुराये तुम्हे देख कर तो जिन्दगी में फिर कुछ पाने की ख्वाहिस ही ना रहे
भगवान श्री कृष्ण को पा ले फिर और कुछ पाना बाकि ही नही रहता
{ जय जय श्री राधे }
भीष्म पितामाह की अंतिम इच्छा है की जबतक मेरे प्राण है तब तक गोविन्द मेरे सन्मुख खड़ा रहे
और कह दिया की "हे गोविन्द जब तक मेरे प्राण न निकले तब तक आप मेरे सामने यु ही खड़े रहो , और प्राण निकल ने की प्रतीक्षा करो ,
जिनकी प्रतीक्षा में पूरा विश्व खड़ा है पूरा ब्रह्माण्ड जिनकी प्रतीक्षा करता है आज भीष्म पितामाह ने त्रिलोकी के नाथ को अपने प्राणों की प्रतीक्षा में खड़ा कर दिया , की हे गोविन्द यु ही खड़े रहो।
ये बात हर कोई नही कह सकता , भगवान को खड़ा रहने का आदेश कोई ज्ञानी नहीं दे सकता , की खड़े हो जाओ मेरे सामने , योगी नही कह सकता की खड़े रहो मेरे सामने, ये शक्ति तो केवल भक्ति में ही है किसी प्रेमी में ही है ये आदेश तो एक भक्त ही दे सकता है , प्रेमी ही दे सकता है ,
और ठाकुर जी प्रेम की ही भाषा समझते है , और मानते भी है
इसलिए
भगवान कहते है की तुम यदि नाचना चाहते हो तो मेरी माया ले जाओ , खूब नाचोगे , माया नचाती है,और मुझे नचाना चाहते हो, तो मेरी भक्ति ले जाओ मेरा प्रेम ले जाओ , मुझ से प्रेम माग लो , जो मुझ से प्रेम करता है में उसके अधीन हु , जो मुझे अपना प्रेमी मानता हो में उसी क्षण उनके प्रेम के बंदन में बंद जाता हु,
इस लिए मैं भी आप सबसे यही कहूँगी , की
प्रभु से करो प्रेम इतना की किसी और से करने की गुन्जाईस ही न रहे
वो मुस्कुराये तुम्हे देख कर तो जिन्दगी में फिर कुछ पाने की ख्वाहिस ही ना रहे
भगवान श्री कृष्ण को पा ले फिर और कुछ पाना बाकि ही नही रहता
{ जय जय श्री राधे }
Monday, 18 March 2013
प्रभु को अपने घर बुलाने की गाँठ लगा कर तो देखिये.....
एक व्यक्ति बालाजी के मंदीर जा कर रोज प्रार्थना करता, की हे बालाजी एक करोड़ रूपये की लोटरी लग जाये ,रोज जाता और रोज प्रार्थना करता, एक दीन बालाजी को बहुत ही गुस्सा आया और प्रकट होकर उस व्यक्ति के गाल पर खीच कर एक चाटा मारा ,"व्यक्ति झनझनाता हुआ बोला मेने तो एक करोड़ रुपयों की लोटरी लग जाये कहा था , चाटा तो नही माँगा ,"बालाजी गुस्से में आकर बोले अरे मुर्ख ! कबसे बोल रहा है लाटरी लग जाये -लाटरी लग जाये ,टिकट तो खरीद इतना तो काम तू भी कर सारे काम में ही करूँगा ,तो तू क्या करेंगा ?.......
ठीक उस व्यक्ति की तरह हमारा भी येही हाल है ,की कुछ किये बिना ही सब मिल जाये,श्रम किये बिना ही सब मनोरथ पुरे हो जाये.... सच कहे तो भगवान को हमने परेसान कर के रख दिया है ,मनोरथ माँग- माँग कर , कभी नारियल कभी सवामणि, कभी फीते की गाँठ बांध कर, की हे भगवान हम गाँठ लगा कर जाते है हमारी मनोकामनाए पूर्ण हो जाये...
सबको सिर्फ अपनी पड़ी है , भगवान से तो किसी को कोई मतलब ही नही है ,सब भगवान से चाहते है , पर भगवान को कोई नहीं चाहता !
क्या कभी किसी ने भगवान को घर बुलाने की गाँठ लगायी है ? की हे प्रभु हम आप के दरबार में गाँठ लगा कर जा रहे है आप को शपत देते है, की आप को हमारे घर आना ही होगा, हमारा चित्त आप के चरणों में लगाना ही होगा ,हम्हे आप से प्रेम हो जाये ऐसा जादू चलाना ही होगा..... ,
सच में हम सब आज दुरियोधन जेसे बन गए है ,कभी अर्जुन जेसे बनकर देखिये , प्रभु को अपने घर बुलाने की गाँठ लगा कर तो देखिये ,इश्वर को ! हर कदम आप अपने साथ पाएंगे....,भगवान कहते है की दुःख और सुख तो जीवन में धुप छाव की तरह है ,पर जो निरंतर मुझे भजता है जो मेरा ही स्मरण करता है ,उसे कभी दुःख , दुखी नहीं करता ,क्यों की दुःख में ,में मेरे भक्त को अपनी गोदी में बैठा लेता हु .......
पांडवो जैसा तो दुःख सायद किसी में नही पड़ा होगा .पर भगवान श्री कृष्ण के साथ रहने के कारण उने दुःख कभी दुखी नहीं कर पाया ,और ना ही कभी पीड़ा महसूस की ....बल्कि सब कुछ होते हुए भी दुखी तो कौरव रहे थे, ये हम सब जानते है
भगवान हमारे कर्म को सुध करते है कर्म तो हम्हे ही करना पड़ेगा , बिना पसीने किये कही एषो आराम नहीं मिलते ....
एक व्यक्ति बालाजी के मंदीर जा कर रोज प्रार्थना करता, की हे बालाजी एक करोड़ रूपये की लोटरी लग जाये ,रोज जाता और रोज प्रार्थना करता, एक दीन बालाजी को बहुत ही गुस्सा आया और प्रकट होकर उस व्यक्ति के गाल पर खीच कर एक चाटा मारा ,"व्यक्ति झनझनाता हुआ बोला मेने तो एक करोड़ रुपयों की लोटरी लग जाये कहा था , चाटा तो नही माँगा ,"बालाजी गुस्से में आकर बोले अरे मुर्ख ! कबसे बोल रहा है लाटरी लग जाये -लाटरी लग जाये ,टिकट तो खरीद इतना तो काम तू भी कर सारे काम में ही करूँगा ,तो तू क्या करेंगा ?.......
ठीक उस व्यक्ति की तरह हमारा भी येही हाल है ,की कुछ किये बिना ही सब मिल जाये,श्रम किये बिना ही सब मनोरथ पुरे हो जाये.... सच कहे तो भगवान को हमने परेसान कर के रख दिया है ,मनोरथ माँग- माँग कर , कभी नारियल कभी सवामणि, कभी फीते की गाँठ बांध कर, की हे भगवान हम गाँठ लगा कर जाते है हमारी मनोकामनाए पूर्ण हो जाये...
सबको सिर्फ अपनी पड़ी है , भगवान से तो किसी को कोई मतलब ही नही है ,सब भगवान से चाहते है , पर भगवान को कोई नहीं चाहता !
क्या कभी किसी ने भगवान को घर बुलाने की गाँठ लगायी है ? की हे प्रभु हम आप के दरबार में गाँठ लगा कर जा रहे है आप को शपत देते है, की आप को हमारे घर आना ही होगा, हमारा चित्त आप के चरणों में लगाना ही होगा ,हम्हे आप से प्रेम हो जाये ऐसा जादू चलाना ही होगा..... ,
सच में हम सब आज दुरियोधन जेसे बन गए है ,कभी अर्जुन जेसे बनकर देखिये , प्रभु को अपने घर बुलाने की गाँठ लगा कर तो देखिये ,इश्वर को ! हर कदम आप अपने साथ पाएंगे....,भगवान कहते है की दुःख और सुख तो जीवन में धुप छाव की तरह है ,पर जो निरंतर मुझे भजता है जो मेरा ही स्मरण करता है ,उसे कभी दुःख , दुखी नहीं करता ,क्यों की दुःख में ,में मेरे भक्त को अपनी गोदी में बैठा लेता हु .......
पांडवो जैसा तो दुःख सायद किसी में नही पड़ा होगा .पर भगवान श्री कृष्ण के साथ रहने के कारण उने दुःख कभी दुखी नहीं कर पाया ,और ना ही कभी पीड़ा महसूस की ....बल्कि सब कुछ होते हुए भी दुखी तो कौरव रहे थे, ये हम सब जानते है
भगवान हमारे कर्म को सुध करते है कर्म तो हम्हे ही करना पड़ेगा , बिना पसीने किये कही एषो आराम नहीं मिलते ....
श्याम विरह
ओ सुन राधिका दुलारी मैं हु द्वारकी भिकारी
तेरे श्याम की पुजारी एक पीड़ा है हमारी
हमें श्याम ना मिला.. २
हम समझी थी कान्हा कही कुंजन में होगा
अभी तो मिलन का हमने सुख नही भोगा
सुनके प्रेम की परिभाषा , मन में मंदी थी जो आशा
आशा भाई रे निराशा , झूटी दे गया दिलाशा
हमें श्याम ना मिला.. २
देता है कन्हाई जिसे प्रेम की दिशा
सभ बिधि उसकी लेता है भी परीक्षा
कभी निकट बुलाये , कभी दूरिया बडाये
कभी हसाए - रुलाये , छलिय हाथ नहीं आये
हमें श्याम ना मिला.. २
अपना जिसे यहाँ कहे सब कोई
उसके लिए में दिन रात रोई
नेहा दुनिया से तोड़ा , नाता सावरे से जोड़ा
उसने ऐसा मुख मोड़ा , हमे कही का ना छोड़ा
हमें श्याम ना मिला.. २
ओ सुन राधिका दुलारी , मैं हु द्वारकी भिकारी
तेरे श्याम की पुजारी , एक पीड़ा है हमारी
हमें श्याम ना मिला ।।
हमें श्याम ना मिला।।
{ जय जय श्री राधे }
ओ सुन राधिका दुलारी मैं हु द्वारकी भिकारी
तेरे श्याम की पुजारी एक पीड़ा है हमारी
हमें श्याम ना मिला.. २
हम समझी थी कान्हा कही कुंजन में होगा
अभी तो मिलन का हमने सुख नही भोगा
सुनके प्रेम की परिभाषा , मन में मंदी थी जो आशा
आशा भाई रे निराशा , झूटी दे गया दिलाशा
हमें श्याम ना मिला.. २
देता है कन्हाई जिसे प्रेम की दिशा
सभ बिधि उसकी लेता है भी परीक्षा
कभी निकट बुलाये , कभी दूरिया बडाये
कभी हसाए - रुलाये , छलिय हाथ नहीं आये
हमें श्याम ना मिला.. २
अपना जिसे यहाँ कहे सब कोई
उसके लिए में दिन रात रोई
नेहा दुनिया से तोड़ा , नाता सावरे से जोड़ा
उसने ऐसा मुख मोड़ा , हमे कही का ना छोड़ा
हमें श्याम ना मिला.. २
ओ सुन राधिका दुलारी , मैं हु द्वारकी भिकारी
तेरे श्याम की पुजारी , एक पीड़ा है हमारी
हमें श्याम ना मिला ।।
हमें श्याम ना मिला।।
{ जय जय श्री राधे }
Saturday, 9 March 2013
मनसे ही बंदन है , मन से ही मुक्ति
दुःख का कारण एक ही है ऐसा होना चाहिए , ऐसा नही होना चाहिए , कोई वस्तु हमको मिल जाये तो हम सुखी हो जाते है और वोही वस्तु छीन ली जाये तो दुखी हो जाते है...
एक व्यक्ति बड़ा गरीब था वो एक दिन लोटरी का टिकट खरिद ले आया और मन में सोचा की सायद कोई किस्मत चमक जाये , अगले दिन अखबार आया अखबार में विज्ञापन निकला विज्ञापन में दिए हुए लोटरी के नम्बरों से अपने नम्बरों से मिलान किया तो देखा की उनकी एक करोड़ की लोटरी लग गयी है
एक करोड़ की लोटरी लग गयी ये सोच कर व्यक्ति खुसी के मारे पागल हो गया पैर जमीन पर नही टिक रहे है सारे घरमे पागलो की तरह घूम रहा है सब आस पास, पड़ोसी को ,अपने सगे सम्बदियो , सबको बता रहा की मैं एक करोड़ रुपये जीत गया , सबको खूब खिलाया पिलाया खुसी के मरे पागल सा हो गया।
जब रात को सोने गया तो खुसी के मारे नींद नही आ रही है व् पागलो सा करवट बदलने लगा। मनमे विचार करने लगा एक करोड़ का क्या करूँगा ? अब सोता सोता सोचने लगा इतने लाख का सुन्दर मकान बनाऊंगा, इतने लाख की गाड़ी खरीद दूंगा , इतने लाख की बच्चो के नाम ऍफ़ डी करके जाऊंगा , रात भर सो नही पाया पागलसी हालत हो गयी
अगले दिन फिर से अखबार आया फिर विज्ञापन निकला और पढ़ा। लिखा हुआ था की भूल का थोडा सुधार किया जाये कल जो नंबर छपा था उसमे अंतिम जो नंबर था उनको तीन की जगह सात पढ़ा जाये ,
अब तो अखबार ले कर अपने सीर पर उठा उठा के मार ने लगा पागल हो गया की ये क्या हुआ ?
सर पकड कर बैठ गया पागलो सी हालत बना दी खाना पीना छोड़ दिया । आज फिर पागल सा हो गया फर्क इतना है की कल ख़ुशी में पागल हुआ था , आज गम में पागल है......। कुछ बदला नही था विज्ञापन कल भी छपा था विज्ञापन आज भी छपा है ,सवेरा कलभी हुआ था .सवेरा आज भी हुआ है , अखबार कल भी आया था ,अखबार आज भी आया है
ये मन ही है जो बार बार कभी दुखी करता है , कभी सुखी......
इस लिए किसी संत ने ठीक ही कहा है की ,
मनके हारे हार है मनके जीते जीत ,
मन ही मिलाए राम से मनही करे फजीत
मनसे ही बंदन है , मन से ही मुक्ति
{ जय जय श्री राधे }
दुःख का कारण एक ही है ऐसा होना चाहिए , ऐसा नही होना चाहिए , कोई वस्तु हमको मिल जाये तो हम सुखी हो जाते है और वोही वस्तु छीन ली जाये तो दुखी हो जाते है...
एक व्यक्ति बड़ा गरीब था वो एक दिन लोटरी का टिकट खरिद ले आया और मन में सोचा की सायद कोई किस्मत चमक जाये , अगले दिन अखबार आया अखबार में विज्ञापन निकला विज्ञापन में दिए हुए लोटरी के नम्बरों से अपने नम्बरों से मिलान किया तो देखा की उनकी एक करोड़ की लोटरी लग गयी है
एक करोड़ की लोटरी लग गयी ये सोच कर व्यक्ति खुसी के मारे पागल हो गया पैर जमीन पर नही टिक रहे है सारे घरमे पागलो की तरह घूम रहा है सब आस पास, पड़ोसी को ,अपने सगे सम्बदियो , सबको बता रहा की मैं एक करोड़ रुपये जीत गया , सबको खूब खिलाया पिलाया खुसी के मरे पागल सा हो गया।
जब रात को सोने गया तो खुसी के मारे नींद नही आ रही है व् पागलो सा करवट बदलने लगा। मनमे विचार करने लगा एक करोड़ का क्या करूँगा ? अब सोता सोता सोचने लगा इतने लाख का सुन्दर मकान बनाऊंगा, इतने लाख की गाड़ी खरीद दूंगा , इतने लाख की बच्चो के नाम ऍफ़ डी करके जाऊंगा , रात भर सो नही पाया पागलसी हालत हो गयी
अगले दिन फिर से अखबार आया फिर विज्ञापन निकला और पढ़ा। लिखा हुआ था की भूल का थोडा सुधार किया जाये कल जो नंबर छपा था उसमे अंतिम जो नंबर था उनको तीन की जगह सात पढ़ा जाये ,
अब तो अखबार ले कर अपने सीर पर उठा उठा के मार ने लगा पागल हो गया की ये क्या हुआ ?
सर पकड कर बैठ गया पागलो सी हालत बना दी खाना पीना छोड़ दिया । आज फिर पागल सा हो गया फर्क इतना है की कल ख़ुशी में पागल हुआ था , आज गम में पागल है......। कुछ बदला नही था विज्ञापन कल भी छपा था विज्ञापन आज भी छपा है ,सवेरा कलभी हुआ था .सवेरा आज भी हुआ है , अखबार कल भी आया था ,अखबार आज भी आया है
ये मन ही है जो बार बार कभी दुखी करता है , कभी सुखी......
इस लिए किसी संत ने ठीक ही कहा है की ,
मनके हारे हार है मनके जीते जीत ,
मन ही मिलाए राम से मनही करे फजीत
मनसे ही बंदन है , मन से ही मुक्ति
{ जय जय श्री राधे }
Thursday, 7 March 2013
शिवजी की विचित्र बारात
पार्वतीजी की बारात देख ,कापते हुए शरीर से बच्चे बोले क्या कहें, कोई बात कही नहीं जाती। यह बारात है या यमराज की सेना? दूल्हा पागल है और बैल पर सवार है.....
बारात की तईयारी
शिवजी के गण शिवजी का श्रृंगार करने लगे। जटाओं का मुकुट बनाकर उस पर साँपों का मौर सजाया गया। शिवजी ने साँपों के ही कुंडल और कंकण पहने, शरीर पर विभूति रमायी और वस्त्र की जगह बाघम्बर लपेट लिया
शिवजी के सुंदर मस्तक पर चन्द्रमा, सिर पर गंगाजी, तीन नेत्र, साँपों का जनेऊ, गले में विष और छाती पर नरमुण्डों की माला थी। इस प्रकार उनका वेष अशुभ होने पर भी वे कल्याण के धाम और कृपालु हैं
-एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे में डमरू सुशोभित है। शिवजी बैल पर चढ़कर चले। बाजे बज रहे हैं। शिवजी को देखकर देवांगनाएँ मुस्कुरा रही हैं (और कहती हैं कि) इस वर के योग्य दुलहिन संसार में नहीं मिलेगी
विष्णु और ब्रह्मा आदि देवताओं के समूह अपने-अपने वाहनों (सवारियों) पर चढ़कर बारात में चले। देवताओं का समाज सब प्रकार से अनुपम (परम सुंदर) था, पर दूल्हे के योग्य बारात न थी ,तब विष्णु भगवान ने सब दिक्पालों को बुलाकर हँसकर ऐसा कहा- सब लोग अपने-अपने दल समेत अलग-अलग होकर चलो
-हे भाई! हम लोगों की यह बारात वर के योग्य नहीं है। क्या पराए नगर में जाकर हँसी कराओगे? विष्णु भगवान की बात सुनकर देवता मुस्कुराए और वे अपनी-अपनी सेना सहित अलग हो गए
महादेवजी (यह देखकर) मन-ही-मन मुस्कुराते हैं कि विष्णु भगवान के व्यंग्य-वचन (दिल्लगी) नहीं छूटते! अपने प्यारे (विष्णु भगवान) के इन अति प्रिय वचनों को सुनकर शिवजी ने भी भृंगी को भेजकर अपने सब गणों को बुलवा लिया
शिवजी की आज्ञा सुनते ही सब चले आए और उन्होंने स्वामी के चरण कमलों में सिर नवाया। तरह-तरह की सवारियों और तरह-तरह के वेष वाले अपने समाज को देखकर शिवजी हँसे
कोई बिना मुख का है, किसी के बहुत से मुख हैं, कोई बिना हाथ-पैर का है तो किसी के कई हाथ-पैर हैं। किसी के बहुत आँखें हैं तो किसी के एक भी आँख नहीं है। कोई बहुत मोटा-ताजा है, तो कोई बहुत ही दुबला-पतला है
कोई बहुत दुबला, कोई बहुत मोटा, कोई पवित्र और कोई अपवित्र वेष धारण किए हुए है। भयंकर गहने पहने हाथ में कपाल लिए हैं और सब के सब शरीर में ताजा खून लपेटे हुए हैं। गधे, कुत्ते, सूअर और सियार के से उनके मुख हैं। गणों के अनगिनत वेषों को कौन गिने? बहुत प्रकार के प्रेत, पिशाच और योगिनियों की जमाते हैं। उनका वर्णन करते नहीं बनता।
भूत-प्रेत नाचते और गाते हैं, वे सब बड़े मौजी हैं। देखने में बहुत ही बेढंगे जान पड़ते हैं और बड़े ही विचित्र ढंग से बोलते हैं
जैसा दूल्हा है, अब वैसी ही बारात बन गई है। मार्ग में चलते हुए भाँति-भाँति के कौतुक (तमाशे) होते जाते हैं। इधर हिमाचल ने ऐसा विचित्र मण्डप बनाया कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता
बारात को नगर के निकट आई सुनकर नगर में चहल-पहल मच गई, जिससे उसकी शोभा बढ़ गई। अगवानी करने वाले लोग बनाव-श्रृंगार करके तथा नाना प्रकार की सवारियों को सजाकर आदर सहित बारात को लेने चले
देवताओं के समाज को देखकर सब मन में प्रसन्न हुए और विष्णु भगवान को देखकर तो बहुत ही सुखी हुए, किन्तु जब शिवजी के दल को देखने लगे तब तो उनके सब वाहन (सवारियों के हाथी, घोड़े, रथ के बैल आदि) डरकर भाग चले
कुछ बड़ी उम्र के समझदार लोग धीरज धरकर वहाँ डटे रहे। लड़के तो सब अपने प्राण लेकर भागे। घर पहुँचने पर जब माता-पिता पूछते हैं, तब वे भय से काँपते हुए शरीर से ऐसा वचन कहते हैं
क्या कहें, कोई बात कही नहीं जाती। यह बारात है या यमराज की सेना? दूल्हा पागल है और बैल पर सवार है। साँप, कपाल और राख ही उसके गहने हैं
दूल्हे के शरीर पर राख लगी है, साँप और कपाल के गहने हैं, वह नंगा, जटाधारी और भयंकर है। उसके साथ भयानक मुखवाले भूत, प्रेत, पिशाच, योगिनियाँ और राक्षस हैं, जो बारात को देखकर जीता बचेगा, सचमुच उसके बड़े ही पुण्य हैं और वही पार्वती का विवाह देखेगा। लड़कों ने घर-घर यही बात कही
महेश्वर (शिवजी) का समाज समझकर सब लड़कों के माता-पिता मुस्कुराते हैं। उन्होंने बहुत तरह से लड़कों को समझाया कि निडर हो जाओ, डर की कोई बात नहीं है
पारवती की माता मैना हर्ष के साथ शिवजी का परछन करने चलीं। जब महादेवजी को भयानक वेष में देखा तब तो स्त्रियों के मन में बड़ा भारी भय उत्पन्न हो गया , बहुत ही डर के मारे भागकर वे घर में घुस गईं और शिवजी जहाँ जनवासा था, वहाँ चले गए। मैना के हृदय में बड़ा दुःख हुआ, उन्होंने पार्वतीजी को अपने पास बुला लिया
और अत्यन्त स्नेह से गोद में बैठाकर अपने नीलकमल के समान नेत्रों में आँसू भरकर कहा- जिस विधाता ने तुमको ऐसा सुंदर रूप दिया, उस मूर्ख ने तुम्हारे दूल्हे को बावला कैसे बनाया व् विधाता को अन्य प्रकार से कोसने लगी
माता को विकल देखकर पार्वतीजी विवेकयुक्त कोमल वाणी बोलीं- हे माता! जो विधाता रच देते हैं, वह टलता नहीं, ऐसा विचार कर तुम सोच मत करो
वहा पर नारद जी भी पधारते है तब नारदजी ने पूर्वजन्म की कथा सुनाकर कहा की आप की पुत्री जन्म - जन्म से इन्ही अजन्मा, अनादि और अविनाशिनी शिवजी की अर्धांग्नी बनती आई है | पिछले जन्म में ये सती के नाम से जानी जाती थी जो सती ने दक्ष के घर पुत्री के रूप में जन्म लिया था जो अपने पिता के यहाँ यग्य में अपने पति का भाग न देख कर , पिता के द्वारा अपने श्यामी को अपमानि देख इस ने अपने प्राणों की आहुति दे दी। नारद जी ने सबको समझाया (और कहा) कि हे मैना! तुम मेरी सच्ची बात सुनो, तुम्हारी यह लड़की साक्षात जगज्जनी भवानी है एव तुम्हारी लड़की का दूल्हा ये अजन्मा, अनादि और अविनाशिनी शिव जी देवो के भी देव महा देव हैं
तब पार्वती जी की माँ मैना और पिता हिमवान आनंद में मग्न हो गए और उन्होंने बार-बार पार्वती के चरणों की वंदना की। स्त्री, पुरुष, बालक, युवा और वृद्ध नगर के सभी लोग बहुत प्रसन्न हुए।।
ॐ नमः शिवाय , ॐ नमः शिवाय
पार्वतीजी की बारात देख ,कापते हुए शरीर से बच्चे बोले क्या कहें, कोई बात कही नहीं जाती। यह बारात है या यमराज की सेना? दूल्हा पागल है और बैल पर सवार है.....
बारात की तईयारी
शिवजी के गण शिवजी का श्रृंगार करने लगे। जटाओं का मुकुट बनाकर उस पर साँपों का मौर सजाया गया। शिवजी ने साँपों के ही कुंडल और कंकण पहने, शरीर पर विभूति रमायी और वस्त्र की जगह बाघम्बर लपेट लिया
शिवजी के सुंदर मस्तक पर चन्द्रमा, सिर पर गंगाजी, तीन नेत्र, साँपों का जनेऊ, गले में विष और छाती पर नरमुण्डों की माला थी। इस प्रकार उनका वेष अशुभ होने पर भी वे कल्याण के धाम और कृपालु हैं
-एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे में डमरू सुशोभित है। शिवजी बैल पर चढ़कर चले। बाजे बज रहे हैं। शिवजी को देखकर देवांगनाएँ मुस्कुरा रही हैं (और कहती हैं कि) इस वर के योग्य दुलहिन संसार में नहीं मिलेगी
विष्णु और ब्रह्मा आदि देवताओं के समूह अपने-अपने वाहनों (सवारियों) पर चढ़कर बारात में चले। देवताओं का समाज सब प्रकार से अनुपम (परम सुंदर) था, पर दूल्हे के योग्य बारात न थी ,तब विष्णु भगवान ने सब दिक्पालों को बुलाकर हँसकर ऐसा कहा- सब लोग अपने-अपने दल समेत अलग-अलग होकर चलो
-हे भाई! हम लोगों की यह बारात वर के योग्य नहीं है। क्या पराए नगर में जाकर हँसी कराओगे? विष्णु भगवान की बात सुनकर देवता मुस्कुराए और वे अपनी-अपनी सेना सहित अलग हो गए
महादेवजी (यह देखकर) मन-ही-मन मुस्कुराते हैं कि विष्णु भगवान के व्यंग्य-वचन (दिल्लगी) नहीं छूटते! अपने प्यारे (विष्णु भगवान) के इन अति प्रिय वचनों को सुनकर शिवजी ने भी भृंगी को भेजकर अपने सब गणों को बुलवा लिया
शिवजी की आज्ञा सुनते ही सब चले आए और उन्होंने स्वामी के चरण कमलों में सिर नवाया। तरह-तरह की सवारियों और तरह-तरह के वेष वाले अपने समाज को देखकर शिवजी हँसे
कोई बिना मुख का है, किसी के बहुत से मुख हैं, कोई बिना हाथ-पैर का है तो किसी के कई हाथ-पैर हैं। किसी के बहुत आँखें हैं तो किसी के एक भी आँख नहीं है। कोई बहुत मोटा-ताजा है, तो कोई बहुत ही दुबला-पतला है
कोई बहुत दुबला, कोई बहुत मोटा, कोई पवित्र और कोई अपवित्र वेष धारण किए हुए है। भयंकर गहने पहने हाथ में कपाल लिए हैं और सब के सब शरीर में ताजा खून लपेटे हुए हैं। गधे, कुत्ते, सूअर और सियार के से उनके मुख हैं। गणों के अनगिनत वेषों को कौन गिने? बहुत प्रकार के प्रेत, पिशाच और योगिनियों की जमाते हैं। उनका वर्णन करते नहीं बनता।
भूत-प्रेत नाचते और गाते हैं, वे सब बड़े मौजी हैं। देखने में बहुत ही बेढंगे जान पड़ते हैं और बड़े ही विचित्र ढंग से बोलते हैं
जैसा दूल्हा है, अब वैसी ही बारात बन गई है। मार्ग में चलते हुए भाँति-भाँति के कौतुक (तमाशे) होते जाते हैं। इधर हिमाचल ने ऐसा विचित्र मण्डप बनाया कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता
बारात को नगर के निकट आई सुनकर नगर में चहल-पहल मच गई, जिससे उसकी शोभा बढ़ गई। अगवानी करने वाले लोग बनाव-श्रृंगार करके तथा नाना प्रकार की सवारियों को सजाकर आदर सहित बारात को लेने चले
देवताओं के समाज को देखकर सब मन में प्रसन्न हुए और विष्णु भगवान को देखकर तो बहुत ही सुखी हुए, किन्तु जब शिवजी के दल को देखने लगे तब तो उनके सब वाहन (सवारियों के हाथी, घोड़े, रथ के बैल आदि) डरकर भाग चले
कुछ बड़ी उम्र के समझदार लोग धीरज धरकर वहाँ डटे रहे। लड़के तो सब अपने प्राण लेकर भागे। घर पहुँचने पर जब माता-पिता पूछते हैं, तब वे भय से काँपते हुए शरीर से ऐसा वचन कहते हैं
क्या कहें, कोई बात कही नहीं जाती। यह बारात है या यमराज की सेना? दूल्हा पागल है और बैल पर सवार है। साँप, कपाल और राख ही उसके गहने हैं
दूल्हे के शरीर पर राख लगी है, साँप और कपाल के गहने हैं, वह नंगा, जटाधारी और भयंकर है। उसके साथ भयानक मुखवाले भूत, प्रेत, पिशाच, योगिनियाँ और राक्षस हैं, जो बारात को देखकर जीता बचेगा, सचमुच उसके बड़े ही पुण्य हैं और वही पार्वती का विवाह देखेगा। लड़कों ने घर-घर यही बात कही
महेश्वर (शिवजी) का समाज समझकर सब लड़कों के माता-पिता मुस्कुराते हैं। उन्होंने बहुत तरह से लड़कों को समझाया कि निडर हो जाओ, डर की कोई बात नहीं है
पारवती की माता मैना हर्ष के साथ शिवजी का परछन करने चलीं। जब महादेवजी को भयानक वेष में देखा तब तो स्त्रियों के मन में बड़ा भारी भय उत्पन्न हो गया , बहुत ही डर के मारे भागकर वे घर में घुस गईं और शिवजी जहाँ जनवासा था, वहाँ चले गए। मैना के हृदय में बड़ा दुःख हुआ, उन्होंने पार्वतीजी को अपने पास बुला लिया
और अत्यन्त स्नेह से गोद में बैठाकर अपने नीलकमल के समान नेत्रों में आँसू भरकर कहा- जिस विधाता ने तुमको ऐसा सुंदर रूप दिया, उस मूर्ख ने तुम्हारे दूल्हे को बावला कैसे बनाया व् विधाता को अन्य प्रकार से कोसने लगी
माता को विकल देखकर पार्वतीजी विवेकयुक्त कोमल वाणी बोलीं- हे माता! जो विधाता रच देते हैं, वह टलता नहीं, ऐसा विचार कर तुम सोच मत करो
वहा पर नारद जी भी पधारते है तब नारदजी ने पूर्वजन्म की कथा सुनाकर कहा की आप की पुत्री जन्म - जन्म से इन्ही अजन्मा, अनादि और अविनाशिनी शिवजी की अर्धांग्नी बनती आई है | पिछले जन्म में ये सती के नाम से जानी जाती थी जो सती ने दक्ष के घर पुत्री के रूप में जन्म लिया था जो अपने पिता के यहाँ यग्य में अपने पति का भाग न देख कर , पिता के द्वारा अपने श्यामी को अपमानि देख इस ने अपने प्राणों की आहुति दे दी। नारद जी ने सबको समझाया (और कहा) कि हे मैना! तुम मेरी सच्ची बात सुनो, तुम्हारी यह लड़की साक्षात जगज्जनी भवानी है एव तुम्हारी लड़की का दूल्हा ये अजन्मा, अनादि और अविनाशिनी शिव जी देवो के भी देव महा देव हैं
तब पार्वती जी की माँ मैना और पिता हिमवान आनंद में मग्न हो गए और उन्होंने बार-बार पार्वती के चरणों की वंदना की। स्त्री, पुरुष, बालक, युवा और वृद्ध नगर के सभी लोग बहुत प्रसन्न हुए।।
ॐ नमः शिवाय , ॐ नमः शिवाय
Tuesday, 5 March 2013
Saturday, 2 March 2013
मीराबाई ने भोजराजजी से कहा की आईये इनसे मिलिए ये है द्वारीकाधीश! मेरे पति.......!
सावन की तीज आई मीरा झूले पर बैठ अपने गिरधर गोपाल को याद कर रही है ( हिंडो डालियों कदम की दाल माने झोटा दे नन्द लाल ) । मीरा झूले से निचे उतरी स्त्रियाँ ने घेर कर मीरा से पति का नाम पुछा मीरा खिल खिलाती हुए आवाज में बोली -
राजा है नन्द रायजी जांको गोकुल गाँव ।
जमुना तट रो बास है गिरधर प्यारो नाम ।।
सखिया ने कहा- " बाईसा हुकुम हम तो कुवरसा का नाम पूछ रही है "।
मीरा ने बात को अनसुनी सी कर अपने श्याम कुञ्ज में आकर अपने प्राणाधार के सम्मुख आ कर बैठ गयी । जैसे ही तानपूरा के लिए हाथ बताया पपयिया बोल उठा। ह्रदय में जैसे दामिनी लहरा गयी हो और भजन गाने लगी ।
भजन पूरा होते ही मीराने आँखे खोली देखा की सन्मुख श्यामसुन्दर बैठे है। उनकी ओर देखते हुए मंद मंद मुस्का रहे है। वह हर्ष से बावली हो उठी। मीरा की पलके स्थिर हो गयी। कुछ क्षण देह जैसे सुन्न हो गयी।
फिर हाथ बढ़ा कर चरण पर रखा ये जानने के लिए की कही ये स्वप्न तो नही है? वह स्पर्श, वह स्पर्श, वह स्पर्श, वह भूल गयी जगत। पिंडलियों तक चरणों को बाँहों में बांध कर उसने घुटनों पर सीर रख दिया। गोविन्द की उंगलियाँ मीरा के केशो में घूम ने लगी।
दासी ने प्रवेश करते हुए कहा - "बाईसा हुकुम ! ?" ।
मीरा को अटपटी अवस्था में देख ठिठक गयी।
मीराने नेत्र ऊँचे करके दासी की और देखा और बोली - " मंगला आज प्रभु पधारे है। जीमण भोजन की तैयारी कर। मिथिला से कह की यही पलंग बिछादे चौसर भी यही ले आ। आज मैं यही सोऊँगी तू महाराज कुवर को निवेदन कर आ "।
मीरा की हर्ष विह्वल दसा देख दासी प्रस्सन भी हुई और चकित भी।
दासी भोजराज के पास गयी। वह हाथ जोड़ कर विनम्रता से बोली की आज बाईसा हुकुम मंदिर में ही पौढेगी।
भोजराज बोले - "क्यों ?"
दासी बोली - "प्रभु पधारे है।"
भोजराज भी गिरधर गोपाल के कक्ष की ओर मुड़ गए। वहाँ जा कर जो देखा मीरा की प्रेम विह्वल दशा, वह जैसे बार-बार किसी को चूम रही हो आखोंमे हर्षके आसूँ रोम-रोम पुलकित। होठो पर हँसी खिली पड़ती थी। वह बीच-बीच
मे वाष्परुद्धे कंठ से टूटे सब्दो से कह रही थी - " बड़ी कृपा की। बड़ी.... कृपा......जुग बीत..... गए...... आँखे पथरा गयी.......थी अब ...... न जाना ..... अ...ब.... न ।"
भोजराज जी आचार्य से देख रहे की मीरा के हाथ किसीकी देह पर घूम रहे है ? और लगा जैसे लाज से मुह छिपा रही हो।
" यह क्या है ? क्या हो रहा है ? कौन है यहाँ ? मुझे क्यों नही दिखाई देता ?" भोजराजजी सोच रहे थे की मीरा की द्रष्टि उन पर पड़ी बोली - " पधारिये महाराज कुवर ! देखिये मेरे स्वामी पधारे है। आईये इनसे मिलिए ये है द्वारीकाधीश! मेरे पति ।"
और भोजराज जी का परिचय देते हुए कहा की ये है चितौड़के महाराज कुमार युवराज भोजराज मेरे सखा।
फिर भोजराज से मीरा पूछ बैठी - " कहिये कैसे लगे आप को मेरे धणी ? "
भोजराज बोले - " मुझे तो कोई दिखाई नही दे रहा है। क्या आप सच फरमा रही है की प्रभु पधारे है ?"
मीरा खिलखीलाकर हँस पड़ी। अपने प्रियतम से बोली - " आप सुन रहे है प्रियतम। महाराज कुवर क्या फरमा रहे है ?"
गिरधर गोपाल ने मीरा से कहा की महाराज कुवर से कहो की आप को दर्शन होने में अभी समय है।
मीराने कहा की आप को दर्शन होने में समय है।
भोजराज असमझ में कुछ क्षण रहे, फिर अपने सयनकक्ष में चले गए।
मीरा व् गिरधर गोपाल के जिमण भोजन की तैयारी हुई। स्वर्ण के बाजोठ पर सोने के बड़े थाल में विविध भोजन सामग्रियाँ प्रचुर मात्र में परोसी गयी। यो भी प्रथा है की स्वामी का थाल भरा ही रहना चाहिए इसलिए भरे हुए थाल में भी बारम्बार परोसा जाता रहा। दासिया जानती थी की हमे नित्य अपनी स्वामिनी का प्रसाद ही मिलता है पर आज तो जगतके स्वामी का प्रसाद भी मिलेगा अतः थाल खली न होने पाए।
मीरा ने प्रथम कौर अपने हाथोसे दिया और द्वारिकानाथ के हाथो से स्वय लिया । दूसरा देने पर प्रभु ने कहा - " खाओ न! "
मीरा बोली " एक कौर तो शत्रुको दिया जाता है, प्रिय !'
आज मीरा की प्रसन्नता की सीमा नहीं है। आज जीवन का चरम फल प्राप्त हुआ है। आज मीरा के भव -भाव के भरतार पधारे है और सबसे बड़ी बात यह है की प्रभु रंगीले राजपूत के वेशमे है। केशरिया सफा, केसरिया अंगरखा, लाल किनारिकी केसरिया धोती और वैसा ही दुपट्टा। शिरोभुषण में लगा मोर पंख कानोमे हीरे के कुंडल, गले के कंठे में जड़ा पद्मराग..... इतना सुन्दर श्रंगार है श्यामसुन्दर का की नजर न ठहरे....
( जय श्री राधे कृष्ण )
सावन की तीज आई मीरा झूले पर बैठ अपने गिरधर गोपाल को याद कर रही है ( हिंडो डालियों कदम की दाल माने झोटा दे नन्द लाल ) । मीरा झूले से निचे उतरी स्त्रियाँ ने घेर कर मीरा से पति का नाम पुछा मीरा खिल खिलाती हुए आवाज में बोली -
राजा है नन्द रायजी जांको गोकुल गाँव ।
जमुना तट रो बास है गिरधर प्यारो नाम ।।
सखिया ने कहा- " बाईसा हुकुम हम तो कुवरसा का नाम पूछ रही है "।
मीरा ने बात को अनसुनी सी कर अपने श्याम कुञ्ज में आकर अपने प्राणाधार के सम्मुख आ कर बैठ गयी । जैसे ही तानपूरा के लिए हाथ बताया पपयिया बोल उठा। ह्रदय में जैसे दामिनी लहरा गयी हो और भजन गाने लगी ।
भजन पूरा होते ही मीराने आँखे खोली देखा की सन्मुख श्यामसुन्दर बैठे है। उनकी ओर देखते हुए मंद मंद मुस्का रहे है। वह हर्ष से बावली हो उठी। मीरा की पलके स्थिर हो गयी। कुछ क्षण देह जैसे सुन्न हो गयी।
फिर हाथ बढ़ा कर चरण पर रखा ये जानने के लिए की कही ये स्वप्न तो नही है? वह स्पर्श, वह स्पर्श, वह स्पर्श, वह भूल गयी जगत। पिंडलियों तक चरणों को बाँहों में बांध कर उसने घुटनों पर सीर रख दिया। गोविन्द की उंगलियाँ मीरा के केशो में घूम ने लगी।
दासी ने प्रवेश करते हुए कहा - "बाईसा हुकुम ! ?" ।
मीरा को अटपटी अवस्था में देख ठिठक गयी।
मीराने नेत्र ऊँचे करके दासी की और देखा और बोली - " मंगला आज प्रभु पधारे है। जीमण भोजन की तैयारी कर। मिथिला से कह की यही पलंग बिछादे चौसर भी यही ले आ। आज मैं यही सोऊँगी तू महाराज कुवर को निवेदन कर आ "।
मीरा की हर्ष विह्वल दसा देख दासी प्रस्सन भी हुई और चकित भी।
दासी भोजराज के पास गयी। वह हाथ जोड़ कर विनम्रता से बोली की आज बाईसा हुकुम मंदिर में ही पौढेगी।
भोजराज बोले - "क्यों ?"
दासी बोली - "प्रभु पधारे है।"
भोजराज भी गिरधर गोपाल के कक्ष की ओर मुड़ गए। वहाँ जा कर जो देखा मीरा की प्रेम विह्वल दशा, वह जैसे बार-बार किसी को चूम रही हो आखोंमे हर्षके आसूँ रोम-रोम पुलकित। होठो पर हँसी खिली पड़ती थी। वह बीच-बीच
मे वाष्परुद्धे कंठ से टूटे सब्दो से कह रही थी - " बड़ी कृपा की। बड़ी.... कृपा......जुग बीत..... गए...... आँखे पथरा गयी.......थी अब ...... न जाना ..... अ...ब.... न ।"
भोजराज जी आचार्य से देख रहे की मीरा के हाथ किसीकी देह पर घूम रहे है ? और लगा जैसे लाज से मुह छिपा रही हो।
" यह क्या है ? क्या हो रहा है ? कौन है यहाँ ? मुझे क्यों नही दिखाई देता ?" भोजराजजी सोच रहे थे की मीरा की द्रष्टि उन पर पड़ी बोली - " पधारिये महाराज कुवर ! देखिये मेरे स्वामी पधारे है। आईये इनसे मिलिए ये है द्वारीकाधीश! मेरे पति ।"
और भोजराज जी का परिचय देते हुए कहा की ये है चितौड़के महाराज कुमार युवराज भोजराज मेरे सखा।
फिर भोजराज से मीरा पूछ बैठी - " कहिये कैसे लगे आप को मेरे धणी ? "
भोजराज बोले - " मुझे तो कोई दिखाई नही दे रहा है। क्या आप सच फरमा रही है की प्रभु पधारे है ?"
मीरा खिलखीलाकर हँस पड़ी। अपने प्रियतम से बोली - " आप सुन रहे है प्रियतम। महाराज कुवर क्या फरमा रहे है ?"
गिरधर गोपाल ने मीरा से कहा की महाराज कुवर से कहो की आप को दर्शन होने में अभी समय है।
मीराने कहा की आप को दर्शन होने में समय है।
भोजराज असमझ में कुछ क्षण रहे, फिर अपने सयनकक्ष में चले गए।
मीरा व् गिरधर गोपाल के जिमण भोजन की तैयारी हुई। स्वर्ण के बाजोठ पर सोने के बड़े थाल में विविध भोजन सामग्रियाँ प्रचुर मात्र में परोसी गयी। यो भी प्रथा है की स्वामी का थाल भरा ही रहना चाहिए इसलिए भरे हुए थाल में भी बारम्बार परोसा जाता रहा। दासिया जानती थी की हमे नित्य अपनी स्वामिनी का प्रसाद ही मिलता है पर आज तो जगतके स्वामी का प्रसाद भी मिलेगा अतः थाल खली न होने पाए।
मीरा ने प्रथम कौर अपने हाथोसे दिया और द्वारिकानाथ के हाथो से स्वय लिया । दूसरा देने पर प्रभु ने कहा - " खाओ न! "
मीरा बोली " एक कौर तो शत्रुको दिया जाता है, प्रिय !'
आज मीरा की प्रसन्नता की सीमा नहीं है। आज जीवन का चरम फल प्राप्त हुआ है। आज मीरा के भव -भाव के भरतार पधारे है और सबसे बड़ी बात यह है की प्रभु रंगीले राजपूत के वेशमे है। केशरिया सफा, केसरिया अंगरखा, लाल किनारिकी केसरिया धोती और वैसा ही दुपट्टा। शिरोभुषण में लगा मोर पंख कानोमे हीरे के कुंडल, गले के कंठे में जड़ा पद्मराग..... इतना सुन्दर श्रंगार है श्यामसुन्दर का की नजर न ठहरे....
( जय श्री राधे कृष्ण )
Friday, 1 March 2013
भगवान मेरे अपने है....
आप अपनी करनी की तरफ मत देखो ,अपने पापोकी तरफ मत देखो केवल भगवान की तरफ देखो। जैसे विदुरानी भगवान को छिलका देती है तो भगवान छिलका ही खाते है। छिलका खाने में भगवान को जो आनन्द आता है वैसा आनन्द गिरी खाने में नहीं आता। कारण की विदुरानी के मनमे ये भाव था की भगवान मेरे है।
हमारे मन में भी ये भाव आ जाये की भगवान मेरे है मैं भगवान का हु फिर भगवान हमे सुख देने के लिए गिरी भक्त को और छिलका खुद खाने को भी तैयार
हे मेरे नाथ मैं आप कोहे को भूलू नहीं....
आप अपनी करनी की तरफ मत देखो ,अपने पापोकी तरफ मत देखो केवल भगवान की तरफ देखो। जैसे विदुरानी भगवान को छिलका देती है तो भगवान छिलका ही खाते है। छिलका खाने में भगवान को जो आनन्द आता है वैसा आनन्द गिरी खाने में नहीं आता। कारण की विदुरानी के मनमे ये भाव था की भगवान मेरे है।
हमारे मन में भी ये भाव आ जाये की भगवान मेरे है मैं भगवान का हु फिर भगवान हमे सुख देने के लिए गिरी भक्त को और छिलका खुद खाने को भी तैयार
हे मेरे नाथ मैं आप कोहे को भूलू नहीं....
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