मीराबाई ने भोजराजजी से कहा की आईये इनसे मिलिए ये है द्वारीकाधीश! मेरे पति.......!
सावन
की तीज आई मीरा झूले पर बैठ अपने गिरधर गोपाल को याद कर रही है ( हिंडो
डालियों कदम की दाल माने झोटा दे नन्द लाल ) । मीरा झूले से निचे उतरी
स्त्रियाँ ने घेर कर मीरा से पति का नाम पुछा मीरा खिल खिलाती हुए आवाज में
बोली -
राजा है नन्द रायजी जांको गोकुल गाँव ।
जमुना तट रो बास है गिरधर प्यारो नाम ।।
सखिया ने कहा- " बाईसा हुकुम हम तो कुवरसा का नाम पूछ रही है "।
मीरा
ने बात को अनसुनी सी कर अपने श्याम कुञ्ज में आकर अपने प्राणाधार के
सम्मुख आ कर बैठ गयी । जैसे ही तानपूरा के लिए हाथ बताया पपयिया बोल उठा।
ह्रदय में जैसे दामिनी लहरा गयी हो और भजन गाने लगी ।
भजन पूरा होते ही मीराने आँखे खोली देखा की सन्मुख श्यामसुन्दर बैठे है।
उनकी ओर देखते हुए मंद मंद मुस्का रहे है। वह हर्ष से बावली हो उठी। मीरा
की पलके स्थिर हो गयी। कुछ क्षण देह जैसे सुन्न हो गयी।
फिर हाथ बढ़ा कर
चरण पर रखा ये जानने के लिए की कही ये स्वप्न तो नही है? वह स्पर्श, वह
स्पर्श, वह स्पर्श, वह भूल गयी जगत। पिंडलियों तक चरणों को बाँहों में बांध
कर उसने घुटनों पर सीर रख दिया। गोविन्द की उंगलियाँ मीरा के केशो में घूम
ने लगी।
दासी ने प्रवेश करते हुए कहा - "बाईसा हुकुम ! ?" ।
मीरा को अटपटी अवस्था में देख ठिठक गयी।
मीराने
नेत्र ऊँचे करके दासी की और देखा और बोली - " मंगला आज प्रभु पधारे है।
जीमण भोजन की तैयारी कर। मिथिला से कह की यही पलंग बिछादे चौसर भी यही ले
आ। आज मैं यही सोऊँगी तू महाराज कुवर को निवेदन कर आ "।
मीरा की हर्ष विह्वल दसा देख दासी प्रस्सन भी हुई और चकित भी।
दासी भोजराज के पास गयी। वह हाथ जोड़ कर विनम्रता से बोली की आज बाईसा हुकुम मंदिर में ही पौढेगी।
भोजराज बोले - "क्यों ?"
दासी बोली - "प्रभु पधारे है।"
भोजराज भी गिरधर गोपाल के कक्ष की ओर मुड़ गए। वहाँ जा कर जो देखा मीरा की
प्रेम विह्वल दशा, वह जैसे बार-बार किसी को चूम रही हो आखोंमे हर्षके आसूँ
रोम-रोम पुलकित। होठो पर हँसी खिली पड़ती थी। वह बीच-बीच
मे वाष्परुद्धे
कंठ से टूटे सब्दो से कह रही थी - " बड़ी कृपा की। बड़ी.... कृपा......जुग
बीत..... गए...... आँखे पथरा गयी.......थी अब ...... न जाना .....
अ...ब.... न ।"
भोजराज जी आचार्य से देख रहे की मीरा के हाथ किसीकी देह पर घूम रहे है ? और लगा जैसे लाज से मुह छिपा रही हो।
"
यह क्या है ? क्या हो रहा है ? कौन है यहाँ ? मुझे क्यों नही दिखाई देता
?" भोजराजजी सोच रहे थे की मीरा की द्रष्टि उन पर पड़ी बोली - " पधारिये
महाराज कुवर ! देखिये मेरे स्वामी पधारे है। आईये इनसे मिलिए ये है
द्वारीकाधीश! मेरे पति ।"
और भोजराज जी का परिचय देते हुए कहा की ये है चितौड़के महाराज कुमार युवराज भोजराज मेरे सखा।
फिर भोजराज से मीरा पूछ बैठी - " कहिये कैसे लगे आप को मेरे धणी ? "
भोजराज बोले - " मुझे तो कोई दिखाई नही दे रहा है। क्या आप सच फरमा रही है की प्रभु पधारे है ?"
मीरा खिलखीलाकर हँस पड़ी। अपने प्रियतम से बोली - " आप सुन रहे है प्रियतम। महाराज कुवर क्या फरमा रहे है ?"
गिरधर गोपाल ने मीरा से कहा की महाराज कुवर से कहो की आप को दर्शन होने में अभी समय है।
मीराने कहा की आप को दर्शन होने में समय है।
भोजराज असमझ में कुछ क्षण रहे, फिर अपने सयनकक्ष में चले गए।
मीरा व्
गिरधर गोपाल के जिमण भोजन की तैयारी हुई। स्वर्ण के बाजोठ पर सोने के बड़े
थाल में विविध भोजन सामग्रियाँ प्रचुर मात्र में परोसी गयी। यो भी प्रथा है
की स्वामी का थाल भरा ही रहना चाहिए इसलिए भरे हुए थाल में भी बारम्बार
परोसा जाता रहा। दासिया जानती थी की हमे नित्य अपनी स्वामिनी का प्रसाद ही
मिलता है पर आज तो जगतके स्वामी का प्रसाद भी मिलेगा अतः थाल खली न होने
पाए।
मीरा ने प्रथम कौर अपने हाथोसे दिया और द्वारिकानाथ के हाथो से स्वय लिया । दूसरा देने पर प्रभु ने कहा - " खाओ न! "
मीरा बोली " एक कौर तो शत्रुको दिया जाता है, प्रिय !'
आज
मीरा की प्रसन्नता की सीमा नहीं है। आज जीवन का चरम फल प्राप्त हुआ है। आज
मीरा के भव -भाव के भरतार पधारे है और सबसे बड़ी बात यह है की प्रभु रंगीले
राजपूत के वेशमे है। केशरिया सफा, केसरिया अंगरखा, लाल किनारिकी केसरिया
धोती और वैसा ही दुपट्टा। शिरोभुषण में लगा मोर पंख कानोमे हीरे के कुंडल,
गले के कंठे में जड़ा पद्मराग..... इतना सुन्दर श्रंगार है श्यामसुन्दर का
की नजर न ठहरे....
( जय श्री राधे कृष्ण )
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