Monday, 10 November 2014

            हरी जन तो हारे भले जितण दो संसार !
            हारे हरिपुर  जावसी जीते यमके  द्वार !!


एक बार सब लंकावासी मिल कर रावण के पास गए और बोले महाराज ! आप तो रामजी के प्रबल विरोदी है और आप के भाई विभीषण जी तो रामजी के परम  भक्त है , वे सब  दिन राम नाम की रट लगाये रहते है और पुरे घरमे भी राम राम लिखा रखा है , और तो और हाथ में झोली माला ले कर  सब दिन राम राम करते रहते है और महाराज ! घरमे भी राम नाम का कीर्तन होता है ,
"श्री राम जय राम जय जय राम....
लंका वासियो ने रावण को खूब भड़का दिया।

रावण क्रोध से तिलमिला उठा और कहा विभीषण को बुलाओ ,
विभीषण जी आये और कहा ये लोग क्या कहते है तुम्हारे घरमे राम राम लिखा है
"बोले हाँ ! लिखा है
' बोले हाथमे झोली है , क्या जपते हो ?
"बोले ' राम राम..
विभीषणजी की बात सुन कर रावण तिलमिला कर बोला ,
' तुम मेरे शत्रु का नाम जपते हो ?
विभीषणजी "बिलकुल नही.....
विभीषण जी ठीक ही तो कह रहे थे रामजी किसीके शत्रु है ही नही , वे तो प्रत्येक जीव के हितैसी है।

रावण बोला फिर राम - राम क्यों जपते हो ?
विभीषणजी ने सोचा की सच कहूँगा तो ये दुष्ट  मेरे भजन में बाधा पहुचायेगा

विभीषणजी बोले " महाराज ! ये शिकायत करने वाले नाम के रहष्य को नही समझते , मैं तो मेरे भईया भाभी का नाम जपता हूँ पर , क्या कहे ! ये चुगलखोर नाम की महिमा नही समझ पाते , मैं अपने भईया भाभी का भक्त हूँ इसलिए राम नाम जपता हूँ।

रावण बोला राम राम जपने से तुम मेरा और तेरे भाभी का भक्त कैसे हुआ ?
"बोले महाराज ! आप त्रिलोकी के विजेता हो कर भी मंद्बुधियो की भांति बात करते है।
" आप का नाम रावण है की नही ?
' बोले हाँ ! है
" बोले भाभीका नाम मंदोदरी है की नही ?
' बोले हाँ ! है
अब आप भी ( राम नाम ) का रहस्य समझ लीजिये।
( रा माने रावण )
( म माने मंदोदरी ) आपका और भाभी का पूरा नाम लेनेमें कठिनाई होती है इसलिए संगसेप में ही ( राम नाम ) जप लेता हूँ।
रावण ने विभीषण जी को ह्रदय से लगा लिया और कहा की भाई हो तो विभीषण जैसा।
'प्रसन्न हो कर बोला , हाँ ! विभीषण इस भावसे तुम चाहे जितना राम राम करो मुझे बहुत प्रसन्नता होगी।

विभीषण जी झूट बोल रहे थे वे केवल राम भक्त है भईया भभीसे उनको क्या लेना देना पर रावण से पिंड छुड़ाने के लिए रावण को प्रसन्न करने वाली बात कही।
तात्पर्य यह है की कोई जीव भगवतशरणागत हो जाये और किसी भी तरह की बाधा आये तो उन बाधाओ को लाग कर किसी भी युक्ति से भगवत शरणागत हो जाना चाहिए , किसी भी युक्ति से केवल भगवान के हो जाओ !

जे   रति    होइ    सियाराम    सु !
सुमिरत रात दिवस तन, मन सु !!

  , एक ही ध्यान रहे , हम भगवान के है और एक भगवान ही हमारे अपने है।  { जय जय श्री राधे }

संत श्री कबीरदासजी के प्राकट्य की कथा
भक्ति बीज पलटे नही जो जुग जाये अनंत !
उच्च - नीच  कुल  उपजे   रहे  संतको  संत !!

एक सिद्ध महात्मा थे श्री रामानन्दचार्य जी उन्ही महात्मा का एक शिष्य था ब्राह्मण जो नित्य उनकी सेवा में उपस्थित रहता था।
 एक दिन उन ब्राह्मण को किसी आवश्यक कार्य से बाहर जाना पड़ा उन ब्राह्मण ने श्री रामानन्दचार्य जी की सेवा में अपनी पुत्री को भेजा

 उस ब्राह्मण कन्या ने बड़े भावपूर्वक समस्त कार्य किया , जब घर जाने लगी तो श्रीस्वामीजी के श्रीचरण -कमलों में प्रणाम किया तो श्री स्वामीजी ने सहज भाव से आशीर्वाद दिया - पुत्रवती भव।
 यह सुनकर ब्राह्मण कन्या संकुचित हो गयी और हाथ -जोड़कर बोली , महाराज ! मैं तो अभी क्वांरी हूँ।  ब्राह्मण कन्या की बात सुन कर स्वामी श्री रामानंदचार्य भी किंचित विचार में पड़ गए।

इसी बीच श्री विष्णु भगवान का आदेश ले कर करुणामय भगवती श्री लक्ष्मी जी कलयुग के जीवो पर दया कर भू - लोक में पधारी उन्होंने विचार किया की कलयुग के लोगो का कल्याण तभी संभव है जब किसी समर्थ भक्त का अवतार हो।

इसी चिंता में विनिमग्न श्री लक्ष्मीजी घूमती - फिरती ( काशी में ) श्री रामानन्दचार्य जी के पास आई।

यहाँ आने पर देखा तो श्री स्वामीजी भी ब्राह्मण  कन्या को आशीर्वाद देकर विचारमग्न ही थे।
तब लक्ष्मीजी ने ब्राह्मण कन्या को एक तुलसीपत्र दिया और  स्वामीजी ने भी कुछ पुष्प प्रसादी दी। लक्ष्मीजी ने तुलसीपत्र देते हुए कहा की तुम स्वामीजी की पुष्प प्रसादी एवं ये तुलसीपत्र लो , और अपनी झोली में भर लो इससे श्रीस्वामीजी का वरदान भी व्यर्थ नही होगा और तुम्हारा कन्यात्व भी सुरक्षित रहेगा।

ब्राह्मण कन्या ने तुलसीपत्र और पुष्प प्रसादी अपने आँचल में ले ली, कुछ दूर चलने पर उसे वजनसा मालूम हुआ तो विचार की स्वामीजी ने ( वा लक्ष्मीजी ) ने तो  फूल ही दिया था फिर यह इतना भारी क्यों लग रहा है ? जब उसने देखा तब समझा की यह तो पुष्पो के स्थान पर एक परमदिव्य सुन्दर ( शिशु ) प्रकट हो गया है।

लोक - लज्जावश वह ब्राह्मण- कन्या उस शिशु को लहरतारा - तालाब के तट पर रखकर चली गयी। (1455 ज्येष्ठ पूर्णिमा सोमवार ) के दिन ही कबीरजी का प्राकट्य हुआ उस दिन दैवयोगवश नीरू - नीमा नाम के जुलाहा दम्पति उसी मार्ग से कही जा रहे थे।

नीमा को प्यास लगी थी वह जब लहरतारा में जल पिने गयी तो उसने , इस परम सुन्दर शिशु को कमल पत्रों पर खेलते देखा।

उसके हृदय में मातृत्व भाव जगा , वातसल्य उमड़ा , उसने शिशु को गोद में उठा लिया अब तक उसकी गोद भी पुत्र से खाली ही थी , उसने शिशु को लेकर नीरू  को दिखाया।  नीरू ने प्रथम तो आनाकानी की परन्तु बाद में पत्नी का अनुग्रह देखकर घर ले चलने की अनुमति दे दी , इस प्रकार श्री कबीरदासजी का पालन पोषण इन्ही नीरू - नीमा के हाथो  हुआ..| भक्तमाल ग्रन्थ में एक पद भी आता है
यथा वन्दौ श्रीप्रह्लाद जिन ,धार्यो रूप कबीर।
कलिमद  मर्दन वीरवर सिद्धि समर रणधीर।।

इस पद के अनुसार
भक्त शिरोमणि श्री प्रह्लादजी के अवतार कबीरदासजी ही है
    { जय जय श्री राधे }
 


Friday, 31 October 2014

गोपाष्टमी की गो पालक भारत वासियोको हार्दिक शुभ कामनाये 
बालकृष्ण लाल की गोचारण लीला के कुछ सब्द

भगवान वृन्दावन में बड़े - बड़े पहाड़ो और जंगलो में गौ चरण के लिए जाते थे पर मईया के बहुत कहने पर भी कभी जूती धारण नही की थी।

एक दिन मईया अपने लाला को गौ चरण के लिए श्रृंगार कर रही थी तब मईया ने अपने लाला को पद्म धारण करने के लिए फिर से आग्रह किया कि
"देख लाला ! तुमरे चरण बहुत कोमल है और तू गईया चरावे जावेगो तो तुमरे पैरो में कंकर , कंटक लग जायेंगे इसलिए व्यर्थ का हट छोड़ दे , हमारी बात मानले और पग में जूती धारण करले !

ठाकुरजी ने कहा अच्छा मईया ! जब तुम इतना आग्रह कर रही है तो ठीक है पर , मैं एक ही शर्त पर जूती धारण कर सकू हूँ , पहले हमारी जितनी भी गईया है उनसबके लिए जूती बनवालियो , जब हमारी गईया जूती पहनके चलेगी तब मैं भी जूती पहन लूंगा !

मईया हंस कर बोली हरे लाला ! तू बड़ो भोलो है गईया कभी जूती पहिने है ? गायतो पशु होवे है ,
ये सुन कर ठाकुरजी धरती पर उलट पुल्ट हो कर रोने लगे , सारा श्रृंगार बिगाड़ लिया , और बोले अरी मईया ! हमारी ( ईस्ट देव ) को तुमने पशु कैसे कह दिया ? गाय तो हम सबकी माता होवे है , फिर ( माँ ) पशु कैसे हो गयी ?

लाला का रुदन देख कर बाबा और मईया घबराएं कि अब लाला को कैसे मनावे , गाय को पशु कहने कि गलती हो गयी , तब मईया और बाबा ने कान पकड़े और बोले ,
अरे लाला ! हमसे बहुत भारी गलती हो गयी , हमको क्षमा करद्यो , आज के बाद गाय को कभी पशु नही कहेंगे , आज से गौ माता हम सबकी ईस्ट देव ही होगी..

मईया ने फिर से ठाकुरजी को जैसे तैसे मनाया और फिरसे गौ चरण के लिए राजी किया..

जरा विचार करे कि जब भगवान को ये सहन नही होता कि गाय को कोई पशु कहे , जब वो ही गौ धन कटनी में जाता है तब भगवान के कष्ट कि सीमा नही रह जाती..

गोविन्द चले आओ ,गोपाल चले आओ !
तेरी गईया तुझे पुकारे , संकट से बचा जाओ !!


        { जय जय श्री राधे }
   


Thursday, 16 October 2014

               सुदामाजी और संकोचिनाथ की कथा

ऐसो  बेहाल  बेवाइनसै माग  कंटक  जाल  गड़े  पुनि जोए।
हाय महादुःख पाये सखा ! तुम आये इतै न, कितै दिन खोये।।
देखि सुदामा की दीन दसा करुणा करी के  करूणानिधि  रोये।

पानी  परातको हाथ छुयौ  नहीं  नैननिके  जल ते  पग धोये।।
इसीको संकोचिनाथ कहते है !

आपसे धीरेसे- एकांत में सलाह की भांति एक बात कहूँ ?

श्रीनन्दबाबा का लाल बहुत संकोची है इस संकोचिनाथ से मांग कर इसे और अधिक संकोच में मत डालिये , आप कुछ माँगेगे , कुछ प्रार्थना करेंगे तो बड़ा संकोच बड़ा दुःख होगा इसे , इन्हे लगेगा की मैं इतना अयोग्य - इतना प्रमत्त, इतना कृपा - कृपाण हूँ की मेरे स्वजनोंको कहना पड़ता है- उनको प्रर्थना करनी पड़ती है।
इस आनंदकंद से प्रमाद नही होता -  यह अपने भक्तो के मंगल - विधान में लगा ही रहता , यह भी आप समझते है।

कोई एक बार इनके आगे सिर झुका देता है तो ये संकोच से गढ़ जाते है की मैं तो इनका कोई बड़ा हित नही कर पाया अब तो जितना बड़ा उसकी दृष्टि भी उतनी  बड़ी , अब हितभी उतनाही बड़ा होगा।
सुदामाजी तीन मुट्ठी चिउड़े ही तो भेट में ले गए थे वो भी संकोच के मारे श्रीकृष्ण को दे नही रहे थे , द्वारिका का वैभव देख कर सुदामाजी को साहस नही हुआ था की उस चिउड़े का उपहार द्वारिकाधीश को अर्पित करे , वे उस अपनी बगल में दबाये - सिकुड़े जा रहे थे , किन्तु श्रीयशोदानन्दन कही ऐसे मानने वालो मे से  है? ये तो अपनो से वस्तु छीन कर भी खा लेते है।
अब श्रीकृष्ण ने अपने मित्र से पूछ लिया - 'भाभीने मेरे लिए क्या उपहार भेजा है ?
सुदामाजी क्या कहते ? उन्होंने मस्तक झुका लिया 

उनका मस्तक झुका और श्रीकृष्ण का ( हाथ ) बढ़ा - 'यह आप बगलमे क्या दुबकाये है ? सुदामाजी ने और कसके दुबका दिया पोटली को , जिससे श्रीकृष्ण खीच ना पाये , पर श्रीकृष्ण के आगे कोई दबा सकेगा ? उनको कोई रोक सकेगा ? श्रीकृष्ण ने पोटली को खींचा इससे पोटली का वस्त्र फट गया चिउड़े निचे पादपीठ पर और भूमि पर बिखर गए 
श्रीकृष्ण ने कहा , ओह !  यह उपहार ! भेजा है भाभीने  ! श्रीकृष्ण भेटकी प्रशंन्सा करने लगे 'इतने उत्तम चिउड़े !
उस चिउडों को ऐसे देख रहे थे जैसे कोई ( महीनो का अकालका मारा क्षुधातुर अन्नपर टूट पड़े ) उस आतुरतासे श्यामसुन्दर पर्यंक से भूमि पर
उत्तरा और उन चिउडों को समेटने लगे। पादपीठपर , भूमि पर - जहाँ
अपने ही नही सेवको तक के पैर पड़ते है , वहीँ गिरे - बिखरे चिउड़े (त्रिभुवन का स्वामी कंगाल ) के समान आतुरता से समेट रहा था और इनमे समेट लेने तक का धैर्य भी पूरा नही था।
एक मुट्ठी समेट कर अपने मुख में डाली और चबाते हुए बाकि चिउड़े बीनने लगा चिउड़े चबाते - चबाते कहने लगे , उ हा ! प्यारे मित्र ! ये परम स्वादिष्ट है !

भगवान सुदामाजी के चिउड़े चबा रहे थे उस समय पुरे विश्वरूप को ये तृप्त कर दे रहे थे ,
 आकाशमार्ग में खड़े देवता देख रहे है और अपने ओठो पर जीभ फेर रहे है जैसे ही भगवान ने चिउड़े चबाके भीतर निगले उसी क्षण देवताओंने तृप्त हो कर डकार ली और पेटपर हाथ फेरने लगे

अब आप इन मोहन का शिष्टाचार देखिये , वेदो में ये ही , वेदवाणी बन कर कहते है की चलते फिरते भोजन करना ( वर्जित ) है और यहाँ ये खुद शास्त्र की मर्यादा के विपरीत है ही ; किन्तु जब कोई अत्यंत आतुर हो जाये तो शिष्टाचार या मर्यादा का स्मरण कहा रहता है।

उसके बाद क्या हुआ आप सभी जानते ही है ! श्रीद्वारिकाधीश ने अपने मित्र को नविन वस्त्र पहनाये थे पर  , जब वे श्रीकृष्ण से विदा ले कर वापिस अपने घर जाने लगे तो , उस नटखट ने हंसकर कहा ,

अच्छा ! मित्र ! आप अपना अमूल्य उत्तरीय एवं धोती तो लेते ही जायँ , सुदामाजी ने सोचा ओहो ! इन श्रीकृष्ण को तो अपनी धोती और उतरिये का भी मोह है पर इस नटखट को सुदामाजी नही समझ पाये ,

द्वारिका के वस्त्र उतरवाने का भाव श्रीकृष्ण का यह था की यह वस्त्र मेरे ( अकिंचन ) भक्त के धारण किये हुए है इसलिए  इन्हे तो श्रीकृष्ण मस्तक पर लपेटेगा और प्राण के सामान सँभाल कर रखेगा क्यों की मित्रके धारण किए हुए वस्त्र जो है पर इनके कहने का ढंग तो देखिये , की अरे मित्र ! हमारे नविन वस्त्र उत्तार दो और अपने फ़टे पुराले वस्त्र लेते जाओ
 

सुदामाजी भी हंसकर बोले अरे ! हाँ ! कृष्ण मैं दरिद्र ब्राह्मण कहा इनको पहन कर अच्छा लगता हूँ !

 सुदामाजी अपनी मैली फटी धोती लपेटते हुए द्वारिका के वस्त्र उतारते- उतारते कहा ,
 चलना पैदल' मांगना भीख और ये कपडे ! कोई दो मुट्ठी अन्न देनेवाला भी होगा तो इन वस्त्रो को देख कर मुख मोड़ लेगा
अब सुदामाजी को कहा पता है की उस द्वारिकाधीश ने क्या दिया !


सुदामाजी ने कुछ नही माँगा पर उस संकोचिनाथ ने इतना दिया की वे कल्पना भी नही कर सकते इसलिए इस नटखट से कुछ मांग कर इन्हे संकोच में मत डालिये
 एक भक्त ने तो इनका नाम भी संकोचिनाथ रख लिया इसलिए ये संकोचिनाथ है।
              { जय
जय श्री राधे }



Saturday, 11 October 2014

              रावण के पिछले जन्म की कथा  रावण पिछले जन्म में बहुत धर्मात्मा था , उस धर्मात्मा का नाम था ( प्रतापभानु )
प्रतापभानु ने संसार भर को अपनी भुजाओं के बल से वश में कर राजाओं से दंड (कर) ले-लेकर उन्हें छोड़ दिया। उस समय सम्पूर्ण पृथ्वी मंडल का एकमात्र   प्रतापभानु ही (चक्रवर्ती) राजा था।

 राजा अर्थ, धर्म और काम आदि के सुखों का समयानुसार सेवन करता था ,
राजा प्रतापभानु का बल पाकर भूमि सुंदर कामधेनु (मनचाही वस्तु देने वाली) हो गई। (उनके राज्य में) प्रजा सब (प्रकार के) दुःखों से रहित और सुखी थी और सभी स्त्री-पुरुष सुंदर और धर्मात्मा थे।

वेदों में राजाओं के लिए जो धर्म बताए गए थे, राजा सदा आदर पूर्वक और सुख मानकर उन सबका पालन करता था। प्रतिदिन अनेक प्रकार के दान देता और उत्तम शास्त्र, वेद और पुराण सुनता था।

एक बार वह राजा एक अच्छे घोड़े पर सवार होकर, शिकार का सब सामान सजाकर विंध्याचल के घने जंगल में गया।
 राजा ने वन में फिरते हुए एक सूअर को देखा , उस सूअर को देखकर राजा घोड़े को चाबुक लगाकर तेजी से चला और उसने सूअर को ललकारा कि अब तेरा बचाव नहीं हो सकता।

घोड़े को (अपनी तरफ) आता देखकर सूअर पवन वेग से भाग चला। राजा ने तुरंत ही बाण को धनुष पर चढ़ाया , धनुष पर बाण चढ़ा  देख सूअर  धरती में दुबक गया। वह पशु कभी प्रकट होता और कभी छिपता हुआ भाग जाता था।
 
वह , सूअर बहुत दूर ऐसे घने जंगल में चला गया, जहाँ हाथी-घोड़े का निबाह (गमन) नहीं था। राजा बिलकुल अकेला था और वन में क्लेश भी बहुत था , पर राजा ने भी उस सूअर का पीछा नही छोड़ा।


राजा को बड़ा धैर्यवान देखकर, सूअर भागकर पहाड़ की एक गहरी गुफा में जा घुसा। उसमें जाना कठिन देखकर राजा को बहुत पछताकर लौटना पड़ा, पर उस घोर वन में वह रास्ता भूल गया , बहुत परिश्रम करने से थका हुआ और घोड़े समेत भूख-प्यास से व्याकुल राजा नदी-तालाब खोजता-खोजता पानी बिना बेहाल हो गया।

वन में फिरते-फिरते उसने एक आश्रम देखा, वहाँ कपट से मुनि का वेष बनाए एक राजा रहता था,

जिसका देश राजा प्रतापभानु ने छीन लिया था और जो सेना को छोड़कर युद्ध से भाग गया था पर , राजा प्यासा होने के कारण (व्याकुलता में) उसे पहचान न सका। सुंदर वेष देखकर राजा ने उसे महामुनि समझा और घोड़े से उतर कर उसे प्रणाम किया, परन्तु बड़ा चतुर होने के कारण प्रतापभानु ने उसे अपना नाम नहीं बताया।

राजा को प्यासा देखकर उसने सरोवर दिखला दिया।
हर्षित होकर राजा ने घोड़े सहित उसमें स्नान और जलपान किया , राजा की  सारी थकावट मिट गई  सुखी हो गया। तब तपस्वी उसे अपने आश्रम में ले गया और सूर्यास्त का समय जानकर उसने (राजा को बैठने के लिए) आसन दिया।

 फिर वह तपस्वी कोमल वाणी से बोला ,
तुम कौन हो? सुंदर युवक होकर, जीवन की परवाह न करके वन में अकेले क्यों फिर रहे हो ?

प्रतापभानु ने अपना झूठा परिचय देते हुए  कहा हे मुनीश्वर ! सुनिए, प्रतापभानु नाम का एक राजा है, मैं उसका मंत्री हूँ। शिकार के लिए फिरते हुए राह भूल गया हूँ। बड़े भाग्य से यहाँ आकर मैंने आपके चरणों के दर्शन पाए हैं

यहाँ तुलसीदासजी कहते है  की जैसी भवितव्यता (होनहार) होती है, वैसी ही सहायता मिल जाती है। या तो वह आप ही उसके पास आती है या उसको वहाँ ले जाती है ,

कपट मुनि ने प्रतापभानु से कहा- हे तात ! अँधेरा हो गया। तुम्हारा नगर यहाँ से सत्तर योजन पर है , हे सुजान! सुनो, घोर अँधेरी रात है, घना जंगल है, रास्ता नहीं है, ऐसा समझकर तुम आज यहीं ठहर जाओ, सवेरा होते ही चले जाना

राजा प्रतापभानु   ने  सुंदर कोमल वाणी से कहा- हे प्रभो! आपको पिता जानकर मैं ढिठाई करता हूँ। हे मुनीश्वर! मुझे अपना पुत्र और सेवक जानकर अपना नाम (धाम) विस्तार से बतलाइए ?

राजा ने उसको नहीं पहचाना, पर वह राजा को पहचान गया था। राजा तो शुद्ध हृदय था पर वह कपट करने में चतुर था। एक तो वैरी, फिर जाति का क्षत्रिय, फिर वह छल-बल से अपना काम बनाना चाहता था

मुनि ने कपट में डुबोकर बड़ी युक्ति के साथ कोमल वाणी बोला-  वैसे तो हमारा नाम एक तनु है पर अब हमारा नाम भिखारी है, क्योंकि हम निर्धन और अनिकेत (घर-द्वारहीन है , उस कपट मुनि ने झूट को ऐसी मधुर वाणी से कहा की राजा उस पर मोहित हो गया और बोला ,
 मुनिवर! आप जो हों सो हों (अर्थात्‌ जो कोई भी हों), मैं आपके चरणों में नमस्कार करता हूँ। हे स्वामी! अब मुझ पर कृपा कीजिए।
 

अपने ऊपर राजा की स्वाभाविक प्रीति और अपने विषय में उसका अधिक विश्वास देखकर , सब प्रकार से राजा को अपने वश में करके, अधिक स्नेह दिखाता हुआ वह (कपट-तपस्वी) बोला- हे राजन्‌! सुनो, मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, मुझे यहाँ रहते बहुत समय बीत गया ,अब तक न तो कोई मुझसे मिला और न मैं अपने को किसी पर प्रकट करता हूँ, क्योंकि लोक में प्रतिष्ठा अग्नि के समान है, जो तप रूपी वन को भस्म कर डालती है ,
 और श्री हरि को छोड़कर किसी से कुछ भी प्रयोजन नहीं रखता। प्रभु तो बिना जनाए ही सब जानते हैं। फिर कहो संसार को रिझाने से क्या सिद्धि मिलेगी।

ज्यों-ज्यों वह तपस्वी उदासीनता की बातें कहता था, त्यों ही त्यों राजा को विश्वास उत्पन्न होता जाता था।
जब उस बगुले की तरह ध्यान लगाने वाले (कपटी) मुनि ने राजा को कर्म, मन और वचन से अपने वश में जाना, तब वह बोला

 
हे भाई! हमारा नाम एकतनु है। यह सुनकर राजा ने फिर सिर नवाकर कहा- मुझे अपना अत्यन्त (अनुरागी) सेवक जानकर अपने नाम का अर्थ समझाकर कहिए ?

(कपटी मुनि ने कहा-) जब सबसे पहले सृष्टि उत्पन्न हुई थी, तभी मेरी उत्पत्ति हुई थी। तब से मैंने फिर दूसरी देह नहीं धारण की, इसी से मेरा नाम एकतनु है

राजा
( कपटी मुनि ) के नाम का अर्थ सुनकर उस तपस्वी के वश में हो गया और वह उसे अपना नाम बताने लगा।

 कपटमुनि ने कहा- राजन ! मैं तुमको जानता हूँ। तुमने कपट किया, वह मुझे अच्छा लगा , अब मैं तुम्हारा परिचय तुम्हे सुनाता हूँ सुनो।

 हे राजन ! तुम्हारा नाम प्रतापभानु है, महाराज सत्यकेतु तुम्हारे पिता थे। हे राजन ! गुरु की कृपा से मैं सब जानता हूँ, पर अपनी हानि समझकर कहता नहीं और अब मैं प्रसन्न हूँ, इसमें संदेह न करना। हे राजन्‌! जो मन को भावे वही वर  माँग लो।

 सुंदर (प्रिय) वचन सुनकर राजा हर्षित हो गया और (मुनि के) पैर पकड़कर उसने बहुत प्रकार से विनती करके कहने लगा हे मुनिवर ! अब मैं आपको अपना गुरु मानता हूँ आप मुझे कृपा पूर्वक वर दीजिये ,
 राजा कहने लगा हे प्रभो! मेरा शरीर वृद्धावस्था, मृत्यु और दुःख से रहित हो जाए, मुझे युद्ध में कोई जीत न सके और पृथ्वी पर मेरा सौ कल्पतक एकछत्र अकण्टक राज्य हो ऐसा वार दीजिये। 
 

कपटमुनि ने कहा - हे राजन्‌! ऐसा ही हो, पर एक बात कठिन है, उसे भी सुन लो। हे पृथ्वी के स्वामी! केवल ब्राह्मण कुल को छोड़ काल भी तुम्हारे चरणों पर सिर नवाएगा , तप के बल से ब्राह्मण सदा बलवान रहते हैं। उनके क्रोध से रक्षा करने वाला कोई नहीं है। हे नरपति! यदि तुम ब्राह्मणों को वश में कर लो, तो ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी तुम्हारे अधीन हो जाएँगे।

राजा कपट मुनि की बात सुन कर उनको गुरु मानते हुए प्रश्न करने लगे की हे स्वामी
वे ब्राह्मण किस प्रकार से वश में हो सकते हैं, कृपा करके वह भी बताइए।

कपटमुनि ने कहा -हे राजन्‌! वह युक्ति तो मेरे हाथ है, और मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, जगत में मुझे कुछ भी दुर्लभ नहीं है पर मेरा जाना तुम्हारे नगर में हो नहीं सकता। जब से पैदा हुआ हूँ, तब से आज तक मैं किसी के घर अथवा गाँव नहीं गया हूँ
पर मैं तुम्हारा कार्य सिद्ध करने के लिए तुम्हारे घर अवश्य आऊंगा।

अब मैं तुमसे कहता हूँ  वो ध्यान से सुनो , तुम्हारे यहाँ
नित्य नए एक लाख ब्राह्मणों को कुटुम्ब सहित निमंत्रित करना। मैं तुम्हारे सकंल्प (के काल अर्थात एक वर्ष) तक प्रतिदिन भोजन बना दिया करूँगा , मेरे हाथो बना भोजन ग्रहण करके सभी ब्राह्मण तुम पर प्रसन्न हो कर थोड़े ही परिश्रम से सब ब्राह्मण तुम्हारे वश में हो जाएँगे।

उस दुष्ट ने पिछला बैर याद करके (षड्यंत्र किया) और जिस प्रकार शत्रु का नाश हो, वही उपाय रचा। भावीवश राजा (प्रतापभानु) कुछ भी न समझ सका

जो सूअर था वो कपट मुनि का मित्र हि था , जो महा मायावी था उसी मायावी ने सुअर का भेस धारण कर राजा को घोर जंगल में ले आया था ,


उस रात प्रतापभानु उस कपटमुनि के आश्रम में ही सो गया था , रात गहरी होने के बाद उस कपट मुनि ने अपने मित्र सूअर (कालकेतु) को आज्ञा दी की अब तुम इस राजा को अपने राज्य में पंहुचा कर आ जाओ। 

उसने प्रतापभानु राजा को घोड़े सहित क्षणभर में घर पहुँचा दिया। राजा को रानी के पास सुलाकर घोड़े को अच्छी तरह से घुड़साल में बाँध दिया , और उस राजा के पुरोहित को उठा ले गया और माया से उसकी बुद्धि को भ्रम में डालकर उसे उसने पहाड़ की खोह में ला रखा

वह आप पुरोहित का रूप बनाकर उसकी सुंदर सेज पर जा लेटा। राजा सवेरा  होने से पहले ही जागा और अपना घर देखकर उसने बड़ा ही आश्चर्य माना

 वह पुरोहित के रूपमे आकर ब्रामणो के लिए छह रस और चार प्रकार के भोजन, जैसा कि वेदों में वर्णन है, बनाए। उसने मायामयी रसोई तैयार की और इतने व्यंजन बनाए, जिन्हें कोई गिन नहीं सकता

 उस कपट मुनि ने अनेक प्रकार के पशुओं का मांस पकाया और उसमें उस दुष्ट ने ब्राह्मणों का मांस मिला दिया। सब ब्राह्मणों को भोजन के लिए बुलाया और चरण धोकर आदर सहित बैठाया।

ज्यों ही राजा परोसने लगा,

उसी काल (कालकेतुकृत) आकाशवाणी हुई- हे ब्राह्मणों! उठ-उठकर अपने घर जाओ, यह अन्न मत खाओ। इस अन्न को ( खाने) में बड़ी हानि है
रसोई में ब्राह्मणों का मांस बना है।

 (आकाशवाणी का) विश्वास मानकर सब ब्राह्मण उठ खड़े हुए। राजा व्याकुल हो गया (परन्तु), उसकी बुद्धि मोह में भूली हुई थी। होनहारवश उसके मुँह से (एक) बात भी न निकली

तब ब्राह्मण क्रोध सहित बोल उठे- उन्होंने कुछ भी विचार नहीं किया- अरे मूर्ख राजा! तू जाकर परिवार सहित राक्षस हो।
रे नीच क्षत्रिय! तूने तो परिवार सहित ब्राह्मणों को बुलाकर उन्हें नष्ट करना चाहा था, ईश्वर ने हमारे धर्म की रक्षा की। अब तू परिवार सहित नष्ट होगा
, एक वर्ष के भीतर तेरा नाश हो जाए, तेरे कुल में कोई पानी देने वाला तक न रहेगा। शाप सुनकर राजा भय के मारे अत्यन्त व्याकुल हो गया। फिर सुंदर आकाशवाणी हुई ,

हे ब्राह्मणों! तुमने विचार कर शाप नहीं दिया। राजा ने कुछ भी अपराध नहीं किया। आकाशवाणी सुनकर सब ब्राह्मण चकित हो गए। तब राजा वहाँ गया, जहाँ भोजन बना था

(देखा तो) वहाँ न भोजन था, न रसोइया ब्राह्मण ही था। तब राजा मन में अपार चिन्ता करता हुआ लौटा। उसने ब्राह्मणों को सब वृत्तान्त सुनाया और (बड़ा ही) भयभीत और व्याकुल होकर वह पृथ्वी पर गिर पड़ा।

ब्राह्मण बोले ,
हे राजन! यद्यपि तुम्हारा दोष नहीं है, तो भी होनहार नहीं मिटता। ब्राह्मणों का शाप बहुत ही भयानक होता है, यह किसी तरह भी टाले टल नहीं सकता

उसके बाद प्रतापभानु को उस  शत्रु कपट मुनि ने चारो और से घेरकर उनके वंस का नास कर दिया और वो प्रतापभानु की राज गद्दी पर बैठ गया ,
 

वे प्रतापभानु ही अपने परिवार सहित राक्षस बने जो रावण , कुम्भकर्ण खरदूषण और सूर्पनखा थी इन सभी का गर्भ स्थापित भी सध्या काल में हुआ।  संध्या काल में गर्भ स्थापित होने वाले जीव राक्षस प्रवति के ही होते है , इस  परिवार में एक धर्मात्मा विभीषणजी भी थे जिनका गर्भ स्थापित सध्या काल में नही हुआ।

इस कथा का लेखन स्वामी श्री तुलसीदास गोस्वामी जी ने अपनी रामचरित्रमानस में किया है ,( मैं हरिदासी ) उन पुराणपुर्शोतम को वंदन करती हूँ !! जय श्री राम !    
{ जय श्री राधे राधे }
प्रियतम  मीठी  नित  याद  तुम्हारी आती !
मैं  पल  भर  कभी तुम्है  बिछार  न  पाती !!

आजारे  मन  मीत  साँवरे , आरत हो  के  पुकारू !
मैं निशदिन तेरा ध्यान धरु, अरु रोज ही पंत निहारु !!

कब आएगा तू ही  बता दे , बात रही  अब  तेरी !
मेरी तूने एक न मानी ,समझी अपन से न्यारी !!
 

खिया सावन बदरा बरसे , आश लगी मोहे तेरी !
दिना  नाथ  दयाकर  मोहन ,  मैं  दासी  हूँ  तेरी ! !

हृदय  पीर  पिव तोहे मिलन की , रोम रोम  अकुलावे !
रो - रो कर में तुझे पुकारू , श्याम धणी क्यों नही आवे ?!!

और भगतन को दर्शन दे पिव पीर मिटाई भारी !
अब मेरी  बारी  आई तो , नाक सूज गयी  थारी !!

तू अंतर्यामी है  श्यामा , क्या  तू  समझ नही पावे !
मेरे हृदय पीर पिव भारी , क्या तू जान नही पावे !!

क्या मोसे कछु भूल  हो गयी , या  तू माया  डारि !
तू कहवे तो कान पकड़लूं ,  खोल आँख अब थारी !!

दासी के प्रभु श्यामा सांवरे , पीर समझ अब मोरी !
जल्दी आना देर न करना , दासी , के श्याम मुरारी!!

जय श्री राधे राधे }

Thursday, 2 October 2014

  

                  रावण मार राम घर आये....!
                उसके बाद प्रभु श्री राम के पूछने पर अगस्त्य मुनि के मुख से रावण और कुम्भकरण के जन्म की कथा सुन ना..!!


जब प्रभु श्री राम का  राज्याभिषेक हुआ उनके कुछ दिनों बाद अगस्त्य ऋषि आये , अगस्त्य ऋषि को भगवान ने सभी सभा सहित उठ खड़े हुए और भगवान ने प्रणाम करके कहा
 ऋषिवर ! आपका स्वागत है कहिये मैं आप की क्या सेवा करू तथापि  इस भूमण्डल पर कही कोई  ऐसा प्राणी नही है जो आपकी तपश्या में विघ्न डाल सके , मुनिवर ! आप धर्म के साक्षात विग्रह है लोभ तो आप को छू भी नही गया , बताईये मैं आपका कौन - सा कार्य करूँ ? मुनिवर ! यदपि आप की तपश्या के प्रभाव से ही सारे कार्य सिद्ध हो जाते है तथापि मुझ पर कृपा करके ही मेरे लिए कोई सेवा बताईये।
भगवान से आदर पा कर मुनि बहुत प्रसन्न हुए और
भगवान से अत्यंत विनययुक्त वाणी में बोले , हे दशरथनंदन  मुझे कोई कष्ट नही है कष्ट देने वाला एक ही राक्षस था जिसे आपने मार कर सभी ऋषि मुनियों को अभयदान दे दिया है , हे राजाधिराज ! आपका दर्शन देवताओं को भी  दुर्लब है यही सोच कर मैं यहाँ आया हूँ हे स्वामिन ! अब आप मुझे अपने दर्शन के लिए ही आया समझिए।

 तब प्रभु ने अगस्त्य जी को आदर सहित आसन पर बिठा कर ऋषि से पूछा की मुनिवर ! मैं आपसे कुछ पूछना चाहता हूँ , वो रावण और कुम्भकरण कौन थे और किस कुल के थे  जिसका मेने वध किया था , आप कृपा कर के विस्तार से बताईये।

तब ऋषि ने कहा प्रभो ! आप सब कुछ जानते ही है फिर भी आप मुझे मान दे कर मुझसे कुछ जानना चाहते है तो में बता ता हूँ ,
ऋषि ने कहा प्रभो !
सम्पूर्ण सृष्टि करने वाले ब्रह्मा जी है उनके पुत्र महर्षि पुलस्त्य हुए पुलस्त्यजी से मुनिवर विश्रवा का जन्म हुआ उनकी दो पत्निया थी जो बड़ी पतिव्रता और  सदाचारिणी थी , उनमे से एक का नाम ( मन्दाकिनी ) था और दूसरी ( कैकसी ) नाम से प्रसीद थी।  पहली पत्नी मन्दाकिनी  के गर्भ से 

( कुबेर ) का जन्म हुआ जो लोकपाल के पदको प्राप्त हुए है उन्होंने भगवान शंकर जी से प्रसाद पा कर लंका पुरी को अपना निवास - स्थान बनाया था , और कैकसी के गर्भ से रावण कुम्भकरण हुए , रावण और कुम्भकरण का ,
संध्या काल में गर्भ स्थापित हुआ सो
 ये दुष्ट राक्षस प्रवति के हुए और विभीषण जी धर्मात्मा थे , ये सब ब्रह्माजी के परपौत्र थे ,
एक दिन की बात है ( कुबेर ) अपने माता पिता से मिलने आये थे , वे अपने माता -पिता के चरणो  में बहुत समय तक बैठे रहे और फिर उनको प्रणाम कर अपने मन की गति से चलने वाले विमान पर चढ़ कर चले गए।

 कुबेर को अपने पिता के चरणो मे बैठा देख रावण ने अपनी माँ से पूछा की माँ ! ये कौन था जो मेरे पिता को प्रणाम कर के गया और उनका विमान तो वायु की गति से भी तेज चल रहा था ?

रावण की माँ ने क्रोध में भरकर कहा अरे ! ये मेरी शोत का बेटा है जो शंकर जी की कृपा से लंका का राज्य और मन की गति से चलने वाला विमान प्राप्त कर अपनी माता का गौरव बढ़ाया है , तुम जैसे नही तुम अभागो ने मेरी कोख से जन्म लिए जो कीड़े की
भांति रेंगते हुए इधर उधर फिरते रहते हो ,तुम अपने सौतेले भाई ( कुबेर ) की बराबरी नही कर सकते..!

माँ की बात सुन कर रावण को बहुत दुःख हुआ और माँ से कहने लगा माँ ! ये कीड़े सी हस्ती रखने वाला ( कुबेर ) किस गिनती में आता है , मैं  ( दस  हजार साल ) तपश्या कर पुरे त्रिलोकी का स्वामी न बन जाऊ तो मुझे ( पितृ ) दोस लगे , इतना कह कर रावण तपश्या के लिए निक गया उसके पीछे - पीछे  कुम्भकरण और विभीषण भी तपश्या करने चले गए 

 विभीषणजी धर्मात्मा थे जो उन्होंने ब्रम्हाजी से भगवान की भक्ति मांगी ,
रावण राक्षसी प्रवति का था सो उसने ब्रह्मा जी से अमर होना का वरदान माँगा पर ,

 ब्रह्मा जी ने कहा ,
जो जन्म लेता है उसे मारना ही पड़ता है इसलिए में तुम्हे अमर होने का वरदान नही दे सकता फिर कहा अच्छा ! आप मुझे अमर होने का वरदान नही दे सकते तो इतना दे दीजिये की किसी साधारण मनुष्य के हाथो मेरी मृत्यु न हो , केवल नारायण के हाथो ही मेरी मृत्यु हो , ब्रह्माजी ने कहा तथास्तु ! ऐसा ही हो ,
  फिर उसने बल बुद्धि और त्रिलोक में उनके लिए कुछ भी पाना दुर्लब न हो ,  युद्ध में किसी नर के हाथो मेरी पराजय न हो , ब्रह्मा जी और शंकर जी से ऐसा वरदान माँग कर वो पुरे त्रिलोकी को अपने वष में कर दिया !
   
फिर कुम्भकरण इन्द्राश्न चाहता था , ब्रह्माजी ने सोचा की ये राक्षस मांस भक्षी है , इंद्र आशन पर बैठ गया तब तो कुछ ही दिनो मे पूरी सृष्टि को नस्ट कर देगा , इसलिए ब्रह्माजी और इंद्र की प्रार्थना से देवी सरस्वती उनकी जीवा पर विराजित हो गयी और इन्द्राश्न की जगह जीवा लड़कड़ते हुए कहा , पिता श्री ! मुझे निंदराशन दे दीजिये ,
ब्रह्माजी ने झट से कहा तथास्तु ! ऐसा ही हो , तुम सदा निंदराशन में रहो ,  जीवन भर सोते ही रहो !
'कुम्भकरण हड़बड़ा कर बोले अरे ! ये मेरे मुँह से क्या निकल गया मेरी गलती क्षमा करे मुझे निंदराशन नही , इंद्र - आशन चाहिए , ब्रह्माजी ने कहा अब कुछ नही हो सकता तुमने जो कहा मेने वरदान दे दिया और मैं वरदान दे कर पलटता नही
'रावण गबराय की अगर इसने जिद करके ब्रह्माजी से पाये वरदान को उल्ट पलट करवा दिया तो मेरे भी सारे वरदान उलटे हो जायेंगे ये सोच कर रावण ने ब्रह्माजी से प्रार्थना कर कहा देव ! आप ने जो दिया वो ठीक है बस ये अपने शरीर को जीवित रख सके उसका उपाय बता दीजिये ?


तब बहुत प्रार्थना करने पर ब्रह्मा जी ने कहा अच्छा हाँ ! तुम्हारे निंदराशन को कुछ कम कर सकता हूँ , कुम्भकरण आतुर हो कर बोले हाँ ! हाँ ! महाराज ये ठीक रहेगा।
ब्रह्माजी बोले तुम छः महीनो तक निंद्रा में सोये रहोगे और उसके बाद एकबार निंद्रा से जागने के बाद भोजन करके फिर घोर निंद्रा मे सो जाओगे

कुम्भकरण ब्रह्माजी की बात सुन कर बैठा - बैठा सिर पीटने लगा की ये क्या हो गया , क्या पाने चला था और क्या ले बैठा

फिर कुछ समय बीत जाने के बाद रावण ने कुबेर का रथ छीन लिया और कुटिलता से लंका पर डेरा जमा दिया।
ऋषि कहते है प्रभो ! उसी रावण को आपने समापन किया है उसके अत्याचार से पुरे त्रिलोकी में हा - हा कार मचा हुआ था जो आपने कृपा कर उस दुष्ट को पुरे राक्षसो सही जड़ से उखाड़ कर फेक दिया और अपने 
भक्तो को अभय दान प्रदान कर उनका गौरव बढ़ाया है।
ये कथा अगस्त्य  ऋषि ने भगवान श्री रामजी के पूछने पर ( प्रभु श्रीराम को , श्रीराम दरबार ) में सुनाई थी ! जय श्री सीताराम !!

  { जय जय श्री राधे }


Tuesday, 23 September 2014



       सुखी रहो निंदक सदा , पूर्ण हो हर काम !
       निंदा से हर पाप कटे , मिले प्रभु निज धाम
!!  

अपने आपको सुखी अथवा निष्पाप करना हो तो लोगोको अपनी तरफ से छुट्टी दे दो की खूब निंदा करो , निंदा करने वालो का विरोद मत करो , कोई झूटी निंदा करे तो चुप रहो सफाई मत दो , सत्यकी सफाई देना सत्यका निरादर है ,

दूसरे हमे ख़राब समझे तो इसका कोई मूल्य नही है , भगवान दूसरोंकी गवाही नही लेते , दूसरा आदमी अच्छा कहे तो हम अच्छे होजाएंगे ऐसा कभी होगा नही
हमारे मनमे एक ही भाव हो , की
'हे नाथ ! मेरे कर्मोंका आप कितना खयाल रखते है की मैंने न जाने किस - किस जन्मोंमे किस - किस परिथिति में परवश होकर क्या - क्या कर्म हिये है , उन सम्पूर्ण कर्मोसे सर्वथा रहित करनेके लिए आप कितना विचित्र विधान करते है ! मैं तो आपके विधानको किंचिमात्र भी समझ नही सकती और मुझमे आपके विधानको समझनेकी शक्ति भी नही है।, इसलिए हे प्राणधन ! मैं उसमे अपनी बुद्धि क्यों लगाऊ , मुझे तो केवल आपकी तरफ ही देखना हैं , कारण की आप जो कुछ विधान करते हैं उसमे आपका ही हाथ रहता है अथवा वह आपका ही किया हुआ होता है , जो की मेरे लिए परम मंगलमय , आनंदमय है ,
'हे भक्तो के प्राण धन , भक्तवत्सल भगवान ! आप कभी जीव का अहित नही करते
इसलिए सच्चे हृदय से स्वीकार करलो की
हमे जो भी मिलता है , भला , बुरा , सुख ,दुःख सब हमारे कर्मोंके अनुसार ही मिलता है इसलिए हर पल , हर परिथिति में भगवान का सुक्रिया अदा करते रहना चाहिए....!!

        { जय जय श्री राधे }


    यमलोकन की रीती न्यारी देख सोच फिर ल्यावे !
   जे हरी भजन करे नर कोई उन्हें दण्डोत कर आवे !!


यम लोक से कोई दूत यमराज की आज्ञा से इस मृत्यु लोक की और चलता है तो यमराज पूछते है की कहा जा रहे हो ? तब यमदूत बताते है की , इस मृत्युलोक के अमुख देस के , अमुख राज्य के , अमुख तहसील के , अमुख गाँव के , अमुख नाम के , अमुख जाति के , अमुख परिवार के , अमुख अवस्था वाले व्यक्ति के जाने का समय हो गया है हम उसको लाने के लिए जा रहे है , ऐसे कह कर यमराज के पार्षद चल पड़ते है।

यमदूतों को यमराज को पूरा - पूरा पता बताना पड़ता है अन्यथा एक देश के , एक राज्य के , एक नाम के बहुत से व्यक्ति होते है ,
 कभी एक नाम के अधिक नाम के होने से कई बार यमदूतों को चक्कर पड़ जाता है।
गीताप्रेस के ( परलोक पुनर्जन्मान्तर ) में ऐसी कई घटनाए है जो नाम के चक्कर से कोई दूसरे व्यक्ति को ले आते है ,
तब यमराज कहते की अरे ! ये तुम किसको ले आये हो ? अभी इनका समय पूरा नही हुआ। तब यमदूत उस व्यक्ति के आत्मा को यमराज की डाट सुन कर हड़बड़ा कर उस आत्मा को वापिस ले जाते है तब कभी कबार हड़बड़ा कर यमदूत कहते है की अरे भाई ! ले ! ले ! ये रहा तेरा शरीर वापिस प्रवेश कर ले , तब ऐसे व्यक्ति के झटके से प्राण वापिस आ जाते है , और कभी कबार यमदूत क्रोध में होते है तो कहते है , ले ये रहा तेरा शरीर जा घुस जा !

तब उसको सोचने का अवसर मिल जाता है और वो जीव सोचता है और देखता  है की मुझसे प्रेम करने वाले मेरे सगे - सम्बन्धी तो मुझे जलाने की तैयारि में लग गए अब मुझे इस शरीर में वापिस नही जाना , तब वो आत्मा भटक कर भूत योनि को प्राप्त होती है।

पर एक मार्मिक बात है ! जब यमराज के यमदूत मृत्यु - लोक मे किसी को लेने जाते है तब यमराज यमदूतों के कान के पास जाकर धीरे से कहते है की जा तो रहे हो पर सुन लो ! जो व्यक्ति कथा - कीर्तन करते हुए झूम रहा हो , जो भगवत नाम में तलिन हो , ऐसे व्यति को तुम दण्डोत करके आ जाना उन्हें छूने का साहस भी मत करना


यमदूत कहते है ऐसा क्यों ? यमराज ने कहा की जो भगवत चरित्र से प्रीति करता हो, जो भगवत नाम से प्रेम करता हो , जो कथा - कीर्तन में झुम रहा हो , मैं ऐसे लोगो का स्वामी नही हूँ , मैं तो भगवान से विमुख लोगो का स्वामी हूँ जो कथा कीर्तन भगवतनाम से विमुख प्राणी है मैं ऐसे लोगो का स्वामी हूँ।

यमराज के पार्षद बोले , महाराज ! चाहे वो सत्संगी हो , चाहे वो भगवत प्रेमी हो पर उससे कोई अपराद अथवा कोई पाप बन जाये तब तो आपके दरबार में उसको हाजरी लगानी ही पड़ेगी


 यमराज बोले ऐसा भूल कर भी मत सोचना और तुम मेरी बात ध्यान दे कर सुन लो !
जो भगवान के भक्त है जो भगवान के प्रेमी अनुरागी ज्ञानी संत है , जो भगवान को अनन्य भाव से भजता है ऐसे अकिंचन भक्त भगवान को अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय है , ऐसे व्यक्ति से चाहे जितना भयंकर अपराद बन जाये चाहे कितना भी बड़ा पापी क्यों न हो पर उनको पाप का दंड देना अथवा पूर्णय का फल देना ये मेरे सीमा क्षेत्र से बाहर है।

अपने भक्तो के पाप पूर्णय का लेखा जोखा तो स्वयं भगवान करते है , अपने भक्तो की बागडोर श्यामसुन्दर स्वयं अपने हाथ में रखते है
और भगवान जीव के सदा हितैसी है वे अपने को अपना कर मानते है अब अपने से चाहे जितना अपराद बन जाये फिर भी कोई अपनी संतान को किसी गेरो के हाथ नही सोप सकता और हमको इतना ही याद रखना चाहिए की हम भगवान के है और एक भगवान ही हमारे अपने है।
    { जय जय श्री राधे }

Sunday, 11 May 2014


पाण्डुपुत्र भीमसेन को भगवान कि भेजी हुई महामाया द्रोपदी का भय ओर उस माया का दर्शन....!

एक बार भीमसेन राजा युधिष्ठर के कक्ष के पास् मे से चले जा रहे थे उन्होने देखा कि महाराज महारानी द्रोपदी के चरणो मे बैठे ऐस आभाष हुआ कि महाराज के साथ महारानी द्रोपदी ऐसे धृष्टता करति है लगता है द्रोपदी गर्व आ गया है पर अगर मेरे साथ ऐसी धृष्टता कि तो मे कैसे सहन कर पाउँगा ?

भीमसेन सीधे स्वाभाव के थे महाराज युधिष्ठर राजा है इस नाते द्रोपदी के चरणो मे बैठे युधिष्ठर देखा तो कुछ ठीक न लगा।
वे चिंतित रहने लगे , उनको रात मे न तो नीँद आति ओर नाहिं पूरा भोजन करते ,
अब वे एकांत मे जा कर भजन कीर्तन करने लगे ,
मुकुंद गोविन्द गोपाल  कृष्ण !
मुकुंद गोविन्द गोपाल  कृष्ण !!

कीर्तन मे भीमसेन इतने तन्मय हो गये की , उनका दुखी उदास मन मगन हो गया शरीर भी रोमांचित हो ग़या , नेत्र बन्ध है , वे झूम - झूम कर कीर्तन कर रहे थे , उनका कंठ पहले से हि भारि था पर मश्ती मे ओर भी भारी हो गया।

संगीत का स्वर सुनकर मृग दौड़े आते होंगेः किन्तु  वह भीमसेन की कीर्तन ध्वनि सुनकर तो मृग ही क्य मृगराज भी घबड़ा कर जंगल मे ओर दूर भाग गया।

भीमसेन का स्वर चाहे जितना भयानक हो पर वे कृष्ण प्रेम मे मगन थे इसलीये भीमसेन कि कीर्तन ध्वनि  सुन कर तो वे एक हि आ सकते है जो प्रेम स्वर समझता हो , प्रेमकी भाषा समझता हो , वे राग धुन स्वर पर नहीँ रीझते , वे प्रेमिके प्रेम से रीझते है ,

भीमसैन कि हृदय पुकार सुनकर श्री कृष्ण वहा आ पहुचे जंहा  भीमसैन कीर्तन कर रहे थे
भीमसेन की तन्मता टूटीं , कीर्तन समापत हूआ।  नेत्र खुला तो सम्मुख देखकर आश्चर्य से वे बोले --- श्रीकृष्ण ,तुम ! इस समय यहाँ ?
श्रीकृष्ण ने अपने पटुके से नेत्र पोंछे और बोले -- "भाई भीमसेन इतना मनोहर कीर्तन तुम करते हो , मै नही जानता था आज तुमने मुझे बहुत आंनद दिया। मैं प्रसन्न हूँ। तुम्हारे मन मे जो आवे वरदान माँग लो।

भीमसेन श्रीकृष्ण को प्रसन्न देखा ओर मगन हो गये की मेरा कीर्तन श्रीकृष्ण को इतना प्रिय लगा।
श्रीकृष्ण ने फिर अनुरोध किया।
 कुछ माँग लो भाई !

कुछ क्षण सोच कर भीम ने कहा -- ये  ऋषि -मुनि बार - बार तुम्हारी माया की बात करते है। कैसी है तुम्हारी माया ? मैं देखना चाहता हूँ श्रीकृष्ण शांत स्वर मे बोले भईया ! मुझे देखो ! मेरी माया को देख  कर क्या करोगे ?
भीमसैन ने आग्रह किया -- तुम्हे तो देखता ही रहा हुँ मधुसूदन पर आज ,तुम्हारी माया दिखने का मन है , उसे भी दिखला दो।

अब उस मधुसूदन ने कह दिया -- अच्छा कल रात्रिके प्रथम परहर में हि आकर उस वटवृक्ष पर छिप कर बैठ जाना ओर सावधान रह कर मेरि माया देखना.


दूसरे दिन प्रथम पहर मे हि भीमसैन अकेले आये ओर उस व्रक्ष पर जमकर बैठ गये।
कुछ क्षण बाद उन्होने देखा तो अनेक तेजोमय देवता आये ओर वह स्थान स्वच्छ करने लगे , उन लोगो ने वहां स्वच्छता कि , सुगन्धित द्रव छिड़का ओर बहुमूल्य आसण बिछया ओर बहुत से देवताः सुन्दर सुन्दर सिंहासन ले कर आने लगे

उन देवताओ ने सिंहासनों की पन्तिया सजा दीं।
एक ज्योतिर्मय दिव्य सिँहासन था जैसे कोइ राजाधिराज आनेवाले हो , फ़िर दो खास सिहासन ओर लगे ओर उसकी बाद तीन ओर विशेष सिँहासन सजाये गये।

भीमसेन ने सोचा कि ,अवश्य हि आज कोई देवताओं कि बैठक यहा होने वाली है।
भींम ने देखा की ब्रह्मा जी सावित्री के साथ , विष्णु गरुड़ पर , ओर पार्वती ज़ी के साथ शिव जी व गणेश ज़ी आये ,
 वे सभी अपने अपने सिंहासन पर बैठ गये ओर बहुत से ऋषी मुनि आये जिनको भीमसैन जानते थे क्यो कि वे उनके वहा आते जाते रहते थे।

अब भीमसैन के चित मे उथल फूथल मचने लगी क़ी ये दिव्य सिंहासन किसके लिये उतनेमे श्रीं क़ृष्ण आये , सभी देवता खड़े हो कर उनका अभिवादन किया , वे सब की ओर देख कर मुश्कुराकर ओर दूसरे सिंहासन पर बैठ गये जहॉ विश्णु भगवान बैठे थे
पर वो एक ज्योतिर्मय दिव्य सिँहासन अब भी खाली है , भीमसैन ने सोचा सब देवताः आ गये फ़िर ये दिव्य सिँहासन खाली क्यो है ?
उतने मे सब देवता उठ खड़े हुए ,
सबने अंजलि बाध कर मस्तक झुकाया।

भीमसेन के नेत्र आश्चर्य से खुले के खुले रह गये उन्होने देखा कि द्रोपदी आई है ओर बिना किसी की ओर देखे जा कर उस दिव्य सिंहासन पर बैठ गयी ,

त्रिदेवो ने उनके सम्मुख आ कर मस्तक झुकाया तो केवल स्मितकपूरवक उन्हे देख लिया।

द्रोपदी ने श्री कृष्ण से पूछा सब आ गए ?
श्रीकृष्ण ने कहा पांडव आ रहें है ,

द्रोपदी ने कहा -- भीम कहाँ है ? तुम देख हि रहें हो कि उसके रक्त के बिना मेरा यह खप्पर अपुर्ण है।

द्रोपदी कि बात भीमसैन ने सूनी तो वे सुरवीर होते हुए भी भय से कापने लगे ऊनके शरिर से स्वेद बहने लगा , उसी समय
 राजायुधिष्ठिर , अर्जुन , नकुल ओर सहदेव आये वे करबद्ध दूर खड़े हो गये

द्रोपदी ने पांडवो की ओर देख कर कहा की मेरे खप्पर को रक्तसे भरने का काम तुम्हे करना है , यह स्मरण रखना ओर क्रोधमे भर कर बोली भीमसैन कहा है ?

देवताओ ने बतलाया वे राजभवन मे नहीँ है।
द्रोपदी ने डाटदिया और कहा पताः लगाओ कि वह कहा है।

सहसा देवर्षि नारद उठ खडे हुए , उनको भी बोलने की अनुमति लेनी पड़ी वे आज्ञा पाकर बोले -- भीम इस समीपके वटवृक्ष पर छिपकर बेठे है
द्रोपदी ने कड़कते स्वरमे आज्ञा दी।  देवदूत ! जलती मषाल हाथ मे लेकर वटवृक्ष के समिप पहुचे।

भीमसेन भय से कापने लगे वे वृक्ष से कुद पङे , वे भाग जाना चाह्ते थे।
भीमसैन ने चकित हो कर इधर - उधर देखने लगे , निचे न कोई देवदूत थे , न कोइ देवसभा थी , न देवता थे ओर न कोइ पांडव थे ओर न द्रोपदी। वह तो कुछ भी नही था।

अब सिर झुकाएं वे नगर कि ओर लौटें ,
श्रीकृष्ण मार्ग मे ही मिल गये ,
 उन्होने पुछा भाई भीमसैन ! तुम इतने खिन्न क्यो हो ?
 तुमने मेरी माया देख ली ?
भीमसेन ने कहा देख ली अब कृपाकर ऎसी माया मुझे कभी मत दिखाना।

श्रीकृष्ण हंसकर भीमसेन के साथ हि राजभवन लौट आये, किन्तु भीमसैन का मुख लटका हि रहा , वे उदास बने रहे , माता  कुंति ने उसे उदासिका कारण पुछा तो भीमसेन रो पड़े , उन्होने जो कुछ देखा  था माँ कुंती को सुना दिया ओर भीमसेन ने माता से कहा की श्रीकृष्ण ने जो कुछ दिखया वह सर्वथा निराधार नहीं हो सकता ,
 यह तो मे समझ गया हूँ कि ( द्रोपदी माहामाया ) है; किन्तु उसका वो अपूर्ण खप्पर मेरे मन से नही उतर रहा है।

माता कुंती ने अपने पुत्र को आश्र्वासन दिया ओर अपने गोद मे सिर रख कर स्नेहसे सहला कर सुला दिया 


प्रातः काल जब देवी द्रोपदी अपनी सास के चरण -वंदना करने आई , यह उनका नित्य नियम था |
 , कुंती माँ ने आशिरवाद देने से पहले कहा -- बेटी ! आज मै तुमसे कुछ माँगना चाहती हूँ यदि तुम मुझे निरास न करने का वचन दो।

द्रोपदी ने सहज भावसे कह दिया , माताज़ी ! आप आज्ञा करे।
कुंती ने कहा बहु !मुझे मेरे पाचो पुत्रोके जीवीत रह्ने का वर्दान दें

द्रोपदी ने सिर झुका लिया ओर अपने दातो तले जिव्हां चबाई ओर दो क्षण रूककर कहा  -- अच्छा माता जी ! ऐसा ही होगा।

अब वे श्री कृष्ण से मनमे कहने लगी श्रीकृष्ण ! तुम्हारी इच्छा पूर्णहो , क्योकि मै ( महामाया ) हुँ ये  तुम्ने भीम को दिखला दिया।

अब सोचने की बात यह है की द्रोपदी ने पांडवो को ऐसा क्यो कहा की मेरे

 ( खप्पर को रक्तसे ) भरने का काम तुम्हे करना है , यांनी वे भगवानकी भेजीं हुई ( महामाया ) हीं थीं जो पाँडवों को निमित बना कर पृथ्वी का भार हरने  के लिये हि पाचों पाँडवों कि पत्नि बन कर आयी थी। 

पता नही भीमसेन ने यह घटना न देखि होती तो महभारत युध्द मे भीमसैन बच भी पातें या नहीँ...! 

 { जय श्री राधे राधे } 


                                हीरे  मोती हार से मुझे न कोइ काम !
                इन मे जब सबते नहिं मेरे स्वामी राम !!


त्रिलोक विजय रावण ने तीनो लोको पर विजय प्राप्त करके ब्रह्माण्ड के जो श्रेष्ठ श्रेष्ठ मणीये थे उनमे से चुन - चुन कर एक रत्नजड़ित मणियों का हार बनाया था जो कह्ते है कि वो ( हार ) लंका मे सबसे मूल्यवान वस्तु थीं।

जब भगवान श्री रामजी का राज्याभिषेक हो रहा था उस समय चारो वेदो ने भगवान कि स्तुति की ओर उपहार के रूप मे उपस्थित हुए , सभी देवी देवताओ ने स्तुति की ओर सबने कुछ न कुछ भेट अर्पित किये ,
विभीषणजी ने भी प्रभु श्रीराम को भेट अर्पित की जो लंका मे सबसे श्रेष्ठ वस्तु थी ,

लंकापति रावण के मर जाने के बाद लंका का राज्य अधिकारी  विभीषणजी ही थे , उन्होने वो रत्नजड़ित मणीयो का हार भगवान श्रीराम जी  को भेट कर दिया
ओर प्रभु श्रीराम , दी हुई भेटो को उन्ही लोगो मे बाट रहे थे।

उस समय उस रत्नजड़ित मणीयो के हार का लोभ सबके मन मे होने लगा कि ये हार तो , राम जी हम को हीं आशीर्वाद के रूप मे भेट करेंगे

जामवंत जी ने सोचा की इस सभा मे सबसे वृद हम हीं है तो शायद  ये अमूल्य हार हमको ही भेट कर दे।

अंगद सोच रहे थे कि मेरे पिता ने मरते समय मेरा हाथ श्रींरामज़ी के हाथ मे दे दिया था कि अब आप मेरे बालक को अपना सेवक बनाये रखियेगा तो शायद हम को ही दे दे ,

विभीषणजी के मन मे भी भारी लोभ हो रहा था वे सोच रहे थे कि प्रभु के मन मे तो कोई लोभ है नही सो हम को ही वापिस प्रसाद के रूप मे भेट कर देंगे ओर कहेंगे कि हमारी प्रसादी हो चुकी अब ये लो।

सबकी नजर प्रभु से हठ कर उस हार पर लग गयी ओर सबके मन मे उथल - फुतल मच गयीं कि ये हार हम को ही मिलेगा।

पर उन सभा मे एक हनुमानजी हीं ऐसे थे जिनकी नजर सिर्फ़ श्री सीताराम के चरणो मे लगी हुई थी।

प्रभु अन्तर्यामी है , सबके मन की जान गये ओर सोचा कि इस रत्नजड़ित हार का लोभ सबके भीतर आ गया  है अगर हम अपने हाथो किसी एक को दे देंगे तो ओर कोई मुँह फुला देंगे कि हमको नही दिया  ,ये सोच कर रामजी ने उसी क्षण सीताजी के हाथ मे वो हार दे दिया।
सीता मईया को ओर तो क़ोई दिखा नही चरणो मे बैठे हनुमानजी दिखे सो उन्ही के गले मे वो हार डाल दिया।

अब सबके मन मे उथल - फुतल मची हुए थीं वो मिट गयी , बोले कोई बात नही रामजी ने माता जी को दिया ओर माता जी ने हनुमानजी के गले मे डाल दिया।

पर जब हनुमानजी के गले मे हार पड़ा तो वे अचानक चौके ओर सोचे कि अरे ! ये क्या ? हनुमानजी प्रभु के सेवा मे बैठे थे उनका ध्यान सिर्फ़ चरणो मे था अचानक गले मे पडी वस्तु को देख वे चौक उठे ,
गले से हार उतार कर मणियों को घुमा घुमा कर देखने लगे ओर एक एक मणिया को अपने वज्रतुल्य दातो तले चबा - चबा कर तोड़ने लगे

हनुमानजी का वो लड़कपन देख कर  प्रभु श्री राम हसने लगे और सीता जी भी हंस रही थी। उस राज सभा मे सब हनुमानजी को आश्चर्य से देख रहे थे ओर हंस रहे थे पर विभीषण जी को अपने मन मे बहुत पीड़ा हो रही थी , वे सोच रहे थे कि ये कपि मुर्ख क्या जाने अनमोल रत्नो को।

 हनुमानजी एक एक करके उन मणीयो को तोडते जा रहे थे ओर घुमा घुमा कर उनको घोर से देखे जा रहे थे
 कि इसमें तो मेरे प्रभु का कही नाम नही है ये मणीये मेरे किसी  काम के नही |

विभीषण जी कुछ देर तो चुप रहे पर जब उन कि दी हुए भेट को छिन - भिन् होते देखा तो वे बोले
हनुमानजी ! क्षमा करना मेरे जैसे छोटे सेवक को जहा रामराजा सरकार बैठे हो वह कुछ बोलना उचित नही है पर अब असह्य हो गया , क्या आप नही जानते ये रत्नजड़ित मणीयो का हार लंका कि सबसे श्रेष्ठ वस्तुं है जो प्रभु श्रीं रामजी ने जानकी माँ को दी। ओर माता ने कृपापुरवक आपके गले मे डाली ओर आप इस अमूल्य रत्नजड़ित हार को आपने वज्रतुल्य दातो के तले काट - काट कर नष्ट किये जा रहे है !

हनुमानजी मुस्कुरा कर बोले विभीषण ज़ी ! आपकी दृष्टि मे ये अमूल्य मणीये हो सकते है पर मेरे लिये तो सब पत्थर एक जैसे हि होते है कुछ मणीये चमकने वाले होते है ओर कुछ कम चमकने वाले।।।

विभीषण ज़ी बोले पर आप इन्हे तोड़ क्यो रहे हैं ? बोले मै देख रहा हूं कि इसमे मेरे प्रभु का नाम है कि नही , इनमे ना मेरे प्रभुका नाम है ओर नाही मेरे प्रभु कि छवि तो ये आपके काम कि चीज हो सकती है पर मेरे किसी काम कि नही...

विभीषण ज़ी को क्रोध आया ओर बोले क्षमा करना हनुमानजी , इन मणियों को तो तोड़ तोड़ कर परीक्षा कर रहे हो कि इसमें राम नाम है कि नही पर आप , ये ( देह ) लिये घूम रहे हो कभी इसमें देखा है कि इसमें राम नाम है कि नही ?

हनुमानजी बोले अरे ! विभीषण ! लगता है तुमने अभी तक मेरे स्वरुप को देखा नही है , मेरे शरीर रूपी चोले मे श्रीराम नाम ओर श्री राम रूप के अतिरिक्त ओर कुछ भी नही है ,

विभीषण ज़ी ने कहा  महाराज ! कथा प्रवचन मे तो बहुत लम्बी चौड़ी बढ़ाई होती है कि आप वक्ताओं मे श्रेष्ट है , प्रभु श्री राम जी के प्रेम प्रिय श्रेष्ट भक्त है पर प्रत्यक्ष करके दिखाओ तो जाने।

हनुमानजी ने कहा अवश्य !

हीरे मोती हार से मुझे न कोइ काम !
इन मे जब सबते नहिं मेरे स्वामी राम !!  
जो तुम चाहो देखना हृदय दिखाऊ चीर !
मेरे ह्रदय मे बसे सिया संग रघुवीर !!
राम भक्त हनुमानजी ने सबके देखते हि देखते
( श्री राम ,जय राम , जय जय राम ), कह कर अपने चरम को एक साथ उधेड़ कर रख दिया जहा हनुमानजी के चरण से लेकर ललाट तक समपूर्ण श्री अंग मे ( श्री राम नाम ) विराजमान था फ़िर अपना सीना चिर कर दिखाया जिसमे श्रीसीताराम ज़ी विराजमान थे

विभीषण ज़ी हनुमानजी का स्वरुप देख कर उनके चरणो मे गिर गये , उनके चरण पकड़ लिये ओर क्षमा करो - क्षमा करो कह कर दण्डोत करने लगे ,
सब सभा के शिष हनुमानजी के चरणो मे गिर गये
सभी सभासद एक साथ हनुमानजी की  जय जय कार करने लगे।
अंजनी पुत्र पवनसुत वीर ,

आप कि जै हो, जय हो , जय हो !!
श्री राम जय राम जय जय राम !!  

   { जय श्री राधे राधे }


Saturday, 3 May 2014

                || हनुमानजी के जन्म कि कथा ||

हनुमानजी कि माता अंजनी ब्रह्मलोक कि एक दिव्य अपशरा थी।  उनका नाम पुज्यकस्थला था  उनसे ब्रह्मलोक में एक अपराध हो  गया और ब्रह्मा जी ने श्राप दे दिया कि तुझे ब्रह्मलोक से  धरतीलोक में जाना पड़ेगा।

वही पुज्यकस्थला धरती पर अंजनी जी के रूप में प्रकट हुई। उनका विवाह वानरराज केशरी जी के साथ हुआ , केशरी जी बहुत  बलशाली थे , जब उनकी भुजाओ में खुजली मचती , उस समय उनमे अपार बल आ जाता और बड़े बड़े पर्वतो को उछालने लग जाते।

वे बड़े- बड़े पहाड़ पर्वत खंड - खंड हो कर निचे गिरते तब कभी किसी  ऋषि के आश्रम में जा पड़ते तो कभी बहुत से ऋषिमुनियों कि मण्डली में जा गिरते उन पहाड़ो के टुकड़ो से ऋषि चोटिल हो जाते , उस समय सब ऋषिमुनियों का समाज दुखी होने लगा और कहा कि  जब ये इतना बलवान है कि खुजली मचने पर बड़े बड़े पहाड़ उखाड़ कर  फेक डालता है तो इनकी संतान होगी तब कितनी बलवान होगी  ये सोच कर उस समय सभी ऋषियोंने केशरीजी को श्राप दे दिया कि तुम संतानहीन होंगे तुम्हारे द्वारा कभी कोई तुमे संतान प्राप्त नही होगी।

 केशरी जी ऋषियों का श्राप सुनकर ब्रह्मचार्य का पालन करने लगे और मन ही मन दुखी रहने लगे पर उनकी पत्नी ने कहा स्वामी ! आप दुखी न हो मैं शंकर भगवान से प्रार्थना करके उनसे पुत्र प्राप्ति का आशीर्वास पाऊँगी और वे पर्वत पर  ( पंचाक्षर का ) जप कर ने लगी।

उसी समय शंकर भगवान, विष्णु भगवान के मोहिनी अवतार के दर्शन करने आये तब वे भगवान के मोहिनी रूपसे मोहित हो गए और उनके पीछे - पीछे चल कर गए।
 उस समय भगवान का आमोग तेज स्खलित  हुआ और ऋषियोंने उस तेज को यज्ञ पात्र में सुरक्षित रखा फिर राम कार्य कि सिद्धि के लिए वायु को आज्ञा दी और ऋषियों ने वायु देव से कहा कि शंकर भगवन के इस तेजको अंजनी के दक्षण करण मार्गसे( उदर ) में स्थापित करो।

 वायु देव आये और उन्होंने अंजनी के दक्षण करण मार्गसे शंकर भगवान का तेज अंजनी के गर्भ में स्थापित किया , तब जप कर रही अंजनी जी को लगा कि किसी ने मेरा स्पर्श किया , किसी ने मेरे भीतर प्रवेश किया है।

 वे क्रोधसे तिलमिला उठी और बोली कौन है ? जिसने मेरा स्पर्श किया , मैं पतिव्रता नारी हूँ , जिसने भी मेरा स्पर्श किया वो तुरंत मेरे सामने आ जाए अतः में श्राप दे दूंगी।

 अंजनी जी का क्रोध देख कर वायु देव प्रकट हुए और कहा देवी ! मैं  वायु हूँ , आप का सतीत्व पूर्णतया सुरक्षित है , आप का पतिव्रता  व्रत  खंडित नही हुआ है।
 ऋषियोंके आदेश से मैंने ही आपके गर्भ में शंकर भगवान का तेज स्थापित किया है , आप के गर्भ से साक्षात् शंकर भगवान का रूप जन्म लेंगे, जो प्रभु श्री राम कार्य में सहायक होगा ,
उतना कह कर वायु देव अंतरध्यान हो गए और कुछ  समय बीतने पर केशरी नंदन अंजनी के पुत्र हनुमान जी का जन्म हुआ यही बजरंग बली इतने बलशाली है कि आज तक उन्होंने पूरा बल तो कभी दिखाया ही नही कुछ बल से ही सोने कि लंका जला दी ,और प्रभु श्री राम व्   रावण युद्ध में सहायक बने..
 जय श्री राम !!
   { जय श्री राधे राधे }

                       || हनुमानजी का बल ||

रावण ओर प्रभु श्री राम के बीच युद्ध हो रहा था उनमे 80 हजार राक्षश ऐसे थे जिन्होने ब्रह्माजी का तप करके ब्रह्माजी से अजर - अमर होने का वरदान प्राप्त किय था ओर रामजी के सिवाय वे किसी से मारे नही जा रहे थे , वे रोज युद्ध करते ओर बहुत बलपूर्वक लड़ते पर किसी से मारे नही मरते।
इसपर भगवान श्री राम चिंता कर रहे थे कि अगर हम इन राक्षसो को मारते है तो ब्रह्माजी का वरदान झूठा होता है ओर न मारे तो ये युद्ध कैसे जीता जाये ? हनुमानजी मुस्कराये ओर बोले प्रभु ! आप चिंता न करे , अगर आप कि आज्ञा हो तो ऎसा कुछ हो जाये जिससे ब्रम्हाजी का वरदान भी झूठा न होगा वे युद्धसे मरेंगे भी नही ओर युद्ध से भी भाग जायेंगे।

प्रभु श्री राम बोले वो कैसे ?
हनुमानजी बोले प्रभु ! आप देखते जाइये।
प्रभु श्रीरामजी के देखते ही देखते हनुमानजी ने अपनी पूछ को खूब लम्बी चौड़ी फैला कर उन सभी राक्षसो को कस कर ऐसा बाँध लिया जैसे कोइ किसान हरि- हरि घास काट कर पूला बना कर कस के बांधते है , ऐसे हि हनुमानजी ने उन सबको गट्ठा बना कर कस कर बाँध कर घुमाकर तीव्रगति से ऎसी जगह फैका जहा वायुमंडल कि सीमा के उपर आलात चक्र के समान बहुत तेज हवा चलती है।

वे राक्षस बेचारे चिलाते जा रहे थे की छोड़ दो , छोड़ दो ! हम युद्ध नही लड़ेंगे पर हनुमानजी ने कहाँ अरे ! भाई नही - नही तुमने अजर - अमर होने का वरदान पाया है न ! अब अजर - अमर हो कर घुमो इस वायु मंडल के उपर।
कहते है कि आज भी वे राक्षस वायु मंडल के उपर घूम रहे है। वे राक्षश सूककर कंकाल हो गये है पर अभी तक मरे नही।

प्रभु श्रीराम , हनुमानजी के बल की सराहना करते हुए कहते है कि हनुमान ! तुम्हारे जैसा बल न तो काल मे है , न ब्रह्मा मे है ओर न इंद्र मे है ..।

हनुमानजी प्रभु श्री रामजी के दास ठहरे उनको किसि बल का अभिमान कैसे हो सकता हैं , वे दीनता से अपने स्वामी के चरणोमे
सिर नवाकर बोले , प्रभु ! ये सब आप कि कृपा से हि होता है..।
जय श्री सीताराम ,

{ जय श्री राधे राधे }

Thursday, 24 April 2014

           || महाभारत में हनुमानजी का आवेश ||

जब महाभारत युद्ध हो रहा था उस समय भीमसेन चिंता कर रहे थे की राजा युधिष्ठर बाणो से  बहुत आहत हो गए थे उन्हें देखने अर्जुन गए है वे भी कही दिख नही रहे है , देवताओंसे यही प्रार्थना करता हूँ की वे सुरक्षित हो।

उतने में उनका सारथि विशोकने हंसकर कहा महाराज ! आप चिंतित न हो , श्रीकृष्ण आप के पक्षमे है और आज कल देवताओ को आप सबकी  प्रार्थना तत्काल सुन लेने का अभ्यास हो गया है , आपकी मनोकामना पूर्ण हो गयी ,  वे देखिये ! आप अपने अर्जुनके धनुष का भयंकर जयघोष सुन सकते है , और वह देखिये ध्वजदण्ड के साथ बैठा रहने वाला ( वानर पवनपुत्र ) ध्वजापर चढ़ कर चारो और देख रहे है , उसकी दृष्टि से दूसरे तो दूर पर मैं स्वयं बहुत डर रहा हूँ।

ऐसा पढ़ने में आता है की अर्जुन के रथ पर बैठे हनुमानजी कभी कबार खड़े हो कर कौरवो की सेना की और घूर कर देखते तो उस समय कौरवो की सेना तूफान की गति से युद्ध भूमि को छोड़ कर भाग निकलती , हनुमानजी की दृष्टि का सामना करने का साहस किसी में नही था , उसदिन भी ऐसा ही हुआ था जब कर्ण और अर्जुन के बीच युद्ध चल रहा था।

कर्ण अर्जुन पर अत्यंत भयंकर बाणो की वर्षा किये जा रहा था उनके बाणो की वर्षा से श्रीकृष्ण को भी बाण लगते गए , अतः उनके बाण से श्रीकृष्ण का कवच कटकर गिर पड़ा और उनके सुकुमार अंगोपर लगने लगे , रथकी छत पर बैठे (पवनपुत्र हनुमानजी ) एक टक निचे अपने इन आराध्य की और ही देख रहे थे।
श्रीकृष्ण कवच हीन हो गए थे , उनके श्री अंगपर कर्ण निरंतर बाण मारता ही जा रहा था , हनुमानजी से यह सहन नही हुआ , आकस्मात् वे उग्रतर गर्जना करके दोनों हाथ उठाकर कर्णको मार देने के लिए उठ खड़े हुए।

 हनुमानजी की भयंकर गर्जना से ऐसा लगा मानो ब्रह्माण्ड फट गया हो , कौरव- सेना तो पहले ही भाग चुकी थी अब पांडव पक्षकी सेना भी उनकी गर्जना के भय से भागने लगी , हनुमानजी का क्रोध देख कर कर्णके हाथसे धनुष छूट कर गिर गया।

भगवान श्रीकृष्ण तत्काल उठकर अपना दक्षिण हस्त उठाया और हनुमानजी को स्पर्श करके सावधान किया -- रुको ! तुम्हारे क्रोध करने का समय नही है।
श्रीकृष्णके स्पर्श से हनुमानजी रुक तो गए किन्तु  उनकी पूछ खड़ी हो कर आकाश में हिल रही थी , उनके दोनों हाथोंकी मुठियां बंध थीं , वे दाँत कट- कटा रहे थे और आग्नेय नेत्रों से कर्णको घूर रहे थे , हनुमानजी का क्रोध देख कर कर्ण और उनके सारथि काँपने लगे  और स्वेद धरा चल रही थी दोनों ने दृष्टि निचे कर रखी थी।

हनुमानजी का क्रोध शांत न होते देख कर श्रीकृष्ण ने कड़े स्वर में कहा हनुमान ! मेरी और देखो , अगर तुम इस प्रकार कर्णकी और कुछ क्षण देखोगे तो कर्ण तुम्हारी दृष्टि से ही मर जाएगा।
यह त्रेतायुग नही है।  तुम्हारे पराक्रमको तो दूर तुम्हारे तेज को भी कोई यहाँ सह नही सकता।  तुमको मैंने इस युद्धमे शांत रहकर बैठने को कहा है।
फिर हनुमानजी ने अपने आराध्यदेव की और निचे देखा और शांत हो कर बैठ गए ,

    { जय श्री राधे राधे }

Wednesday, 2 April 2014

 गणगोर कथा
एक बार भगवान शंकर तथा पार्वतीजी नारदजी के साथ भ्रमण को निकले। चलते-चलते वे चैत्र शुक्ल तृतीया के दिन एक गाँव में पहुँच गए। उनके आगमन का समाचार सुनकर गाँव की श्रेष्ठ कुलीन स्त्रियाँ उनके स्वागत के लिए स्वादिष्ट भोजन बनाने लगीं।

भोजन बनाते-बनाते उन्हें काफी विलंब हो गया। किंतु साधारण कुल की स्त्रियाँ श्रेष्ठ कुल की स्त्रियों से पहले ही थालियों में हल्दी तथा अक्षत लेकर पूजन हेतु पहुँच गईं। पार्वतीजी ने उनके पूजा भाव को स्वीकार करके सारा सुहाग रस उन पर छिड़क दिया। वे अटल सुहाग प्राप्ति का वरदान पाकर लौटीं। तत्पश्चात उच्च कुल की स्त्रियाँ अनेक प्रकार के पकवान लेकर गौरीजी और शंकरजी की पूजा करने पहुँचीं। सोने-चाँदी से निर्मित उनकी थालियों में विभिन्न प्रकार के पदार्थ थे।

उन स्त्रियों को देखकर भगवान शंकर ने पार्वतीजी से कहा- 'तुमने सारा सुहाग रस तो साधारण कुल की स्त्रियों को ही दे दिया। अब इन्हें क्या दोगी?'

पार्वतीजी ने उत्तर दिया- 'प्राणनाथ! आप इसकी चिंता मत कीजिए। उन स्त्रियों को मैंने केवल ऊपरी पदार्थों से बना रस दिया है। इसलिए उनका रस धोती से रहेगा। परंतु मैं इन उच्च कुल की स्त्रियों को अपनी उँगली चीरकर अपने रक्त का सुहाग रस दूँगी। यह सुहाग रस जिसके भाग्य में पड़ेगा, वह तन-मन से मुझ जैसी सौभाग्यवती हो जाएगी।'
ND
जब स्त्रियों ने पूजन समाप्त कर दिया, तब पार्वतीजी ने अपनी उँगली चीरकर उन पर छिड़क दी। जिस पर जैसा छींटा पड़ा, उसने वैसा ही सुहाग पा लिया। तत्पश्चात भगवान शिव की आज्ञा से पार्वतीजी ने नदी तट पर स्नान किया और बालू की शिव-मूर्ति बनाकर पूजन करने लगीं। पूजन के बाद बालू के पकवान बनाकर शिवजी को भोग लगाया।

प्रदक्षिणा करके नदी तट की मिट्टी से माथे पर तिलक लगाकर दो कण बालू का भोग लगाया। इतना सब करते-करते पार्वती को काफी समय लग गया। काफी देर बाद जब वे लौटकर आईं तो महादेवजी ने उनसे देर से आने का कारण पूछा।

उत्तर में पार्वतीजी ने झूठ ही कह दिया कि वहाँ मेरे भाई-भावज आदि मायके वाले मिल गए थे। उन्हीं से बातें करने में देर हो गई। परंतु महादेव तो महादेव ही थे। वे कुछ और ही लीला रचना चाहते थे। अतः उन्होंने पूछा- 'पार्वती! तुमने नदी के तट पर पूजन करके किस चीज का भोग लगाया था और स्वयं कौन-सा प्रसाद खाया था?'
IFM
स्वामी! पार्वतीजी ने पुनः झूठ बोल दिया- 'मेरी भावज ने मुझे दूध-भात खिलाया। उसे खाकर मैं सीधी यहाँ चली आ रही हूँ।' यह सुनकर शिवजी भी दूध-भात खाने की लालच में नदी-तट की ओर चल दिए। पार्वती दुविधा में पड़ गईं। तब उन्होंने मौन भाव से भगवान भोले शंकर का ही ध्यान किया और प्रार्थना की - हे भगवन! यदि मैं आपकी अनन्य दासी हूँ तो आप इस समय मेरी लाज रखिए।

यह प्रार्थना करती हुई पार्वतीजी भगवान शिव के पीछे-पीछे चलती रहीं। उन्हें दूर नदी के तट पर माया का महल दिखाई दिया। उस महल के भीतर पहुँचकर वे देखती हैं कि वहाँ शिवजी के साले तथा सलहज आदि सपरिवार उपस्थित हैं। उन्होंने गौरी तथा शंकर का भाव-भीना स्वागत किया। वे दो दिनों तक वहाँ रहे।

तीसरे दिन पार्वतीजी ने शिव से चलने के लिए कहा, पर शिवजी तैयार न हुए। वे अभी और रुकना चाहते थे। तब पार्वतीजी रूठकर अकेली ही चल दीं। ऐसी हालत में भगवान शिवजी को पार्वती के साथ चलना पड़ा। नारदजी भी साथ-साथ चल दिए। चलते-चलते वे बहुत दूर निकल आए। उस समय भगवान सूर्य अपने धाम (पश्चिम) को पधार रहे थे। अचानक भगवान शंकर पार्वतीजी से बोले- 'मैं तुम्हारे मायके में अपनी माला भूल आया हूँ।'

'ठीक है, मैं ले आती हूँ।' - पार्वतीजी ने कहा और जाने को तत्पर हो गईं। परंतु भगवान ने उन्हें जाने की आज्ञा न दी और इस कार्य के लिए ब्रह्मपुत्र नारदजी को भेज दिया। परंतु वहाँ पहुँचने पर नारदजी को कोई महल नजर न आया। वहाँ तो दूर तक जंगल ही जंगल था, जिसमें हिंसक पशु विचर रहे थे। नारदजी वहाँ भटकने लगे और सोचने लगे कि कहीं वे किसी गलत स्थान पर तो नहीं आ गए? मगर सहसा ही बिजली चमकी और नारदजी को शिवजी की माला एक पेड़ पर टँगी हुई दिखाई दी। नारदजी ने माला उतार ली और शिवजी के पास पहुँचकर वहाँ का हाल बताया।

शिवजी ने हँसकर कहा- 'नारद! यह सब पार्वती की ही लीला है।'

इस पर पार्वती बोलीं- 'मैं किस योग्य हूँ।'

तब नारदजी ने सिर झुकाकर कहा- 'माता! आप पतिव्रताओं में सर्वश्रेष्ठ हैं। आप सौभाग्यवती समाज में आदिशक्ति हैं। यह सब आपके पतिव्रत का ही प्रभाव है। संसार की स्त्रियाँ आपके नाम-स्मरण मात्र से ही अटल सौभाग्य प्राप्त कर सकती हैं और समस्त सिद्धियों को बना तथा मिटा सकती हैं। तब आपके लिए यह कर्म कौन-सी बड़ी बात है?' महामाये! गोपनीय पूजन अधिक शक्तिशाली तथा सार्थक होता है।

आपकी भावना तथा चमत्कारपूर्ण शक्ति को देखकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई है। मैं आशीर्वाद रूप में कहता हूँ कि जो स्त्रियाँ इसी तरह गुप्त रूप से पति का पूजन करके मंगलकामना करेंगी, उन्हें महादेवजी की कृपा से दीर्घायु वाले पति मिलेगा।

 { जय श्री राधे राधे }