कलयुग काली कोटरी , जा को चाहे ना कोय !
कलयुग मारन जो चला , बैठा बुधि खोय !!
कलयुग का समय आते ही कलयुग ने अपना रंग दिखाना सुरु कर दिया जब वो राजशाही वैश धारण कर हाथ में डंडा लिए , गाय - बैल के एक जोड़े को इस तरह पिटते हुए जा रहा था जैसे उनका कोई स्वामी ही नही हो।
उस समय पृथ्वी माँ ने गाय और धर्म ने बैल का रूप धारण कर रखा था।
धर्म रूपी बैल के तीन पैर ( त़प , पवित्रता , और दया ) ये तिन पैर टूट जाने से वह एक पैर पर ही चल रहे थे जिनका नाम था ( सत्य )
जब राजा परीक्षित ने देखा की राजशाही वैश धारण किये हुए काला कलूट एक दुष्ट व्यक्ति एक पैर पर चल रहे बैल और दुबली श्रीहीन गाय को पिटता ही जा रहा है , तब राजा परीक्षित ने अपना धनुस चढ़ा कर मेघ के सामान गभीर वाणी से उनको ललकार ते हुए बोले अरे ! दुष्ट तू कौन है जो बलवान हो कर भी तू मेरे राज्य के इन दुर्बल निरपरद प्राणियों को बलपूर्वक मारता ही जा रहा है ?
अरे ! पापी
तूने नट की तरह वैष तो किसी राजा सा धारण कर रखा है पर कर्म से तू सूत्र जान पड़ता है।
इस तरह गर्जना करते हुए जब राजा परीक्षित अपने तीर कबान ले कर उनको मारने लगे तब कलयुग ने सोचा की अब मैं इस राजा के बाण से बच नही सकूँगा अब राजा मुझे मार ही डालेंगे , तब कलयुग ने अपना राजशाही वेश झट पट उतर कर राजा परिक्षीत के चरणों में घिर पड़ा , बोल महाराज आप मुझे मारिये मत में कलयुग हूँ
मेरा काम है पाप ,कूट , कपट , चोरी , दरिद्रता , उत्पाद , अधर्म , फेलाना। ,आप जानते ही हो राजन बाकि तीनो युग अपना भोग - भोग कर चले गए है अब मेरी ही बारी है , विधाता की आज्ञा से मुझे आना पड़ा आप मुझे शमा कर दीजिये।
राजा परीक्षित पांडवों के पोत्र थे दया उनमे कूट कूट कर भरी हुयी थी। जब राजा ने देखा की कलयुग हाथ जोड़कर विनम्र भावसे प्रार्थना करते हुए उनके चरणों में पड़ा है तो , राजा ने कहा की जब तुम हाथ जोड़कर मेरी शरण में आ गया है अब तुझे कोई नही मार सकता पर तू अधर्म का सहायक है इसलिए तु मेरे राज्य में नही रह सकता ,इस देश में भगवान श्री हरी यज्ञ के रूप में निवास करते है यहाँ तेरा निवास नही हो सकता।
कलयुग बोंला महारज ! तीनो युगों के बाद मेरा ही समय है में जा नही सकता आप मुझे कोई स्थान दे दीजिए।
तब राजा परीक्षित ने कलयुग को चार स्थान दिए थे ,
जो ( मधपान, पर स्त्री गमन ,हिंसा , निर्दयता ,) पर कलयुग ने कहा महाराज ! यहाँ तो कोई परिवार नही बसते यहाँ तो कष्ट ही कष्ट है , आप एक स्थान मुझे और दे दीजिये जहा पूरा परिवार रहता हो , तब कलयुग ने एक स्थान स्वर्ण में मांग लिया , राजा ने कलयुग की बात मान कर कहा ठीक है ,अनीति से कमाए हुए स्वरण में तेरा ही निवास रहेगा |
राजा ने कलयुग को पाँच स्थान ने दे दिए ( झूट , मद , काम ,वैर ,और रजोगुण ) ये पाँच स्थान दे कर राजा घर लोट आये। ,
महाराज परीक्षित ने सोचा की आज मेरे पूर्वजो के खजाने खुलवाता हूँ देखू कितना क्या है , राजा ने खजाने का ताला खुलवाया और उस में रखे हीरे मोती पन्ने से जड़े जेवरात को इधर उधर करते हुए उनकी नजर एक मुकुट पर पड़ी जो राजा ( जरासन ) का था जो अनीति से कमाए हुए स्वर्ण से बना हुआ था।
परीक्षित ने सोचा की आज में ये मुकुट ही पहन लेता हूँ , परीक्षित भूल गया की मेने ही अनीति से कमाए हुए स्वर्ण में कलयुग को वास दिया था।
राजा ने जैसे ही मुकुट अपने सिर पर धारण किया उनमे कलयुग बैठ गया , राजा घोड़े पर सवार हो कर सिकार खेलने निकले जहा उनको बहुत प्यास लगी थी , राजा ने देखा की सामने एक कुटिया है वह पानी पि आता हूँ , राजा बहार से ही उचे स्वर में आवाज लगाने लगा की अरे ,,,,, अन्दर कोई है ? जरा पानी पिला दो भाई !!
राजा ने सोचा की अन्दर से कोई जवाब नही आ रहा है तो वो भीतर चले गए जहा श्रंगी ऋषि अपने इष्ट देव के ध्यान में बेठे , राजा के सर पर काल नाच रहा था सो ऋषि को अनेको गलिय देते हुए की अरे मुर्ख में कब से आवाज लगाये रहा हूँ सुनता नही मुरदा है क्या तू जनता नही में यहाँ का राजा हूँ। फिर भी ऋषि के तरफ से कोई जवाब न पा कर क्रोध में आ कर ऋषि के गले में एक मृत साफ डाल कर चले गए
घर आकर मुकुट को खोला और सोचने लगा की अरे ये मेने क्या अपराद कर दिया जिन हाथो से ऋषि महात्माओ की सेवा किया करता था आज इन्ही हाथो से एक ऋषि के गले में मृत साफ डाल कर आ गया , राजा पछतावे की आग में जल ही रहा था , उतने में राजा के पास खबर आ गयी की जिन ऋषि के गले में आप ने मृतक साफ डाल कर आये है , उनके बेटे ने अप को श्राप दिया है की जिसने भी मेरे पिता श्री के गले में मृत साफ डाला है उस की ठीक सातवे दिन तक्षक नाग के डसने से उनकी मृत्यु हो जायेगी।
फिर महाराज परीक्षित उसी समय घर छोड़ कर गंगा के किनारे चले गए जहा सुखदेवमुनि से पूरी भगवत कथा सुनी , जो आज हम सब को सुनने को मिल रही है..!!
{ जय जय श्री राधे }
ईस्वर अंस जिव अबिनासी !
चेतन अमल सहज सुख रासी !!
परमात्मा के अंस होने के कारण हम भी सुखराशी ( सुख का ढेर ) हैं , पर संसार को अपना मानने के कारण हम भी मुफ्तका दुःख पा रहे हैं , इतने पर भी हम चेत नही सकते फिर अपने परमपिता को हम याद ही नही करते , भगवान के सिवाय हमारा कौन है जो सदा हमारे साथ रहे ? यमराज के सामने भी कह दो की मैं भगवान का हूँ , तो यमराज भी थार्रायेगा।
अगर हम भगवान के साथ सम्बन्ध स्वीकार कर ले तो हमारे में स्वाभाविक ही शुद्धि पवित्रता आ जायेगी। हम भगवान के है भगवान हमारे है , इतना कहने मात्र से हमारे में स्वतः पवित्रता आती है, हम भले ही कबुत हो पर हैं तो भगवान के ही हमे केवल अपनी कपुतायी मिटानी है।
कपुतायी हमारे में पीछे से आई है जन्म के पहले नही थी और देवी सम्पति पहले से ही थी। आसुरी सम्पति पैदा होने के बाद आती है जैसे जो सच्च बोलने वाला है वह कितने ही रुपये देने पर भी झूट नही बोल सकता , पर झूट बोलने वाला थोड़े से रुपयों के लोभ से सच बोल देगा।
सच बोलना हमारे स्वाभाव में सदा से है , पर झूट बोलने की आदत डाल ली इसलिए झूट बोलना सुगम दीखता है ,
पर झूट अपनी चीज नही है जो संसार है , और सच सदा से अपनी चीज है जो भगवान है और एक भगवान ही सदासे हमारे अपने है !!
{ जय जय श्री राधे }
मुखसे लेय नाम हरिका , सो हरी भक्त कहलासी !
ह्रदय नाम जपे , हरी वाक़े खुद ही भक्त बन जासी !!
विणा बजाते हुए नारदमुनि भगवान श्री राम के द्वार पर पहुचे।
नारायण नारायण !!
नारदजी ने देखा की द्वार पर हनुमान जी पहरा दे रहे है
हनुमानजी ने पूछा नारद मुनि ! कहा जा रहे हो ? बोले मैं प्रभु से मिलने आया हूँ नारदजी ने हनुमानजी से पूछा प्रभु इस समय क्या कर रहे है बोले पता नहीं पर कुछ बही खाते का काम कर रहे है ,प्रभु रजिस्टर में कुछ लिख रहे है , अच्छा क्या लिखा पढ़ी कर रहे है बोले मुझे पता नही मुनिवर आप खुद ही देख आना
नारद मुनि गए प्रभु के पास और देखा की प्रभु कुछ लिख रहे है , नारद जी बोले प्रभु आप बही खाते का काम कर रहे है ? ये काम तो किसी मुनीम को दे दीजिए प्रभु बोले नही नारद मेरा काम मुझे ही करना पड़ता है ये काम मैं किसी और को नही सोप सकता ,
अच्छा प्रभु ऐसा क्या काम है ऐसा आप इस रजिस्टर में क्या लिख रहे हो ? बोले तुम क्या करोगे देख कर जाने दो , बोले नही प्रभु बताईये ऐसा आप इस रजिस्टर में क्या लिखते है , बोले नारद इस रजिस्टर में उन भक्तो के नाम की लिस्ट है जो मुझे हर पल भजते है में उनकी नित्य हाजरी लगता हूँ ।
अच्छा प्रभु जरा बताईये तो मेरा नाम कहा पर है ? नारदमुनि ने रजिस्टर खोल कर देखा तो उनका नाम सबसे ऊपर था।
नारद जी को गर्व हो गया की देखो मुझे मेरे प्रभु सबसे ज्यादा भक्त मानते है पर नारद जी ने देखा की हनुमान जी का नाम उस रजिस्टर में कही नही है , नारद जी सोचने लगे की हनुमान जी तो प्रभु श्रीराम जी के खास भक्त है फिर उनका नाम, इस रजिस्टर में क्यों नही है , क्या प्रभु उनको भूल गए है ।
नारद मुनि आये हनुमान जी के पास
बोले हनुमान ! प्रभु के बही खाते में उन सब भक्तो के नाम है जो नित्य प्रभु को भजते है पर आप का नाम उस में कही नही है हनुमानजी ने कहा की मुनिवर,! होगा आप ने सायद ठीक से नही देखा होगा नारदजी बोले नही नही मेने ध्यान से देखा पर आप का नाम कही नही था , अच्छा कोई बात नही सायद प्रभु ने मुझे इस लायक नही समझा होगा जो मेरा नाम उस रजिस्टर में लिखा जाये , पर नारद जी प्रभु एक पॉकेट डायरी भी रखते है उस में भी वे नित्य कुछ लिखते है
"अच्छा ?
" हाँ !
नारदमुनि फिर गये प्रभु श्री राम के पास और बोले प्रभु ! सुना है की आप अपनी पॉकेट डायरी भी रखते है ! उसमे आप क्या लिखते है ? "बोले हाँ ! पर वो तुम्हारे काम की नही है , नारदजी ''प्रभु ! बताईये ना , मैं देखना चाहता हूँ की आप उसमे क्या लिखते है।
प्रभु मुस्कुराये और बोले मुनिवर मैं इन में उन भक्तो के नाम लिखता हूँ जिन को मैं नित्य भजता हूँ , नारदजी ने डायरी खोल कर देखा तो उसमे सबसे ऊपर हनुमान जी का नाम था , ये देख कर नारदजी का अभिमान टूट गया।
कहने का तात्पर्य यह है की जो भगवान को सिर्फ जीवा से भजते है उनको प्रभु अपना भक्त मानते है और जो ह्रदय से भजते है उन भक्तो के भक्त स्वयं भगवान होते है ऐसे भक्तो को प्रभु अपनी पर्शनल पॉकेट यानि अपने ह्रदय रूपी डायरी में रखते है
जय जय श्री सीताराम !
{ जय जय श्री राधे }
इस धरती पर जब जब कंस जैसी सन्तान पैदा होती है तो उनमे कही न कही उन माताओं का भी दोस होता है ऐसा ही हुआ था जब कंस का अपनी माँ के गर्भ में प्रवेश हुआ था।
वैसे तो राजा उग्रसेन की पत्नी सती सावत्री पतिव्रता थी पर एक दिन उनसे भी बड़ी भारी भूल हो गयी और कंश जैसी संतान को जन्म दे बैठी
एक दिन की बात है जब वे सुन्दर वस्त्र आभूषण पहन , सुन्दर श्रृंगार कर सज - धज कर अपनी सखियों के साथ एक वन में चली गयी , उस वन में एक राक्षस प्रवति का देत्या भी घूम रहा था उसकी द्रष्टि राजा उग्रसेन की पत्नी पर पड़ी , वो उस रानी के सुन्दर हाव भाव से बहुत आक्रसित हो रहा था वो देत्य न चाहते हुए भी उस रानी पर मोहित हो गया और उसके मन में छल कपट प्रवेश कर गया।
उस राक्षस ने अपने वेष को छोड़ कर राजाउग्रसेन का वेष धारण कर उस रानी के समीप जाने लगा , रानी के साथ सखियोने सोचा की राजाजी पधारे है हमे रानी और राजाजी को अकेले छोड़ देना चाहिए वे सखिया वहा से चली गयी।
उस राक्षस ने सोचा की अच्छा मोका है उस कपटी ने राजा उग्रसेन का वैस धारण किये हुए रानी के कन्दे पर हाथ धर कर धीरे धीरे उस रानी को एकांत में ले गया , कुछ क्षण बीत जाने पर , रानी उस राक्षस के हाव भाव से समज गयी की ये मेरे पति नही हो सकते ये कपटी कोई और ही है
रानी आक्रोश से भर कर तिलमिला ती हुई वाणी से बोली "अरे दुष्ट निर-लज कौन है तू जो छल से मेरे पति का वेष धारण कर मेरी पति व्रता का धर्म भ्रष्ट करने आया है ? अरे ओ _ निर-लज तू सीघ्र अपने वेष में आजा अन्यथा में तुझे श्राप देती हूँ ,
राक्षस झट अपने वेष में आ कर बोला की खबरदार जो मुझे श्राप दिया तो , दोस सिर्फ मेरा ही नही तुमारा भी है ऐसा सुन्दर श्रृंगार कर वन में विचरती हो ? क्या तुम नही जानती की राजघरानेकी स्त्रिया इस तरह बहार नही निकला करती ! और सुन ' तुमारे गर्भ में मेरी संतान ने प्रवेश कर लिया है उसके रस्य मैं तुमे बताता हूँ तुम उस गर्भ को नष्ट करने की कोसिस भी मत करना , वो बड़ा ही बलवान होगा पर इस से प्रजा को कष्ट भी बहुत होगा और तुम घबराना मत , हमारे इस पुत्र का वध करने के लिए स्वयं नारायण अवतरित होंगे हमारे इस पुत्र की मुक्ति स्वयं नारायण के हाथो होगी !
रानी ने सुना की इस बालक का वध करने के लिए स्वयं नारायण अवतरित होंगे वे इस बात से प्रसन्न भी हुई पर अपने पति व्रता धर्मो को खंडित होने का दुःख भी सताने लगा वे शर्म के मारे सर निचा किये अपने महल में चली गयी !!,,,,,,,,,,, { जय जय श्री राधे }
कुटिल वैश्या की कुटिलाई संत कबीर की कुटिया जलाई !
श्याम पिया के मन न भाई !!
तूफानी गति देय हवाकी वैश्या के घर आग लगायी !
श्याम पिया ने प्रीत निभाई !!
एक दिन संत कबीरदासजी की कुटिया के पास में आ कर एक वैश्या ने सुन्दर महल बना कर अपना कोटा जमा दिया !
कबीर जी का काम था सब दिन भगवान का नाम कीर्तन करना
पर वैश्या के यहाँ
तो सारा दिन गंदा - गंदा संगीत सुनाई देता , एक दिन कबीरजी उस वैश्या के
यहाँ गए और कहा , की देख बहन ! तुमारे यहाँ बहुत खराब लोग आते है यहाँ बहुत
गंदे - गंदे शब्द बोलते है और मेरे भजन में विक्शेप पड़ता है तो आप कही और
जा के नही रह सकती है क्या ?
संत की बात सुनकर वैश्या भड़क गयी और कहा की अरे फ़कीर तू मुझे यहाँ से
भगाना चाहता है कही जाना है तो तु जा कर रह, पर मैं यहाँ से कही जाने वाली
नही हूँ
कबीरजी ने कहा ठीक है जैसी तेरी मर्जी
कबीरदासजी अपनी कुटिया में वापिस आ गए और फिर से अपने भजन कीर्तन में लग गये
जब कबीरजी के कानो में उस वैश्या के घुघरू की झंकार और कोठे पर आये लोगो के
गंदे - गंदे शब्द सुनाई पड़ते तो कबीरजी अपने भजन कीर्तन की ध्वनी और भी
ऊँचे स्वर मे करने लगते ,
कबीरजी के भजन कीर्तन के मधुर स्वर सुनकर
जो वैश्या के कोठे पर आने जाने वाले लोग थे वे सब धीरे धीरे कबीरजी के पास
बैठ कर उनके भजन कीर्तन सुनने लग गए ,
वैश्या ने देखा की ये फ़कीर तो जादूगर है इसने मेरा सारा धंधा चोपट कर
दिया , अब तो वे सब लोग उस फ़कीर के साथ ही भजनों की महफ़िल जमाये बैठे है |
वैश्या ने क्रोधित हो कर अपने यारो से कहा की तुम इस फ़कीर जादूगर की कुटिया
जला दो ताकि ये यहाँ से चला जाये !
वैश्या के आदेश पर उनके यारों ने संत कबीर कि कुटियां में आग लगा दी ,
कुटिया को जलती देख संत कबीरदास मुस्कुरः कर बोले
वहा ! मेरे मालिक अब तो तू भी यही चाहता है कि में ही यहाँ से चला जाऊं ,
प्रभु ! जब अब आपका आदेश है तो जाना ही पड़ेगा , संत कबीर जाने ही वाले थे
भगवान से नही देखा गया अपने भक्त का अपमान , उसी समय भगवान ने ऐसी तूफानी सी
हवा चलायी उस कबीर जी कि कुटिया कि आग तो बुझ गयी और उस आग ने वैश्या के
कोटे को पकड़ली वैश्या के देखते ही देखते उनका कोठा जलने लगा
वैश्या का कोठा धु धु कर जलने लगा वो चीखती चिल्लाती हुए कबीर जी के
पास आ कर कहने लगी अरे कबीर जादूगर देख देख मेरा सुन्दर कोठा जल रहा है
मेरे सुनदर पर्दे जल रहे है वे लहराते हुए झूमर टूट रहे है अरे जादूगर तू
कुछ करता क्यों नही !!
कबीर जी को जब अपने झोपडी कि फिकर नही थी तो किसी के कोठे से उनको क्या लेना देना !
कबीर
जी खड़े खड़े हंस ने लगे. कबीर कि हंसी देख वैश्या क्रोधित हो कर बोली अरे
देखो देखो यारों इस जादूगर ने मेरे कोठे में आग लगा दी अरे देख कबीर जिसमे
तूने आग लगायी वो कोठा मेने अपना तन , मन , और अपनी इज्ज्त बेच कर बनाया
और तूने मेरे जीवन भरकी कमाई पूंजी को नष्ट कर दिया !!
कबीरजी मुस्कुरा कर बोले कि देख बहन ! तू फिर से गलती कर रही है
ये आग न तूने लगायी न मेने लगायी !
ये तो अपने यारों ने अपनी यारी निभायी !!
तेरे
यारो ने तेरी यारी निभायी तो मेरा भी तो यार बैठा है ! मेरा भी तो चाहने
वाला है ! जब तेरे यार तेरी वफ़ा दारी कर सकते है तो क्या मेरा यार तेरे
यारों से कमजोर है क्या ?
वैश्या समझ गयी कि
मेरे यार खाख बराबर
कबीर के यार सिर ताज बराबर
उस वैश्या को बड़ी ग्लानि हुई कि मैं मंद बुद्धि एक हरी भक्त का अपमान कर बैठी भगवान मुझे शमा करे !!
कबीरदासजी
और वैश्या के तर्क से हमे यही समझने को मिलता है कि भगवान के भक्त कभी
भगवान से शिकायत नही करते कैसी भी विपति आ जाये उसको भगवान का आदेस समझ कर
स्वीकार करते है , और भगवान अपने भक्त का मान कभी घटने नही देते !
इसलिए भगवान कहते है कि
भक्त हमारे पग धरे तहा धरूँ मैं हाथ !
सदा संग फिरू डोलू कभी ना छोडू साथ !!
{ ज़ै ज़ श्री राधे }
भगवान के वाहन गरुड़ जी को एक दिन अपने वेग का घमंड हो रहा था की मुझ जैसा
वेग से चलने वाला और प्रभु की आज्ञा का पालन करने वाला कोई नही भगवान
अंतर्यामी है गरुड़ जी के भाव जान गए , और कहा की गरुड़ ! हनुमानजी मलयाचल पर
है उन्हें कहिये की द्वारिकाधीश ने स्मरण किया है , अब गरुड़ जी को क्या
पता की ये लीलाधर क्या करना चाहते है।
गरुड़ जी अपने वेग के साथ आये और हनुमानजी को भगवान का सन्देश सुनाया और कहा की आप को भगवान ने द्वारिका में बुलाया है !
गरुड़ जी ने कहा आप मेरी पीठ पर बैठ जाईये तो झटपट पहुंचा दूँ। भगवान ने आप को शीघ्र बुलाया है !
हनुमानजी ने पूछा कौन भगवान ? गरुड़ जी " वही नवजलधर सुन्दर ! गरुड़ जी
जानते थे की हनुमानजी के आराध्य कौन है , और गरुड़ जी ने हनुमानजी से कहा
भगवान भी कहीं दो - चार होते है ?
हनुमाजी समझ गए और उन्होंने सहज भाव से कहा 'आप चलिए मैं आ रहा हूँ।
हनुमानजी भगवान के दास है भगवान नारायण के वाहन की पीठपर बैठ ने की बात वे कैसे सोच सकते थे !
गरुड़ जी ने हठ करते हुए कहा "आप को बहुत देर लगेगी मैं शीघ्र पहुँचा दूँगा
हनुमानजी
ने हंस कर कहा मैं आप से पहले पहुच रहा हूँ आप चलिए , गरुड़ जी झुझलाये और
अपने आप से बाते करने लगे की यह कपी मुझसे पहले पहुचने की बात करता है।
वे फिरसे बोले " हनुमानजी ! आप समझते तो है नही प्रभु ने बुलाया है
मैं आगे जाकर उन्हें क्या उत्तर दूंगा ? और मेरे वेगको आप पहुँच सकते नही
इसलिए चलिए मैं ले चलता हूँ गरुड़ जी को अपनी शक्ति का भी गर्व कम नही था
उन्होंने अमृत - हरण के समय समस्त देवताओं के छक्के छुड़ा दिए थे , इद्र के
वज्र से भी उनका कुछ बिगड़ा नही था , पर यह वानर उनकी बात ही नही सुनता अब
गरुड़ जी ने सोचा की इस वानर को बलपुर्वक उठा ले जाना चाहिए।
हनुमानजी ने मन में कहा , मेरे प्रभु भी बड़े विनोदी है उन महाराजा
द्वारिकाधीश ने कैसा धृष्ट पक्षी पाल लिया है बलपूर्वक मुझे उठाने आये ,
राम भक्त ने बहुत देरतक गरुड़ जी की बाते सुनी फिर उन्हें पकड़कर फैक दिया वे द्वारका के समीप समुन्द्र के पास जा गिरे।
भगवान के चक्र को भी गर्व था की उसकी शक्ति का अन्त नहीं है , हनुमानजी द्वारिकाधीश के पास जाने लगे , वह द्वारा रोध करके खड़ा हो गया
कौन भीतर जा रहा है ?
हनुमानजी ने कहा मैं हनुमान ! प्रभु ने बुलाया है मुझे।
चक्र "आज्ञा नही है _ भीतर जानेकी।
हनुमान जी फिरसे नम्र भावसे बोले आप पूछ लीजिये प्रभूसे मुझे प्रभु ने ही बुलाया है।
चक्र
"मैं द्वार छोड़ कर नहीं जाऊँगा ,कोई आयेगा तो उसे पूछने को कह दूंगा तुम
यही रुके रहो। हनुमानजी ने सोचा पता नही कोई कब आएगा और चक्र भीतर जाने
दे नही रहा था उसे उठाकर हनुमानजी ने अपने मुह में रख लिया
और भीतर पहुच गए
भगवान लीलाधर ने धनुर्धर का वेशधार कर सिंघाशन पर
विराजित थे श्रीमारुति नन्दन ने प्रभु के चरणों में मस्तक रखा तो भगवान
अत्यंत स्नेह से उनके सिरपर कमल - कर फेरते वे लीलामय हंस कर पूछने लगे _
"तुम्हे द्वार पर किसी ने बाधा तो नही दी ?
मारुती नंदन मुख में से चक्र को निकाल कर सम्मुख करते हुए कहा की यह रोक
रहा था मुझे सो मेने सोचा की इसे प्रभु के पास ही ले चलता हूँ
इतने
में समुन्द्र - जल से सर्वथा भीगे हांफते गुरुड़ जी पहुंचे। अपने आराध्य के
चरणों में हनुमानजी को बैठे देखा , उन्होंने तो मस्तक झुका लिया।
भगवान ने पूछा गरुड़ ! तुम्हारी यह दशा ... ? क्या तुम समुद्र स्नान
करने लगे थे ? हनुमानजी ने कहा प्रभु आप ने यह पक्षी पाल तो लिया है ,
किन्तु यह बहुत धृष्ट है। साथ ही बहुत मन्दगति है यह तो पता नही कितनी देर
में आ पता , मैंने इसे पकड़कर द्वार्का की और फैक दिया था !
फिर गरुड़ जी तनिक रुक कर हाथ जोड़कर मस्तक झुकाए , बोले प्रभु क्या कहना है ?
लीलाधर पुर्षोतम मुस्कुराये मानो इशारो ही इशारो में गरुड़ जी को यह अहसास
दिला दिया की भेरे भक्त का भक्ति का अभिमान रह सकता है जिन्हें अपने बल का
गर्व है वे मुझे नही सुहाते
{ जय श्री राम जय जय श्री सीताराम } ,,,,,,,,,, { जय जय श्री राधे }
जपे सब नाम गिरधर का चलन ऐसी चला दो तुम !
काम मद लोभ को त्यागो जीवन सत्संग बना दो तुम !!
अगर हम सभी भाई बहन दृढ़ता के साथ भगवान को अपना स्वीकार कर ले तो इसका महान
फल होगा , हमारा जीवन सफल हो जायेगा , इससे हमे बहुत प्रसन्नता होगी ,
बहुत आनंद मिलेगा इस बात को स्वीकार करने में लाभ ही लाभ है नुकसान कुछ है
ही नही !
यह कोई मामूली बात नही है , यह वेदोंका , गीताका ,रामायणका भी सार है !
हो सकता है कि आप मेसे कुछ भाई बहन नही मानें तो भी सच्ची बात सच्ची ही रहेगी , कभी झूठी नही हो सकती ,
अगर
आप अपनी तरफ से मान लो , फिर आप के मानने में कोई कमी रहेगी तो उसे भगवान
पूरी करेंगे , पर एक बार स्वीकार करके फिर आप इसे छोड़ना मत !
हम भगवान के है यह मानते रहो तो हम अपने आप सुद्ध , निर्मल हो जायेंगे
, जो लोहेको सोना बना दे , उस पारस से भी भगवान कमजोर है क्या ? भगवान के
सम्बन्ध से जैसी शुद्धि होती है वैसी अपने उद्योग से नही होती , वर्षो तक
सतसंग करने से जो लाभ नही होता , वह भगवान को अपना मान लेनेसे एक दिन में
हो जाता है,,,,,,,,!!
{ जय जय श्री राधे }
सत्संग सच्चा साथी सबका कुसंग कुछ दिन रहसी
मत भटको कुसंग में सज्जनों सत्संग ही पार लगासी भगवान को अपना मानना , भगवान को याद रखना ही सत्संग है
भगवान के सिवाय किसी को अपना मानना , भगवान के सिवाय कुछ याद रखना ही कुसंग है।
भगवान का संग सत्संग है संसार का संग ही कुसंग है इसलिए
मन में ऐसा भाव बना लो की हम भगवानके है और एक भगवान ही हमारे अपने
है सबकी सेवा बड़े प्रेम से करो मगर प्रेम सिर्फ भगवान से हो , इससे बड़ा और कोई सत्संग नही है !!
{ जय जय श्री राधे }
कान्हा रे थोडा सा प्यार दे,
चरणो मे बैठा के हम को तू तार दे।
ओ गौरी घुंघट उभार दे,
प्रेम की भिक्षा झोली में डाल दे॥
आज सरद पूर्णिमा के दिन भगवान श्री कृष्ण ने रास किया उस रास में हमारे दोनों अजन्मे
देवो पर व्रज भूमि में रास मंडल पर बाकि सभी देवतायो ने आकाश से पुष्पों की
वर्षा के साथ अमृत भी बरसाया था !
जब श्यामसुंदर गोपियों के साथ
रास रचा रहे थे उस रास में माँ पार्वती भी श्यामसुंदर के साथ रास करने आती
थी एक दिन भोले बाबा ने कहा देवी ये तुम रोज सज धज कर कहाँ जाती हो ?
पार्वती " प्रभु व्रज में श्यामसुंदर नित्य गोपियाँ के साथ रासलीला
करते है मैं वही जा रही हूँ ! शंकर भगवान ने सुना की प्रभु व्रज में
रासलीला करते है उनको भी रास में जाने की चटपटी लगी , भोले नाथ कहा देवी !
आज तो मैं भी तुमारे साथ रास देखने चलूँगा
पारवती " नही स्वामी मोहन के सिवार और कोई पुरुष उस रास में नही होता ,
वहाँ सिर्फ स्त्री ही आती है और आप तो स्त्री हो नही , शंकर भगवान " कुछ भी
हो देवी पर मैं तो आज तेरे साथ ( रास ) देखने चलूगा सो चलूगा !
पार्वती " प्रभु आप समझते क्यों नही ( रास ) में पुरुष नहीं जाते , भोले नाथ को बहुत समझाने पर भी नही समझे ,
देवी
ने कहा ठीक है पर देखो स्वामी वहा जाना है तो आप को ये आगम्बर बागाम्बर
खोल कर साड़ी पहननी पड़ेगी और याद रहे की वहा पर घुंघट रखना पड़ेगा
शंकर भगवान " तू कहे जो करने को राजी हूँ तू वहा ले जा जो बात कर !
अब
भोले बाबा साड़ी पहन कर सिर पर जुड़ा बना कर गोपी सा वैस बना कर चलने लगे
पार्वती जी ने कहा अरे स्वामी ! आप ये पुरुष की चाल क्यों चल रहे है ये
पुरुष की चाल छोडिये और जैसे स्त्रिया चलती वो मतवाली चाल चलिए !
भोले बाबा को पार्वतीजी ने रास मंडल में ले जा कर एक कोने में खड़ा कर
दिया कहा की आप यहाँ खड़े खड़े ही ( रास ) देखना हमारे बीच में मत आना और याद
रहे घुंघट हटने न पावे , पार्वती जी ( रास के ) बीच में गयी

( रास ) करते करते श्यामसुन्दर की नजर शंकर भगवान पर पड़ी वे सोचने लगे की आज ये इतनी डिगी और नवी गोपी कौन आई !
भगवान चलने लगे पार्वती जी ने टोका कहा " प्रभु ! आप रास छोड़ कर बीच में ही कहा जा रहे हो ?
श्याम सुन्दर " आज ये नवी गोपी कौन आई , कहाँ से आई है मुझे इससे बात करनी है !
पार्वती जी "प्रभु ! ये नवी गोपी मेरे साथ आई है ,
श्याम " अच्छा फिर वहा क्यों खड़ी है यहाँ ( रास के ) बीच ले आओ ,
पार्वती " प्रभु अभी वो नवी है रास करना जानती नही इसलिए वो वहि खड़ी देख कर सीख रही है कल आएगी
श्यामसुंदर
भी हटी है बोले " नही मुझे तो आज अभी इस नवी गोपी के साथ रास करना है ,
श्याम सुन्दर गए बाबा के पास बोले गोपी ! कहा से आई हो ? अब भोले नाथ ने
सोचा की कुछ बोलूँगा तो घर जाते ही देवी की डाट पड़ेगी की चुप रहने को कहा
और बोल पड़े अगर कुछ गड़बड़ हो गयी तो फिर कभी ( रास ) में नही लाएगी इसलिए
अपना चुप रहना ही ठीक है !
श्यामसुंदर उन गोपी के रूप में आये बाबा को ध्यान से देखने लगे ,
देखते देखते उनकी नजर बाबा के उन मोटे सफ़ेद पेरो पर पड़ी श्यामसुंदर ने सोचा
की ये गोपियाँ श्रृंगार तो करती है पर ये पैरो पर सफेदी लगना कब सीखी ये
नया श्रृंगार फिर कबसे करने लग गयी !
उतने में भोले नाथ के गले का एक साफ़ , फड़ फड़ करता घूँघट से बहार निकला
अब बाबा जी कहा छुपने वाले थे , श्यामसुंदर समझ गए की ये तो हमारे भोले नाथ
है ,श्यामसुंदर ने कहा ठीक है गोपी तू घुंघट ना हठावे तो ना सही पर मुझे
घुंघट भी हटाना आता है और मुह भी देखना आता है !
भगवान आये उस कदम के पेड़ के नीचे और ऐसे मधुर मंशी बजायी , मोहन की
बंशी की मधुर धुन सुन कर भोले बाबा अपनी सुध - बुध खोने लगे वे वह खड़े खड़े
ही ऐसे नाचे की न उनको घुंघट का पता रहा न अपनी सुध रही !
शंकर
भगवन को अपने स्वरूप में आये देख श्री श्यामसुंदर मंद मंद मुस्काने लगे की
वहा देवोके देव आप को भी मेरे ( रास ) में शामिल होने के लिए गोपी का वेश
धारण करना पड़ा आज से आप का एक नाम ( गोपेश्वर ) भी होगा
इसलिए
आज भी उस यमुना के तट पर वंसी वट पर श्री श्यामसुंदर की व्रज
भूमि , अमृत की बूंदों के साथ सुन्दर पुष्पों से सजा वो रास मंडल की पवित्र
भूमि पर आज भी नित्य गोपी के रुपमे देवोके देव महा देव को गोपी के रूप में
सजाया जाता है जिनका नाम ( गोपेश्वर महादेव ) है
{ जय जय श्री राधे }
श्री कृष्ण का करवट उत्शव
श्री बाल कृष्ण लाल ने जब पहली बार करवट बदला तो मईया के खुसी का ठिकानमा
नही रहा और गोकुल में ढोल बजवा दिया और सभी ब्राहमण व गोप गोपियों को
निमत्र दे दिया की आज हमारे लाला का करवट उत्शव मनाया जाएगा..
जब
भगवान श्री कृष्ण के करवट बदलने का अभिषेक उत्सव मनाया जा रहा था तब यशोसा
जी ने उन ब्राह्मणों द्वारा स्वस्तिवाचन करवा कर स्वय बालक को नहलाने के
कार्य संपन कर लिया तब ये देख कर की मेरे लाला के नेत्रों में नींद आ रही
है अपने पुत्र को धीरे से शय्या पर सुलादिया
थोड़ी ही देर में श्याम सुन्दर की आखे खुली तो देखा की कोई राक्षस खड़ा
है वो राक्षस बाल कृष्ण लाल को कुछ करता उससे पहले ही भगवान ने अपनी लीला
प्रारम्ब कर दी और वे स्थन पान के लिए रोने लगे उस समय यशोद जी उत्शव में
आये हुए व्रज वासियों के स्वागत सत्कार में बहुत ही तन्मय हो रही थी इस लिए
उनको अपने लाला का रोना सुनाई नही पड़ा
श्री कृष्ण एक छकड़े के निचे सोये हुए थे उनके पाँव लाल लाल कपोलो के
सामान बड़े ही कोमल और नन्हे नन्हे थे परन्तु वह नन्हा सा पाँव लगते ही
विसाल छकड़ा उलट गया , उस छकड़े पर रखे दूध दही के मटके टूट गए यशोदा जी व
उत्सव में आये सभी गोप गोपियाँ ने जब उलटे हुए छकड़े को देखा तो सभी
आश्चर्य से देखने लगे की ये क्या हुआ , ये छकड़ा कैसे उलट गया ?
उतने में वह खेल रहे गोप गोपियाँ के बाल को ने कहा की इस कृष्ण ने ही तो रोते रोते अपने पाँव की ठोकर से इस छकड़े को उलट दिया…
इसमें
कोई संदेह नही की ये बालक क्या नही कर सकते परन्तु उस गोपो को समझ नही आया
और उन बालको की बात पर विश्वास न करते हुए बाल को से कहा की अरे !
बच्चो ये नन्हा सा बालक उतने विसाल छकड़े को कैसे उलट सकता है..
यशोदा मईया बहुत ही दर गयी वे अपने रोते हुए बाल कृष्ण लाल को झट से
उठा कर स्नेह से छाती से लगा लिया और कहने लगी की ये किसी बुरी छाया का काम
है भला हो भगवान का मेरे लाला को कुछ नही हुआ। .
वहा खड़े सभी
उत्शव में आये गोपो ने कहा बाबा ! ये आप के पिछले जन्मो के कोई पुण्य ही है
जो आपका लाला बार बार किसी बुरी छाया का शिकार होने से बच जाता है पिछली
बार वो पूतना मारना चाहती थी और अब कोई और। वह खड़े सभी व्रज वासी सोचने लगे
की हमारे लाला की किस प्रकार रक्षा करे !!
व्रज वासी बहुत ही भोले है श्री कृष्ण की लीला को नही समझ पाते और उनकी
रक्षा करने की सोचते है जो पुरे ब्रह्माण्ड का रक्षक है। भगवान को सबकी
फ़िक्र है पर भगवान की भी कोई फ़िक्र करे ये भाव भगवान को अपने वस में कर
लेता है। और भगवान भी वोही लीला करते है जिनसे व्रजवासियो को आनन्द मिले !!
{ जय जय श्री राधे }
बाल कृष्ण लाल पधारे है ! ये खबर पहुंची कैलाशपर्वत पर शंकर भगवान के पास भोले बाबा को ठाकुर जी के दर्शन करने की चटपटी लगी !!
शंकर
भगवान ने झट आगाम्बर बागाम्बर पहन , सर्फ़ गणों को अपने मस्तक पर मुकुट
में सजा कर गले में नरमुंडो की माला डाल कर हाथ में त्रिसुल डमरू ले कर
ठाकुरजी के दर्शन के लिए जाने लगे , पार्वती ने टोका प्रभु ! कहा जा रहे हो
?
बोले में नन्द गाँव जा रहा हूँ , बाला कृष्ण लाल के दर्शन करने को !
पार्वती
जी बोली - " प्रभु ! बाल कृष्ण लाल के दर्शन करने जा रहे हो और इस वेश
वुषा में ? गले में सर्फ़ डाल कर क्या सपेरे बन कर जाओगे ?
हाथ में त्रिसुल , डमरू , ले कर क्या मदारी बनकर जाओगे ?
इस वेश वुशा में बाल कृष्ण का दर्शन तो छोडो बाबा आप को कोई गाँव में भी नही घुसने देगा ! "
शंकर भगवान बोले - "रे बस कर भाग्यवान जो मुहमें आवे बोले जा रही है! कैसे जाऊ ?
पार्वती जी बोली बाबा ! इस आगम्बर बागम्बर को छोडो , इस सर्प-गणो को छोड़ो , मैं जो वस्त्र दूँ वो पहनो !"
शंकर भगवान को बाल कृष्ण लाल के दर्शनों की चटपटी लगी हुई थी सो बोले- "जो तू कहे वो पहनने को तैयार हूँ ,दर्शन होने चाहिए ।
पार्वती जी ने शंकर भगवान को पीली धोती दी ।
अब शंकर भगवान ने अपने शादी में भी धोती नहीं पहनी तो धोती बड़ी अटपटी सी लगी पर क्या करे..
अब जैसे ही शंकर भगवान रवाना हुए तो सर्प गण विनती करने लगे की - "हे
भोले नाथ ! आज अप मह को छोड़ कर ठाकुर के दर्शन करने अकेले ही जा रहे हो ?
बाबा ! कुछ पूछे आप से ? " हाँ पूछो"
सर्फ गण " बाबा ! जब भस्मासुर आप को भस्म करने आया तब हम कहाँ थे ?"शंकर भगवान बोले - "तब तुम मेरे गले में थे !"
अच्छा बाबा ! - " जब आप ने जहर पिया तब हम कहाँ थे ?"
बोले- "तब तुम मेरे गले में थे"
बोले बाबा ! -" जब रावण ने कैलाश पर्वत उठाया तब हम कहाँ थे ?"
शंकर - "तब तुम मेरे गले में थे"
बाबा ! - "जब आप का विवाह हुआ तब हम कहाँ थे ?"
शंकर - "तब तुम मेरे गले में थे "
सर्फ गण बोले - "भगवान जब हमने आप का किसी परिस्थिती में साथ नही छोड़ा तो आज आप हमे छोड़ कर क्यों जा रहे है "?
शंकर भगवान बोले - "बात तो तुम्हारी सही है जब तुमने कभी मेरा साथ नही छोड़ा तो में तुम्हे क्यों छोडू "
शंकर भगवान ने तो फिर से वही वेश धारण कर लिया और गले में सर्प गण को कर जटाओ को खोल कर वृन्दावन पहुचे !
ग्वालियो के बालको ने ऐसा जोगी कभी देखा नही तो ग्वालियो के छोटे-छोटे बालक शंकर भगवान की जटा खीचने लगे ।
शंकर भगवान बोले - " रे !! मैं शंकर भगवान हूँ । तुम मेरी जटा खिंच रहे हो ?"
शंकर भगवान् बोले ये छोरे बड़े उत्पाती हैं ऐसे नही मानेंगे तो एक नाग को पीछे , एक आगे और दो आजू बाजू लगा दिया ।
अब छोरे डरने लगे तो पास में नही आते ।
जब नन्द बाबा के घर पहुचे और मैया को आवाज लगाने लगे ।
"मैया आरि ऒ ऒ ऒ.. मैया ।"
मैया बोली- "रे कौन चिल्ला रहा है? कौन मुझे आवाज लगा रहा है ?"
सखी ने कहा - "पता करके आयूं ।"
मैया बोली -" हाँ । देख कौन है। "
बाहर आकर देखा तो बोली- "मैया बाहर भयंकर जोगी आया "
मैया बोली- "जोगी ! कौन हो ? क्या चाहिए? क्यों आये हो ? "
भगवान बोले- " मैया मुझे जो चाहिए वो तु ही दे सके है , मैया!! "
"..क्या चाहिए बाबा तुम को?
कुछ भिक्षा लाऊ?
कुछ मुद्रा लाऊ?
बोलो ! कुछ और लाऊ ??
शंकर भगवान - " मैया मुझे तो तेरे लाला के दर्शन करने है"
मैया - "हैं
?? लाला के दर्शन करवाऊ तेरे को ? अरे जोगी जब तुझे देख मैं ही डर गयी ,तो
मेरा लाला तो और भी छोटा है, वो कितना डर जायेगा "
शंकर भगवान - " मैया
बड़ी दूर से आया हूँ । तेरे लाला के दर्शनों की बड़ी आशा ले कर आया हूँ,
बड़ा वृद्ध जोगी हूँ, तेरे लाला को खूब आशीर्वाद दूंगा, तेरे लाला का
जल्दी ब्यांह हो जायेगा। "
मैया बोली- "मेरे यहाँ बड़े-बड़े महात्मा आते हैं। मैं किसी और का आशीर्वाद
दिला दुंगी पर तेरे जैसे भयंकर जोगी को तो मैं दर्शन हरगिज नही कराउ ।
शंकर भगवान बोले- "देख मैया अभी तो मैं विनती कर रहा हूँ , फिर मुझे क्रोध
आ जायेगा "
" क्रोध आ जायेगा तो क्या कर लेगा "
" क्रोध आ जायेगा तो तेरे घर के आगे
धुनी रमाउङ्गा, भूखा प्यासा रहूँगा " मैया बोली - " चाहे धुनी रमा चाहे
धुना रमा, भूखा मर चाहे प्यासा मर मैं तो मेरे लाला का दर्शन नहीं
कराउंगी! नहीं कराउंगी ! नहीं कराउंगी !
शंकर भगवान बोले- "मैया मैं भी जोगी बड़ा हटी हूँ । दर्शन करने आया हूँ तो दर्शन करके जाऊँगा! करके जाऊँगा! करके जाऊँगा! "
अब दोनों में ठण गयी।
इधर स्त्री हट उधर जोगी हट ।
मैया बोली- "चल गोपी अन्दर चल बैठा रहने दे "
मैया भीतर आ गयी ।
अब शंकर भगवान बाहर धुनी रमाते पर कुछ होता नही ,
शंकर भगवान सोचते की अब तो विनती ही काम आयेगी । भगवान बोले लाला ये तेरी
मैया को तो पता नही तेरा मेरा क्या सम्बन्ध है , पर तू तो जाने है ना
की में तेरे लिए आया , तू तो महरबानी कर , ठाकुर जी बोले बाबा आप बड़े
जल्दी आये कुछ समय रुक कर आते तो में दोड़ कर आप की गोदी में आ जाता पर अभी
तो में खुद मेरी माँ के वश में हु, मेरे रोये बिना तो मेरा कोई काम नही
होता ,भूख लगे तो रोऊँ प्यास लगे तो रोऊँ ,
शंकर भगवान बोले लाला भले ही रो पर मुझे तो दर्शन दे ,ठाकुर जी बोले तो फिर रोना चालू करू ?
बोले
,हाँ , अब ठाकुर जी रोने लगे ,मैया दूध पिलावे ,खिलोने से खिलावे सब
प्रकार से खीला पिला के देख लिया पर ठाकुर जी तो चुप ही नही होवे ,
मैया ने सोचा लाला को नजर लग गयी ,मैया " ला रे गोपी जरा राइ डॉन ले कर आ , लाला की नजर उतारू ,गोपी राई डॉन लायी ,
मैया
नजर उतर रही है ,आक्नी-डाकनी, भूतनी-पिचासनि, आजू की बाजू की ,उपरकी निचे
की , आड़ोसन की पाड़ोसन की,जिसकी भी नजर लगी उतर जावे पर लाला तो फिर भी रोवे
।
मैया "आखिर क्या हुए है इस छोरे को ...
गोपी बोली मैया मुझे तोलगे
लाला को बड़ी भारी नजर लगी , ये अपने से उतरने वाली नही ,उतने में बाहर से
एक गोपी आई और बोली मैया मुझे तो लगे है मेने देखा वो जोगी कुछ मन्त्र बोल
रहा था , उस जोगी के होठ हिल रहे थे बाहर वो जोगी मन्त्र बोले ओर भीतर
तेरा लाला रोता है ,
शंकर भगवान पर सीधा सीधा इल्जाम.....
मैया बोली तो अब क्या करू ,
बोले उस जोगी को बुला के लाऊं ,बोले हां जा ,
गोपी गयी बोली बाबा कुछ नजर वजर्र उतारनी आती है ? ,
बाबा बोले नजर ? ऐसे उतारू ऐसे उतारू की फिर कभी नजर ही न लगे ,गोपी बोली "चल बाबा अंदर चल ?"
शंकर भगवान ने मना कर दिया की में घरमे तो नही चालू ,
बोले "क्यों?"
,बोले यशोदा मैया का , घर पुरे दूध दही से भरा है और मेरे गले में सब दूध
के ही ग्राहक है अंदर गया और सब निकल -निकल कर चले गये तो इनको कहाँ खोजता
फिरूंगा ?
मैया को बोल हम जोगी है किसी गृहशती के घरमे नही जाते ,मैया को जा कर बोल काम है तो तू बाहर आ ,
गोपी बोली मैया जोगी बोले माया को काम है खुद बाहर आए

,मैया लाला को पीताम्बर में ढक कर लायी ,बोले "बाबा नजर उतार"
बाबा बोले "मैया दूर से मेरा मन्त्र काम नही करता तेरे लाला को मेरे हाथ में दे तो मेरा मन्त्र काम करे
ठाकुर जी और जोर-जोर से रोने लगे की दे दे ! दे दे!
लाला के रुदन का स्वर तेज देख कर मैया बोली अरे ले बाबा ले
जैसे ही ठाकुर जी शंकर भगवान के हाथ में गये रोना एक दम चुप !
मैया बोली " रे जोगी बड़ा पहुच वान है छोरा कब से रो रहा था , और जोगी की गोदी में जाते ही चुप हो गया
मैया बोली बाबा अब मेरे लाला को कभी नजर तो नही लगेगी न?
बाबा बोले "मैया एक तो तेरा छोरा काला, नजर लगने की सबसे पहली संभाना तो
ये खुद है और दूसरा तेरे लाला इतना सुनदर है की जो एक बार इसको देख लेगा
फिर उसको सब तरफ तेरा लाला ही नजर आएगा ......
उतने में बाबा के गले के सर्प लाला के चरणों को स्पर्श करने लगे ,
मैया बोली अरे बाबा तेरे गले का साप मेरे लाला के पेरो से लिपट रहे है ,
शंकर
भगवान - " मैया ये लिपट नही रहे है ये विनती कर रहे है की प्रभु आप अपने
इन्ही चरणों से हमारे मित्र का भी उधार करना .... ये कालिया नाग की बात कर
रहे है ,
मैया बोली बाबा आप को हाथ - वात भी देखना आता है ?
बाबा बोले किसका ?
बोले मेरे लाला का ।
बाबा - हाँ हाँ ..हाथ देख रहे है । बोले "आरि मैया तेरा लाला तो बहुत बड़ा राजा बनेगा
"हैं ?? "
"हाँ , आरि मैया तेरा लाला तो, सोने की नगरी का राजा बनेगा "
"हैं?"
"हाँ आरि मैया तेरा लाला तो धर्म सम्राट बनेगा"
"अच्छा ??"
"हाँ , आरि मैया तेरा लाला तो सब राजाओं का गुरु बनेगा "
मैया बोली " अरे बाबा कुछ काम की तो बात तो बोलो"
शंकर भगवान बोले मैया तेरा लाला राजा बनेगा ,धर्म सम्राट बनेगा ,सब राजाओं का गुरु बनेगा ,और क्या काम की बात होगी?
मैया
बोली "राजा बनेगा तो ये सम्राट बनेगा तो ये गुरु बनेगा तो ये ,मेरे काम
ये नही आने वाला , मुझे तो ये बताओ की मेरे लाला का बियांह कब होगा बहू
कब आएगी मेरे काम तो बहु आईगी, ये नही आएगा
बाबा क्या बताऊ मुझसे रसोई नही बनती
मैं रशोई बनाती वो धोक्नी ले कर
फु-फु हवा करती हूँ , तो सब धुआ आख में चला जाता है , क्या बताऊ बाबा बहु आ
जाये तो थोडा काम हल्का हो जाये , शंकर भगवान बोले मैया बहुओ का तो तेरे
ठाठ रहेगा ,
बोले क्यों दो बहुएं आयेगी?
बोले " नही "
"तो कितनी आएगी ,?
शंकर भगवान बोले मैया तेरे लाला के हाथ में बहुओ की रेखा इतनी लम्बी है की हाथ में ही नही आ रही ठेठ बाजु तक जा रही है"
"हे!! इतनी कितनी बहुएं आएगी?"
बोले मैया सोलह हजार एक सो आठ बहुए आएगी ,
मैया सोच में पड गयी
बाबा बोले मैया तू कहा खो गयी
मैया बोली में सोच रही हु की अगर दिवाली के मोके पर सब एक साथ मेरे पाव पड़ने आगयी तो मेरा क्या हाल होगा
शंकर भगवान बोले मैया तू चिंता मत कर तेरे लाला सब देख लेगा तू तो तेरे इस रत्न को संभाल ,क्या रत्न है मैया क्या बताऊ
ठाकुर जी बोले बाबा कुछ मत बोलो आप को दर्शन दे दिया इसका मतलब ये नही की
आप मेरी मैया के सामने मेरी पोल खोलो , बाबा दर्शन करके बहुत प्रसन्न हो कर
चले...............जय श्री राधे
श्री बाल कृष्ण लाल के जन्म के छट्टी दिन ही कंसके आदेश से एक राक्षसी
पूतना ने अपना सुन्दर वेश धारणं कर भगवान को स्थन पान से विष पिला ने आ
गयी।
पूतना को देख कर भगवान श्री कृष्ण ने अपने नेत्र बंद कर लिए
इस पर भक्त कवियोने अनेको कारण बताये है , भगवान ने पूतना को देख कर अपने
वे नेत्र बंद क्यों कर लिए जिनमे कुछ ये है की ,
अविद्ध्य ही पूतना है भगवान श्री कृष्ण ने सोचा की मेरी द्रष्टि के
सामने अविद्ध्य टिक नही सकती फिर लीला कैसे होगी इसलिए नेत्र बंद कर लिए।
फिर
भगवान ने सोचा की ये पूतना बालघातनी है ये पवित्र बालको को भी ले जाती है
ऐसे कृत्य करने वाली का मुह नही देखना चाहिए इस लिए नेत्र बंद कर लिया।
फिर भगवान ने सोचा की इस जन्म में तो इसने कुछ साधन संभव किये नही है
पूर्व जन्म में कुछ किया हो मानों पुतना के पूर्व - पूर्व जन्मो के साधन
देखने के लिए ही श्री कृष्ण ने नेत्र बंद कर लिए |
तब भगवान को
ध्यान में आया की ये पूर्व जन्म में राज बलि की बहिन रत्नमाला थी जब में
अपना छोटा सा बालक बन कर वामन बन कर बलि के द्वार पर गया तब उसने मुझे देख
कर मन ही मन विचार किया की ऐसा सुन्दर बालक मुझे हो जाये तो मैं इनको गोदी
में ले कर दूध पुलाऊ , भगवान ने मन ही मन आशीर्वाद दे दिया की तधास्तु ऐसा
ही हो।
फिर भगवान के उधर में निवास करने वाले असख्य कोटि ब्रह्मांडो के जिव
ये जान कर घबरा गये की श्याम सुन्दर पूतना के स्थन में लगा हला हला विष
पिने जा रहे है अतः मानो उन्हें समझाने के लिए ही श्री कृष्ण ने नेत्र बंद
कर लिए
श्री कृष्ण शिशु ने विचार किया की मैं गोकुल में ये सोच कर आया था की
माखन मिश्री खाऊंगा सो छट्टी के दिन ही विष पिने का अवसर आ गया इसलिए आँख
बंद कर के मानो शंकर जी का ध्यान किया की आप आ कर अपना विष पान कीजिये और
मैं दूध पिऊंगा।
श्री कृष्ण ने विचार किया की इसने बहार से तो माता का रूप धारण कर
रखा है परन्तु ह्रदय में अत्यंत क्रूरता भरी हुई है ऐसी स्त्री का मुह न
देखना ही उचित है इसलिए नेत्र बंद कर लिए।
फिर श्री कृष्ण ने सोचा
की नेत्रों का मिलाप होने से प्रीती हो जाती है और प्रीती हो जाने के बात
तो प्रेमीजन का वद्ध करना पाप है इसलिए नेत्र बंद कर लिए
छोटे बालको का स्वाभाव है की अपनी माँ के सामने खूब खेलते है पर किसी
अपरिचित को देख कर डर जाते है और नेत्र मुंड लेते है एपरिचित पूतना को देख
कर इसलिए बाल लीला बिहारी भगवान ने नेत्र बंद कर लिए ये उनकी बाल लीला का
मधुर्य है।
{ जय जय श्री राधे }
चमत्कार सा हो गया भक्तो हो गई बात निराली!
रात ही रात में नंदबाबा की दाढी हो गई काली !!
नन्द बाबा नवमी तिथि को सवेरे जल्दी उठ कर गौशाला में गए , देखा की आज गईया सब गौशाला में ही है
नन्द बाबा बोले अरे भईया मधुमंगल ! भईया मन्सुका आज गईया चराने को नही गए ?
मधुमंगल , मंसुका बोले बाबा ! गईया चराने जाये कैसे बाबा ! गईया गौशाला से बाहर ही नही निकलती ,
आज ये गईया क्यों नही निकल रही है ? मानो गईया कहती है की देखो भईया तुम हमको चराने के लिए ले जाओगे और बीच रस्ते में तुमको खबर मिलेगी की नन्द बाबा के लाला हुआ है तो तुम हमको वही छोड़ कर वापीश आ जाओगे और हम वही भटकेगी इसकी अपेक्षा आज हम भी छुट्टी मनाएगी , जंगल में जायेगी वहा हम को क्या मिलेगा वहा तो घास पूस है
पर आज तो लाला का जन्म हुआ है , लाला के जन्मोत्सव मनायेगे दूध दही की नदिया बहेगी , इसलिए आज हमारा दूध हम खुद ही पीयेगी।
नन्द बाबा बोले चलो आज गईया को यही घास पूस खिलावे , नन्द बाबा ने घास का ढेर गायियो के आगे रखा तो गईया ने मुँह फेर दिया।
नन्द बाबा बोले आज इन गईया को क्या हो गया, क्या ये गईया बीमार हो गयी है ?
गईया मन ही मन कहती है की
बाबा ! आज तो मिठाई खाने का दिन है और आप हम को घास पूस खीला रहे हो ? आज तो हमको भी लापसी खानेको मिलनी चाहिए.. आज तो हम को भी मिठाई खानी है
पर नन्द बाबा कुछ समझे नही।
इतने में कुछ ग्वालबाल नन्द बाबा को देखते है और देख कर हंस ने लगे ,और बोले अरे बाबा बुढ़ापे में आप को भी शौक लगा ?
नन्दबाबा बोले अरे मूर्खो क्यों हंस रहे हो ? मुझे भला क्या शौक लगा ?
ग्वालिये बोले बाबा कल आप कुछ और लग रहे थे और आज कुछ और लग रहे हो।
" बोले कल कुछ और लग रहा था , और आज कुछ और…
ऐसा क्या हो गया ?
' बोले बाबा ! बता दे ?
" हाँ"
सब ग्वालिये एक दूजे के सामने हो कर एक ही स्वर में बोले
अरे ! चमत्कार सा हो गया भक्तो हो गयी बात निराली
रात ही रात में नंदबाबा की दाढी हो गयी काली
ग्वालिये बोले बाबा कल हमने देखा तो आप की दाढ़ी में सफेदी लहरा रही थी और आज आप की दाढ़ी में काला पन नजर आ रहा है
बाबा ! ये काला रात को कब किया आप ने !!!!!
नन्द बाबा बोलेरे मूर्खो मैं कहाँ क़ाला करूँगा कोई क़ाला वाला नही है
'बोले नही बाबा आज आप की दाढ़ी काली नजर आ रही है !!
"बोले नही ऐसा हो नही सकता तुम अपने काम से काम रखो जाओ अपना काम करो मुझे परेशान मत करो।
ग्वालिये वहा से चले गए , नन्दबाबा दाढ़ी पर हाथ फेरते है बोले ये काली हो कैसे सकती है। ..
नन्दबाबा साठ सालके थे
और साठ साल में ऐसे बाल कृष्ण लाल के रूप में जगत पिता पधारे है तो उनके पिता की दाढ़ी तो काली होनी ही है
पर नन्द बाबा को कुछ पता नही की ये क्या कारण है।
उतने में बाबा की बहिन ठाकुजी की भुआ ( सुनन्दा )ख़ुशी से झूमती , उछलती हुयी दूर से ही ऊँचे स्वर में बाबा को आवाज लगा रही है ,
बाबा ! नन्द बाबा !! ऒऒ बाबा !! अरे ऒऒ भईया !!
बाबा बोले अरी पगली क्या हुआ है ? क्यों चिल्ला रही हो ?
'बोली अरे भईया खबर ऐसी है की सुनोगे तो नाच उठेगे
"अरे पगली बोल तो सही क्या हुआ ?
भईया आप रोज गयियों की सेवा करते हो ,
, व्रजवासियो की निष्काम भाव से सेवा करते है आज आप की वो सब सेवा सफल हो गयी।
बाबा बोले पर बता तो सही की ऐसा क्या हुआ है ?
सुनन्दा ने कहा की भईया भाभी के लाला हुआ है !!!!!
नन्दबाबा ने जब सुना की लाला हुआ है उस समय नन्द बाबा की ख़ुशी का ठिकाना नही रहा
बाबा ने सुनन्दा जी को अपने गले का हार बधाई देने की भेट में दिया।
सुनन्दा जी थाली तो पहले ही बजा चुकी थी पर कहती है की
आज पुरे त्रिलोक को मुझे खबर पहुचनी है की जिनके सारी त्रिलोकी अनुगत रहती है आज वो त्रिलोकी नाथ हमारे नन्द भवन में आ गया है।
, देवताओ के नगाड़े बज रहे है दुम दुबियाँ बज रही है आकाश से फूलो की वर्षा हो रहे है अफ़्स्राये नाच रही है
सभी देवी देवता बधाई गा रहे है
सभी देवी देवता रूप बदल बदल कर बालकृष्ण लाल के दर्शन करने पधारे।
कहते है की नन्द बाबा के घर त्रिलोकी नाथ बाल कृष्ण लाल बन कर आये है वो आनन्द इतना आनन्दित था की उस आनन्द को सरस्वती जी भी लिखना छोड़ कर उस आनन्द को लेने लगी लिखना भूल गयी , क्यों की वो आनन्द लिखने जैसा नही था वो आनन्द तो लेने जैसा था…
{ जैसी कथा है वैसा चित्र नही मिला मुझे..}
{ जय जय श्री राधे }
श्री कृष्ण जन्माष्टमी अष्टमी तिथि , कृष्ण
पक्ष , रोहिणी नक्षत्र , मध्य रात्रि का समय कंस के करागार में माँ देवकी
के आगे एका एक अद्भुत प्रकाश हुआ भगवान ( शंख , चक्र , घदा , पदम ) धारण
करके प्रकट हुए
" बोले माँ ! मेने कहा की मैं अपके यहाँ पुत्र बन कर आऊंगा सो मैं आ गया
माँ देवकी बोली प्रभु ! आप पुत्र कहा हो आप तो जगत पिता बनके आये हो पुत्र
कोई इतना लम्बा चोड़ा होता है क्या ? अरे मेरी सखिया देखेगी तो मेरी हसी
करेगी की देखो देखो बेटा हुआ तो जन्म ते ही पच्चीस साल का बन गया।
माँ देवकी ने कहा की , हे नाथ ! मुझे तो ऐसा पुत्र चाहिए की मैं गोदी
में ले सकू वो रोये तो मैं उसको दूध पिलाऊ , उसकी मुस्कुराहट देखूं ,
ठाकुर जी बोले है की माँ मैं आया ही तेरे मनोरथ को पूर्ण करने के लिए हूँ
तू जैसा कहे वैसा बन जाता हूँ ,
भगवान कहते है की वैकुण्ठ में रहता हूँ फिर भी भक्तो के अधीन रहता हूँ
अब भक्तो के पास हूँ तो भक्तो के कहे - कहे मुझे नाचना ही पड़ेगा
और जो पूरण पुर्षोतम भगवान थे वो एक दब छोटे बाल कृष्ण लाल बन गए और रोने लगे
वासुदेवजी घबराए सोचा कही रोने की आवाज सुनकर पहरेदार जाग गये तो इस बालक को भी कंश छोड़ेगा नही
अरे
देवकी ! ये तूने क्या किया पहले इतना बड़ा बालक था वो अपने को सम्भाल सकता
था अब ये इतना छोटा हो गया तो उनको अपने को संभालना पड़ेगा , अब इसको कहा
छुपायेंगे , ठाकुर जी ने कहा बाबा ! आप मुझे गोकुल में पंहुचा दीजिये ,
बोले प्रभु मैं बेडियो दे जकड़ा हुआ हूँ और सब द्वार पर टेल जेड है ठाकुर
बोले बाबा आप मुझे गोदी में तो लो..
वासुदेव जी ने ठाकुरजी जैसे ही अपनी गोदी में लिया पावो की बेड़िया तड़ाक सी
टूट कर घिर गयी , एका एक ताले टूट गए सब द्वार खुल गए द्वारपाल सब अचेत पड़े
है।
वासुदेवजी ठाकुरजी को टोकरी में ले कर यमुना जी के पास पहुचे ,
यमुना जी की लहरे पहले तो खूब उछल रही थी पर जैसे ही ठाकुरजी के दर्शन
किये यमुना जी प्रश्न हो गयी , शांत हो गयी , अब यमुना जी शांत क्यों हो
गयो क्यों की यमुना जी कहती है , की अपने प्रियतम का चरण स्पर्श तो करूँ...
पर यमुनाजी को ठाकुर जी का चरण स्पर्श नही मिल रहा है , क्यों की
वासुदेवजी ठाकुर जी को ऊपर ऊपर कर देवे पहले तो ठाकुरजी को अपनी गोदी में
ले रखा था पर जैसे ही यमुना जी चरण स्पर्श करने लगी तो वासुदेवजी ने टोकरी
सिर पे ले ली..
,यमुना जी चरण स्पर्श करने के लिए ऊपर उठी तो वासुदेवजी ने सोचा की कही
मेरे लाला को कुछ हो ना जाये तो उचे स्वर में आवाज लगाने लगे की ,अरे कोई
लॊ,,,,,,,,, कोई लॊऒऒ ,,,,,,,,,,
कहते है की वासुदेवजी की आवाज , कोई लो , कोई लो , एक गाव में पहुंची तो उस गाँव का नाम ही ( कोई लो ) पड़ गया..
यमुना जी कहती है प्रभु ! मैं तो आप के चरण सपर्श करना चाहती हूँ पर आप के पिता श्री तो मुझे आप के चरण स्पर्श करने नही देते
ठाकुर जी बोले चिंता न करो मैं कृपा करता हूँ..
ठाकुर जी ने टोकरी से चरण बाहर निकले , यमुनाजी को चरण स्पर्श मिलते ही यमुना जी फिर से शांत हो गयी।
वासुदेवजी भगवान को गोकुल में यशोदा के पास सुला कर वहा से योगमाया को
ले आये और फिर से कंस के कारागार में बंद हो गए नन्द बाबा के घर ठाकुर जी
पधारे है पुरे गोकुल में बधाईया बज ने लगी...
नन्द घर आनन्द भयो जय कन्हिया लाल की
गोकुल में आनन्द भयो जय यशोदा लाल की
{ जय जय श्री राधे }
व्रज रज उड़ती देख कर मत कोई करजो ओट
व्रज रज उड़े मस्तक लगे गिरे पाप की पोत
जिन देवतायो को खबर पड़ गयी थी की बाल कृष्ण लाल बन कर भगवान लीलाधर पुर्षोतम पधारने वाले है वो सब तो व्रज में कोई ग्वाला बन कर जन्म ले लिया , कोई गोपी , कोई गईया , कोई मोर , कोई तोता , इत्यादि सभी पशु पक्षी बन व्रज में भगवान के आने से पहले ही व्रज मंडल को सुन्दर बना दिया
कुछ देवता पिछे रह गए वो ब्रह्माजी के पास आये और वो देवता ब्रह्माजी से झगड़ा करने लगे की ब्रह्माजी ! आप ने हमको व्रज मे क्यों नही भेजा ? जब भगवान बाल कृष्ण लाल बन कर ठाकुर नारायण जहा इतनी सुनदर सुन्दर लीलाये करने के लिए पधारे है आप ने हमको व्रज मे क्यों नही भेजा ?, आप हम को भी व्रज में भेजिए !
ब्रह्मा जी बोले देखो भाई ! व्रज में जितने लोगो को भेजना था उतनों को भेज दिया अब व्रज में जगह खाली नही है
बोले महाराज ! 'आप हमे ग्वालिया ही बना दो ,
बोले "जितने लोगो को ग्वालिया बनाना था उतनों को बना दिया अब ग्वालियो की जगह भी खाली नही है
बोले महाराज ! ग्वालिया नही बना सकते तो 'हम को गोपी बना दो
बोले "गोपियाँ भी जितनी बनानी थी उतनी बना दी जब ( रास ) होगा तो हजारो आ जाएगी इसलिए गोपियाँ की भी जगह खाली नही है
'बोले गोपी नही बना सकते , ग्वाला नही बना सकते तो कोई बात नही आप हमे गईया ही बना दो
पर ब्रह्मा जी बोले की गईया भी खूब बना दी है ( एक अकेले नन्द बाबा के पास नो लाख गाये है ) और , सो , दो सो , से कम तो किसी के पास है ही नही अब तुम को भी गाय बना दिया तो व्रज पूरा गो शाला ही बन जायेगा इसलिए गाय भी जितनी बनानी थी बना दी अब गाय की भी जगह खाली नही है
अच्छा महाराज ! 'गाय नही बना सकते तो मोर ही बना दो नाच नाच कर ठाकुर को रिझाया करेंगे ब्रह्मा जी बोले मोर भी खूब बना दिये इतने मोर बना दिये की व्रज में समाही नही रहे है इसलिए उनके लिए एक अलग से मोर कुट्टी बनानी पड़ी इसलिए मोर की भी जगह खाली नही है ,
अच्छा महाराज ! 'मोर नही बना सकते तो , कोई तोता , मैना , चिड़िया ,कबूतर ,कुछ भी बना दो , ब्रह्माजी बोले "वो भी खूब बना दिए पुरे पेड़ ,भरे हुए है
अच्छा महाराज ! 'कुछ नही तो , बंदर ही बना दो ,
बोले बंदर भी खूब बना दिये आज तक परेशान करते है , जिसका भी चश्मा देखा खट्ट , कर ले ले ते है क्यों की ये सब देवता ही बंदर बने हुए है उस समय उन्होंने चश्मा देखा नही था तो आश्चर्य करते है की ये क्या चीज है भाई , अगर आप का चश्मा कोई बंदर ले जाये तो भोग रख कर हाथ जोड़ना जय हो देवता आप जो भी है…. वो आप का चश्मा पर्क कर वापिस लोटा देंगे ,
तो ब्रहमाजी बोले बंदर भी खूब बना दिये बंदर की भी जगह खाली नही है
अच्छा महाराज ! बंदर नही बना सकते तो गधा ही बना दो , क्यों की गधा भी ठाकुरजी के काम आता है जब ठाकुर जी होली की लीला करते है जब ग्वालियो को गधे पर बिठा कर दोड़ते है तो देवता कहते है की क्या पता हमारे ऊपर कोई भक्त बैठे और ठाकुर जी अपने हाथो से थप्पकी दे कर रवाना करे उसमे भी फायदा है , ब्रह्मा जी बोले गधे भी बहुत बना दिये वो भी जगह खाली नही है ,
अच्छा महाराज ! गधा नही बना सकते तो कोई पेड़ - पोधा , लता- पता ही , बना दो
बोले ,पेड़- पोधा, लता- पता मेने जितने बनाने थे सब बना दिये , इतने बना दिए की सूर्य की किरने भी बड़ी कठिनाई से धरती को स्पर्श करती है और कितने लता- पता बनाऊ
महाराज ! कोइ तो जगह दो हम को !, कैसे भी करके व्रज में तो भेजो "बोले कोई जगह खाली नही है
तब देवताओ ने हाथ जोड़कर ब्रह्माजी से कहा
महाराज ! आप हमे कुछ नही बना सकते तो , अगर हम कोई जगह अपने लिए ढूंढ़ के ले आये तो आप हम को वर्ज में भेज दोगे ,बोले "हाँ तुम अपने लिए कोई जगह ढूंढ़ के ले आओगे तो मैं तुम्हे व्रज में भेज दूंगा ,
देवताओ को झट से याद आया की रेती तो कितनी भी हो सकती है …
ब्रह्माजी से बोले अच्छा महाराज ! गोपी , ग्वाला ,पशु , पक्षी ,पेड़ , पोधा , लता पता , कुछ ना बनाओ तो हम को ( व्रज की रज ही ) बना दो वोटो कितनी भी हो सकती है , कुछ नही तो बाल कृष्ण लाल के चरण पड़ने से ही हमारा कल्याण हो जायेगा हम को व्रज में रेत बनना भी मंजूर है...
इसलिए व्रज की रेत भी सामान्य नही है वो रज भी देवी देवता ऋषि मुनि इत्यादि.. है।
{ जय जय श्री राधे }
जब जब होय धर्म की हानि !
तब तब प्रकटे नारायण श्यामी !!
जब जब धरती माँ , अधर्म पापियों के पाप से घिर जाती है तब तब अपना भार
हरने वाले भगवान को अवतरित होने के लिए ब्रह्माजी के पास जा कर विनती करते
है..
जब लाखो दैत्यों के दल ने घमंडी राजाओ का रूप धारण कर अपने
भारी भारसे पृथ्वी को आक्रांत कर रखा था उससे त्राण पाने के लिए वह
ब्रह्माजी की शरण में गयी पृथ्वी ने उस समय गो का रूप धारण कर रखा था उसके
नेत्रों से आँसू बह बह कर मुंह पर आ रहे थे उनका मन खिनतो था ही शरीर भी
बहुत कृश हो गया था वह बड़े करुर स्वर से रँभा रही थी , ब्रह्माजी के पास
जा कर उसने उन्हें अपनी पूरी कष्ट कहानी सुनाई ,
ब्रह्माजी ने बड़ी सहानुभूति के साथ उसकी दुःख गाथा सुनी उसके बाद वे
भगवान शंकर एव स्वर्ग के अन्यान्य प्रमुख देवता तथा गो के रूप में आई
पृथ्वी को साथ लेकर शिरसागर के तट पर गए , भगवान विष्णु देवताओ के भी
आराध्य देव है वे अपने भक्तो की समस्त अभिलासये पूर्ण करते और उनके समस्त
क्लेसो को नष्ट करते है ,
वे सभी तट पर पहुच कर ब्रह्माजी व् अन्य देवताओ ने पुरुष सूक्त के
द्व़ार उन्ही पुरुष सर्वान्तर्यामी प्रभु की स्तुति करते करते ब्रह्माजी
समाधिस्त हो गए उन्होंने समाधी अवस्था में आकाशवाणी सुनी इस के बाद जगत के
निर्माण करता ब्रह्माजी ने देवताओ को कहा की देवताओ ! मेने भगवान की वाणी
सुन ली है तुम लोग भी उसे मेरे स्वर सुन लो और फिर वैसा ही करो ,उसके पालन
में विलम्ब नही होना चाहिए
, भगवान को पृथ्वी के कष्ट का पहले से ही पता है वे ईश्वरो के भी
ईश्वर है अतः अपनी कालशक्ति के द्वारा पृथ्वी का भार हरण करते हुए वे जब
तक पृथ्वी पर लीला करे तब तक तुम लोग भी अपने अपने अंशो के साथ यदुकुल में
जन्म ले कर उनकी लीला में सयोग दो
वाशुदेवजी के घर स्वयं पुरूषोतम भगवान प्रकट होंगे , और उनकी
प्रियतमा ( श्रीराधा जी ) की सेवा देने के लिए देवगनाये जन्म ग्रहण करे...
बहुत
से देवी देवता ऋषि मुनि ,अलग अलग रूप में जन्म ले कर आये है कोई गोपी के
रूप में है , तो कोई ग्वाला , कोई गाय , कोई मोर , तो कोई तोता , कोई
बंदर... पूरा व्रज मंडल ऐसे सजा हुआ है मानो सबको अपने दुल्हे का इंतजार
हो , पर कुछ देवी देवता पीछे रह गए उनकी कथा अगले पोस्ट में....
{ जय जय श्री राधे }
जरा देखो तो !! देवो के देव महा देव काम देव को भस्म करने वाले भगवान शिव ने जब विष्णु भगवान के मोहिनी रूप के दर्शन किये तब इनका भी मन , हाथ से निकल गया...
जब भोले नाथ ने यह सुना की श्री हरी ने स्त्री का रूप धारण करके असुरो को मोहित कर लिया , और देवताओ को अमृत पिला दिया , तब वे सती देवी के साथ बैल पर सवार हो कर समस्त भूत गणों को ले कर वह आये जहाँ भगवान मधुसुधन निवास करते है..
भगवन श्री हरी ने बड़े प्रेम से गोरी शंकर भगवान का स्वागत किया , सुख से बैठ कर भगवान का सम्मान करके मुस्कुराते हुए बोले , शंकर भगवान ने कहा की 'आप विश्व व्यापक जगदीश्वर एव जगत स्वरूप है , आप जब गुणों को स्वीकार करके लीला करने के लिए बहुत से अवतार ग्रहण करते है तब में उनका दर्शन करता ही हूँ ,
" भगवान शिव ने कहा की " अब में आप के उस अवतार का दर्शन करना चाहता हूँ जो आप ने स्त्री रूप में ग्रहण किया था, जिस से देत्यो को मोहित करके अपने देवताओ को अमृत पिलाया ,
स्वामी ! उसी को देखने के लिए हम सब आये है, हमारे मन में आप के उस मोहिनी रूप को देखने का बड़ा ही उत्साह है।
जब भगवान शंकर ने , विष्णु भगवान से प्रार्थना की तब वे , गंभीर भाव से हस कर शंकर जी से बोले की उस समय अमृत का कलश देत्यो के हाथ चला गया था अतः देवताओ का काम बनाने के लिए और देत्यो का मन एक नए कोतुहल की और खिंच लेने के लिए मेने वे स्त्री रूप धारण किया था ,
देव शिरोमणि ! आप उसे देखना चाहते है इसलिए आप को में वह रूप अवश्य ही दिखाउंगा , परन्तु वो रूप तो कामी पुरुषो का ही आदरणीय है क्यों की वे काम भाव को उतेजित करने वाला है.
इस तरह कहते कहते विष्णु भगवान वही अंतर्ध्यान हो गए, तब भगवान शिव सती के साथ चारो और द्रष्टि दोड़ाते हुए वहि बैठे रहे ,
इतने में देखा की सामने एक बड़ा सुन्दर उपवन है उसमे भाति भाति के वृक्ष लग रहे है, जब देखा की एक सुंदरी गेंद उछाल- उछाल कर खेल रही है , वह बहुत ही सुन्दर साडी एव सुन्दर आभूषण से सजी धजी सुन्दर रूप से मोहित करने वाली, जब वो उचल उचल कर गेंद को पकडती तब उनके गले के हार स्तन हिल रहे थे , ऐसा जान पड़ता मानो उसके भार से उसकी पतली कमर पग पग पर टूटते टूटते बच जाती है ,
वह अपने लाल लाल पल्वो के समान सुकुमार चरणों से बड़ी कला के साथ ठुमक ठुमक कर चल रही है ,
उछलता गेंद जब इधर उधर चला जाता है तब वे लपक कर उसे रोक लेती है
उस समय भी वे दाहिने हाथ से गेंद उछल उछल कर सारे जगत को अपनी माया से मोहित कर रही थी,
गेंद से खेलते खेलते उसने तनिक सज्जल भाव से मुस्कुराकर तिरछी नजर से शंकर जी की और देखा, बस शंकर जी का मन हाथ से निकल गया , वे मोहिनी को निहारने और उसकी चितवन के रस में डूब कर इतने विहल हो गए की उन्हें अपने आप की भी सुद्धि नही रही ,
फिर पास बैठी सती और गणों की तो याद ही कैसे रहती ?
एक बार मोहिनी के हाथ से उछल कर गेंद थोड़ी दूर चला गया तब वह भी उसी के पीछे पीछे दोड़ी , उसी समय शंकर जी के देखते देखते वायु ने उसकी झिनिसी साड़ी कर्दनि के साथ उड़ाली
मोहनी का एक एक अंग बड़ा ही रुचिकर और मनोहर था , जहा आँखे लग जाती लगी ही रहती , यही नहीं बल्कि मन भी वही रमण करता , उसको इस दशा में देख कर भगवान शंकर उसकी और अत्यंत आकर्षित हो गए , उन्हें मोहिनी भी अपने प्रति आशक्त पड़ती थी ,
उस ने शंकर जी का विवेक छीन लिया , वे उसके हाव भावों से कामातुर हो गए और , भवानी के सामने ही लज्जा छोड़ कर उसकी और चल पड़े ,
मोहिनी वस्त्र हिन् तो पहले ही हो चुकि थी , शंकर जी को अपनी और आते देख कर बहुत लज्जित हो गयी
वे एक वृक्ष से दुसरे वृक्ष की ओट में छिप जाती , और हंसने लगती परन्तु कही ठहरती न थी , भगवान शंकर की इन्द्रिया अपने वस् में न रही ,
वे काम वस् हो गए , और मोहिनी को अपनी भुजाओं में पकड़ लिया
भगवान शंकर भी उन , मोहिनी वेश धारी अद्भुत कर्मा भगवान विष्णु के पीछे पीछे दोड़ने लगे उस समय ऐसा जान पड़ता था.. मानो उनके शत्रु काम देव ने उस समय उन पर विजय प्राप्त कर ली..
जब शंकर भगवान ने देखा की अरे ! भगवान की माया ने तो मुझे खूब छकाया वे तुरंत उस दुखंत प्रसंग से अलग हो गये , उस के बाद आत्मस्वरूप भगवान की ये महिमा जान कर कोई आश्चर्य नही हुआ , जानते थे की भला भगवान की शक्तियों का पार कौन पा सकता है।
भगवान ने देखा की भगवान शंकर को इस से विषाद या लज्जा नही हुई तब वे पुरुष शरीर धारण करके फिर प्रकट हो गए , और बड़ी प्रसंता से उनसे कहने लगे ,
देव शिरोमणि ! मेरी स्त्री रुपेणी माया से विमोहित हो कर भी आप स्वयं ही अपनी निष्ट में स्थित हो गए ये बड़ी ही आनन्द की बात है ,
मेरी माया अपार है , जो एक बार मेरी माया के फंदे में फस कर स्वयं ही उस से निकल सके वे आप के अतिरिक्त और कोई नही है...
ॐ नमः शिवाय , ॐ नमः शिवाय
{ जय जय श्री राधे }
भगवान विष्णु का मोहिनी अवतार..
जब समुन्द्र मंथन पर अमृत का कलश
निकला तब असुरो ने , देवताओ के हाथ से अमृत का कलश चीन कर ले गए , और जो
बलवान असुर थे उन देत्यो ने कलश को अपने हाथ में पकड रखा था , जो असुर
निर्बल थे वे निति की बात कहने लगे की , देखो भाई ! अमृत के लिए समुन्द्र मंथन
तो देवताओ ने भी किया इसलिए देवताओ को भी अमृत मिलना चाहिए..
असुर आपस के सदभाव और प्रेम को छोड़ कर एक दुसरे की निंदा कर रहे थे और
डाकु की तरह एक दुसरे के हाथ से अमृत का कलश छीन रहे थे इस बीच में
उन्होंने देखा की एक बड़ी सुंदरी स्त्री उनकी और चली आ रही है वो कहने लगे
की देखो तो कैसा अनुपम्म सोंदर्य है शरीर में से कितनी अदभुत छटा छटक रही
है तनिक उसकी नयी उम्र तो देखो..
बस अब वो आपस की लाग डाट भूल कर उसके पास दोड़ गये
उन लोगो ने काम मोहित हो कर उससे पूछा की
कमल नयनी तुम कौन हो ?
कहा से आ रही हो ?
क्या करना चाहती हो ?
सुन्दरी ! तुम किसकी कन्या हो ?
तुम्हे
देख कर हमारे मन में खलबली मच गयी है हम समझते है की अब तक देवता देत्य
शिद्ध गन्धर्व चारण और लोग पालो ने भी तुम्हे स्पर्श तक नही किया होगा फिर
मनुष्य तो तुम्हे कैसे छू पाते
सुन्दरी ! अवश्य ही विधाता ने दया करके शरीर धारियों की सम्पूर्ण इन्द्रिया एवम मन को तृप्त करने के लिए तुम्हे यहाँ भेजा है
असुर
बोले "मानिनिय ! वैसे हम लोग एक ही जात के है फिर भी हम सब एक ही वस्तु
चाह रहे है इसलिए हम में डाह और बैर की गाठ पड़ गयी है सुंदरी ! तुम हमारा
झगड़ा मिटा दो हम सभी कश्यप जी के पुत्र होने के नाते सगे भाई है हम लोगो ने अमृत के लिए बड़ा पुरुषार्थ किया है , तुम न्याय के अनुसार निष्पक्ष भाव
से उसे बाट दो , जिस से फिर हम लोगो में किसी प्रकार का झगडा ना हो
असुरो ने जब इस प्रकार प्रार्थना की तब भगवान ने लीला से स्त्री वैश
में धारण करने वाले भगवान ने हंस कर और तिरछी चितवन से उनकी और देखते हुए
कहा की आप लोग महर्षि कश्यपु के पुत्र है और में हूँ कुल्टा आप लोग मुझ पर
न्याय का भार क्यों डाल रहे है ? विवेकी पुरुष स्त्रियों का कभी विश्वास
नही करते
भगवान की इस मोहिनी की परिहास भरी वाणी से देत्यो के मन में और भी
विश्वास हो गया उन लोगो ने राशी पूर्ण भाव से हंस कर अमृत का कलश मोहिनी
के हाथ में दे दिया
भगवान ने अमृत का कलश अपने हाथ में ले कर तनिक
मुस्कुराते हुए मीठी वाणी से कहा में उचित या अनुचित जो भी करू वह सब यदि
तुम लोगो को स्वीकार हो तो में यह अमृत बाट सकती हूँ , बड़े बड़े देत्यो ने
मोहिनी की यह मीठी बात सुन कर उसकी बारीकी नहीं समझी इसलिए सबने एक स्वर मे
कहा "स्वीकार" है
उस का कारण यह था की उन्हें मोहिनी के वास्तविक रूप का पता नही था इसके बाद
एक दिन का उपवास कर के सभी देत्य स्नान कर कर देवता व देत्य ने अपनी
अपनी रूचि के अनुसार सब ने नए नए वस्त्र धारण किये उसके बाद सुन्दर- सुन्दर
आभूषण धारण करके सबके सब आसन पर बैठ गये
देवता और देत्य दोनों ही धुप से सुगंधित फूलो से और सजे सजाये भव्य भवन
में पूर्व की और मुह करके बैठ गए , तब हाथ में अमृत का कलश ले कर मोहिनी
सभा में आई ,
भगवान मोहिनी रूप धारण कर सभा में पधारे तब बहुत ही सुन्दर वस्त्र व आभूषण से सजे देवता व देत्य दोनों ही उनके रूप में मोहित हो गए
भगवन मोहिनी ने अपनी मुस्कान भरी चितवन से देत्य और देवताओ को देखा वे
सबके सब ऐसे मोहित हो गए की उस समय उनके स्थनों पर से आचल कुछ खिसक गया ,
भगवान
ने देवता और असुरो की अलग अलग पंक्तियाँ बना दी और दोनों को कतार बांध कर
अपने अपने दल में बिठा दिया , उस के बाद अमृत का कलश ले कर भगवान देत्यो
के पास चले गए , उन्हें हाव भाव और कटाक्ष से मोहित करके दूर बैठे हुए
देवताओ के पास आ गए तथा उन्हें अमृत पिलाने लगे
जिसे पि कर बूढ़ापे और मृत्यु का नाश हो जाता है ,
असुर अपनी की हुए
प्रतिज्ञा का पालन कर रहे थे उनको स्नेह भी हो गया था और वे स्त्री में
झगड़ने में भी अपनी निंदा समझते थे इस लिए देत्य चुप बैठे थे , मोहिनी में
उनका अत्यंत प्रेम हो गया था ,वे डर रहे थे की कही उस से हमारा प्रेम
सम्बन्ध टूट ना जाये , मोहिनी ने भी पहले उन लोगो का बड़ा सम्मान किया था ,
उस से वे और भी बन्ध गए यही कारण है की उन्होंने मोहिनी को कोई अप्रिय बात
नही कही...
{ जय जय श्री राधे }
उतराखंड में हुआ प्राक्रतिक कोप को लोगो ने कहा की प्राक्रति मनमानी कर रही है
सच्च कहे तो प्रकृति.. नही मनुष्य कर रहा है मनमानी..
किसी ने कहा 'पानी क्या है साहब , तबाही है तबाही
प्रक्रति को सुनाई नही देती , मासूमो की दुहाई
नदिया के इस बर्ताव से मानवता घायल हो जाती है
सच्च कहे तो बरसात के मौसम में नदिया पागल हो जाती है
ऐसा सुन कर माँ गंगा मुस्कुरायी और बयान देने जनता की अदालत में चली आई
जब कठघरे में आकर माँ गंगा ने अपनी जुबान खोली
तो वे करुणापूर्ण आक्रोश में कुछ यु बोली
मुझे भी तो अपनी जमीन छीनने का डर सालता है
अरे मनुष्य मनुष्य तो मेरी निर्मल धरा में केवल कूड़ा करकट डालता है
धार्मिक आस्थाओ का कचरा मुझे झेलना पड़ता है
जिन्दा से ले कर मुर्दों तक का अवशेष अपने भीतर ठेलना पड़ता है
अरे , जब मनुष्य मेरे अमृत से जल में पोलिथिन बहता है ,
जब मरे हुए पशुओ की सड़ाध से मेरा जीना मुश्किल हो जाता है
जब मेरी धारा में आकर मिलता है शहरी नालो का बदबूदार पानी
तब किसी को दिखयी नही देती मनुष्य की मनमानी ?
ये जो मेरे भीतर का जल है इसकी प्रकृति अविरल है
किसी भी तरह की रुकावट मुझसे सहन नही होती है
फिर भी तुम्हारे अत्याचार का भार धराये अपने ऊपर ढोती है
तुम निरंतर डाले जा रहे हो मुझमे ओद्योगिक विकास का कबाड़
ऐसे ही थोड़े आती है बाढ़
मानव की मनमानी जब अपनी हदे लाँघ देती है
तो प्रकृति भी अपनी सीमाओं को खूंटी पर टांग देती है
नदिया का पानी जीवन दाई है
इसी पानिने युगों - युगों से खेतो को सिच कर मानव की भूख मिटाई है
और मानव ,मानव स्वभाव् से ही आततायी है
इसने निरंतर प्रक्रति का शोषण किया
और अपने ओछे स्वार्थो का पोषण किया
नदिया की धारा को बंधता गया
मिलो फैले मेरे पाट को कंक्रीट के दम पर काटता गया
सच तो ये है की मनुष्य निरंतर नदिया की और बढ़ता आया है
नदिया की धारा को संकुचित कर इसने शहर बसाया है
ध्यान से देखे तो आप समझ पायेंगे की नदी शहर में घुसी है या शहर नदी में घुस आया है ,
जिसे बाढ़ का नाम देकर मनुष्य हैरान -परेशान है
ये तो दरअसल गंगा का नेचुरल सफाई अभियान है
नदिया का नेचुरल सफाई अभियान है
जय गंगा मईया की....
{ जय जय श्री राधे }
आशा तृष्णा छोड़ जगत की , सुख नही है इस जग में
कर विश्वास भरोसा मनवा , श्याम मिले एक पल में एक बार श्री नारद जी महाराज कही जा रहे थे , रास्ते में दो पेड़ थे उन दो पेड के निचे दो भक्त बैठे थे ,
एक पेड था आम का
और , एक पेड था बेर का ,
दोनों भक्तो ने नारद जी से पूछा नारद जी ! कहा जा रहे हो ?
नारद जी बोले मैं भगवान से मिलने जा रहा हूँ तो भक्तो ने कहा की नारद जी आप भगवान से पूछना की वो हमको कब दर्शन देनेवाले है ?
नारद जी गए भगवान के पास और प्रभु को पूछा की प्रभु आप उन दोनों भक्तो को कब दर्शन देनेवाले हो ?
एक आम का पेड़ के निचे बैठा है
और एक बेर के पेड़ के निचे बैठा है
"भगवान
बोले की नारद ! उन दोनों भक्तो से कहना की जो जिस पेड़ के निचे बैठा है उस
पेड़ के जितने पत्ते है उतने वर्षो तक तपस्या करेंगे तब दर्शन होंगे ,
नारदजी आये और भक्तो ने पूछा , महाराज ! कहो , हमारी बात सुन प्रभु ने
क्या कहा ? नारद जी बोले , प्रभु ने कहा की जो जिस पेड़ के निचे बैठा है उस
पेड़ के जितने पत्ते है उतने वर्षो के बाद दर्शन होंगे
नारद जी की
बात सुन कर जो आम के पेड़ के निचे बैठा वो घबरागया की इतने वर्षो तक जीवित
रहूँगा की नही ऐसे ही मरना थोड़ी है , मैं तो मेरे घर जाऊ, मेरी बीवी बच्चो
से मिलु , वो उठ कर चला गया
और जो पीछे बैठा बेर के निचे वो भक्त नारद जी की बात सुन कर उछल उछल कर
नाचने लगा , उतने में प्रभु प्रकट हो गए , नारद जी बोले , अरे प्रभु वाह ,
मुझे ही झूटा कहलवाना था...?
हे प्रभु ! आपने अभी कुछ समय पहले ही
कहा की जो जिस पेड़ के निचे बैठा है उन पेड़ो के जितने पत्ते है उतने वर्षो
के बाद दर्शन होंगे ,और अभी तो उतने सैकिंड भी नहीं हुए और आप प्रकट हो गए ?
, नारद जी ने कहा प्रभु ! आप ने इस भक्त पर इतनी जल्दी कृपा कैसे की ?
प्रभु बोले नारद ! इस भक्त से ही पूछ की तुम्हारी बात सुन कर इस पर
क्या असर हुआ , भक्त ने कहा , नारद जी ! जब आपने कहा की पेड़ के जितने पत्ते
है उतने वर्षो के बाद दर्शन होंगे तब मेरे मन में ये नही आया की इतने
वर्षो तक जीवित रहूँगा या नही बल्कि मेरे मन में ये भरोसा हो गया की प्रभु
है और वो मुझे जरुर मिलेंगे..
जिनका भरोसा पक्का है , प्रभु पर अटल विश्वास है उन्हें प्रभु अवश्य मिलते है
{ जय जय श्री राधे }
हे मेरे नाथ ! प्रार्थना स्वीकार कीजिये
सुखी बसे संसार सब , दुखिया रहे न कोय।
यह अविलासा हम सबकी , भगवन पूरी होय।।
विद्या बुद्धि तेज बल , सबके भीतर होय।
दूध पूत धन धान से , वंचित रहे न कोय।।
आप के भक्ति प्रेम से , मन होवे भर पुर।
राघ द्वेस से चित मेरा , कोसो भागे दूर।।
मिले भरोसा आपका , हमे सदा जगदीश।
आशा तेरे नाम की , बनी रहे हम पे।।
पाप से हमे बचाईये ,करके दया दयाल ।
अपना भक्त बनायके , सबको करो निहाल ।।
दिलमे दया उदारता , मन में प्रेम अपार ।
हृदय में धिरय दीनता , हे मेरे करतार ।।
हाथ जोड़ विनती करू , सुनिए कृपानिधान ।
सादु संगत , सुख दीजिये , दया धर्म का दान ।।
बोलो राम राम राम , जय सिया राम राम राम।
राधे श्याम श्याम श्याम , श्री सीताराम राम राम।।
गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णु र्गुरूदेवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥शास्त्र
वाक्य में गुरु को ही ईश्वर के विभिन्न रूपों- ब्रह्मा, विष्णु एवं
महेश्वर के रूप में स्वीकार किया गया है। गुरु को ब्रह्मा कहा गया क्योंकि
वह शिष्य को बनाता है नव जन्म देता है। गुरु, विष्णु भी है क्योंकि वह
शिष्य की रक्षा करता है गुरु, साक्षात महेश्वर भी है क्योंकि वह शिष्य के
सभी दोषों का संहार भी करता है।
गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान शंकर है। गुरु ही साक्षात परब्रह्म है। ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करती हूं।
{ जय जय श्री राधे }
मैं हूँ श्री भगवान का मेरे श्री भगवान ,
अनुभव यह करते रहो तज ममता अभिमान।
जब
महाभारत का युद्ध होने वाला था युद्ध की सहायता के लिए द्वारिकानाथ को
आमंत्रित करने दुर्योधन और अर्जुन साथ साथ ही द्वारिका पहुँचे ।दुर्योधन दो
क्षण पहले पहुँचे गए , किंतु श्री कृष्णा शयन कर रहे थे , अतः सिरहाने की
और वे सिहांसन पर चुपचाप बैठ गए ।
अर्जुन दो क्षण पीछे पहुँचे और अपने नित्य -सखा के चरणों के समीप पलंग पर ही बैठे रहे
श्री
क्रिष्ण की निद्रा टूटी । उठे श्री द्वारिकाधिश । चरणों के समीप बैठे
अर्जुन पर द्रष्टि पड़ी तो झटपट उठते हुए बोले - अरे ! अर्जुन ! कैसे
अकस्मात् आये ?
दुर्योधन ने चोक कर सोचा । की कही बात बिगड़ ना जाए , उतावले में बोल पड़े - मैं पाहिले आया हूँ।
श्री
कृष्णा ने मुख घुमा कर देखा । दोनों की प्रार्थना सुनी और बोले -'युद्ध
में एक ओर मैं अकेला रहूँगा शस्त्र नही लूँगा , दूसरी ओर मेरी सशस्त्र पूरी
नारायणी सेना रहेगी किंतु , दुर्योधन ! अर्जुन आप से छोटे है । मैंने पहले
इन्हें देखा है । इनको पहले अधिकार है की ये इन दोनों में जो चाहे चुन ले !
उतना सुनते ही अर्जुन ने बड़े उल्लास से कहा _ मैंने तुम्हे लिया ।
दुर्योधन
बड़ी आतुरता से बोले 'ठीक है ठीक है । मैं सेना स्वीकार करता हूँ , आप तो
युद्ध में अस्त्र लेकर लड़ेंगे नही ? श्री कृष्ण ने आश्वासन देते हुए कहा
नही मैं अस्त्र नही लूँगा , दुर्योधन के मन की हो गयी सो प्रसन्तापूरवक
श्री कृष्ण से विदा ली।
श्री कृष्ण ने अर्जुन की ओर देख कर
मुस्कुराते हुए बोले अर्जुन ! यह क्या किया ? 'तुम्हे युद्ध करना है ओर
उसमे विजय पानी है द्वारिकाकी नारायणी सेनाका पराक्रम तुमसे अविदित नही है
उसे विपक्ष में दे कर तुमने शस्त्र हिन् मुझको क्यों चूना ! अर्जुन के
नेत्रों में आसू भर आये , ओर द्रढ़ स्वरमे कहा - श्याम ! ठगों मत मुझको !
पाण्डु पुत्र पराजित हो या विजय । तुमको त्याग कर हमे त्रिभुवन का निष्कंटक
साम्राज्य भी नही चाहिए ।जो जाता हो जाए ,जो नष्ट होता हो',नष्ट हो',
किंतु तुम हमारे रहो । तुमको हम छोड़ नही सकते ।
कृष्ण सारथी बने अर्जुन का। जो इनको चाहता है जो इनको सब कुछ मान बैठा है, कृष्ण उनका ! वह जो बनावे कृष्ण वह बनने को प्रस्तुत।
जय श्री राधे राधे
राम नाम अति मीठा है कोई गाके देख ले...
एक बार एक राजा ने गाव में रामकथा करवाई और कहा की सभी ब्राह्मणो को रामकथा के लिए आमत्रित किया जय , राजा ने सबको रामकथा पढने के लिए यथा स्थान बिठा दिया |
एक ब्राह्मण अंगुटा छाप था उसको पठना लिखना कुछ आता नही था , वो ब्राह्मण सबसे पीछे बैठ गया , और सोचा की जब पास वाला पन्ना पलटेगा तब मैं भी पलट दूंगा।
काफी देर देखा की पास बैठा व्यक्ति पन्ना नही पलट रहा है, उतने में राजा श्रदा पूरवक सबको नमन करते चक्कर लगाते लगाते उस सज्जन के समीप आने लगे, तो उस ने एक ही रट लगादी
की "अब राजा पूछेगा तो क्या कहूँगा "
"अब राजा पूछेगा तो क्या कहूँगा "
उस सज्जन की ये बात सुनकर पास में बैठा व्यक्ति भी रट लगाने लग गया ,
की "तेरी गति सो मेरी गति
तेरी गति सो मेरी गति ,"
उतने में तीसरा व्यक्ति बोला ,
" ये पोल कब तक चलेगी !
ये पोल कब तक चलेगी !
चोथा बोला
जबतक चलता है चलने दे ,
जबतक चलता है चलने दे ,
वे चारो अपने सिर निचे किये इस तरह की रट लगाये बैठे है की,
1 "अब राजा पूछेगा तो क्या कहूँगा..
2 "तेरी गति सो मेरी गति..
3 "ये पोल कब तक चलेगी..
4 "जबतक चलता है चलने दे..
जब राजा ने उन चारो के स्वर सुने , राजा ने पूछा की ये सब क्या गा रहे है, ऐसे प्रसंग तो रामायण में हम ने पहले कभी नही सुना ,
उतने में , एक महात्मा उठे और बोले महाराज ये सब रामायण का ही प्रसंग बता रहे है ,
पहला व्यक्ति है ये बहुत विद्वान है ये , बात सुमन ने ( अयोध्याकाण्ड ) में कही , राम लक्ष्मण सीता जी को वन में छोड़ , घर लोटते है तब ये बात सुमन कहता है की
"अब राजा पूछेंगे तो क्या कहूँगा ?
अब राजा पूछेंगे तो क्या कहूँगा ?
फिर पूछा की ये दूसरा कहता है की तेरी गति सो मेरी गति , महात्मा बोले महाराज ये तो इनसे भी ज्यादा विद्द्वान है ,( किष्किन्धाकाण्ड ) में जब हनुमान जी, राम लक्ष्मण जी को अपने दोनों कंधे पर बिठा कर सुग्रीव के पास गए तब ये बात राम जी ने कही थी की , सुग्रीव ! तेरी गति सो मेरी गति , तेरी पत्नीको बाली ने रख लिया और मेरी पत्नी का रावण ने हरण कर लिया..
राजा ने आदरसे फिर पूछा , की महात्मा जी ! ये तीसरा बोल रहा है की ये पोल कब तक चलेगी , ये बात कभी किसी संत ने नही कही ? , बोले महाराज ये तो और भी ज्ञानी है ,( लंकाकाण्ड ) में अंगद जी ने रावण की भरी सभा में अपना पैर जमाया , तब ये प्रसंग मेधनाथ ने अपने पिता रावन से किया की, पिता श्री ! ये पोल कब तक चलेगी , पहले एक वानर आया और वो हमारी लंका जला कर चला गया , और अब ये कहता है की मेरे पैर को कोई यहाँ से हटा दे तो भगवान श्री राम बिना युद्द किये वापिस लौट जायेंगे।
फिर राजा बोले की ये चोथा बोल रहा है ? वो बोले महाराज ये इतना बड़ा विद्वान है की कोई इनकी बराबरी कर ही नही सकता ,ये मंदोदरी की बात कर रहे है , मंदोदरी ने कई बार रावण से कहा की , स्वामी ! आप जिद्द छोड़, सीता जी को आदर सहित राम जी को सोप दीजिये अन्यथा अनर्थ हो जायगा ,
तब ये बात रावण ने मंदोदरी से कही
की ( जबतक चलता है चलने दे )
मेरे तो दोनों हाथ में लड्डू है ,अगर में राम के हाथो मारा गया तो मेरी मुक्ति हो जाएगी , इस अदम शरीर से भजन -वजन तो कुछ होता नही , और में युद्द जित गया तो त्रिलोकी में भी मेरी जय जय कार हो जाएगी
राजा इन सब बातोसे चकित रह गए बोले की आज हमे ऐसा अध्बुत प्रसंग सूनने को मिला की आज तक हमने नही सुना , राजा इतने प्रसन्न हुए की उस महात्मा से बोले की आप कहे वो दान देने को राजी हु ,
उस महात्मा ने उन अनपढ़ अंगुटा छाप ब्रहमिन भक्तो को अनेको दान दक्षणा दिल वा दि ,
इन सब बातो का एक ही सार है की कोई अज्ञानी , कोई नास्तिक , कोई कैसा भी क्यों न हो , रामायण , भागवत ,जैसे महान ग्रंथो को श्रदा पूरवक छूने मात्र से ही सब संकटो से मुक्त हो जाते है ,
और भगवान का सच्चा प्रेमी हो जाये उन की तो बात ही क्या है , मत पूछिये की वे कितने धनि हो जाते है
{ जय जय श्री सीताराम }
नारद कहे एक बात प्रभूसे , जगत करे फरियाद है !!
करे पूण्य दुःख भोग रहे , यह कैसा इंसाफ है ?
करे पाप सुख पा रहे , यह कैसा इंसाफ है ?
संसार में एक आदमी पुण्यात्मा है , सदा चारी है और दुःख पा रहा है ,
तथा
एक आदमी है पापात्मा है , दुराचारी है और सुख भोग रहा है - इस बातको लेकर
अच्छे से अच्छे पुरुषोके भीतर भी यह शंका हो जाया करती है की इसमें ईश्वर
का न्याय कहा है ?
इसका समाधान यह है की अभी पुण्यात्मा जो दुःख पा रहा है , यह पूर्व के किसी
जन्म में किये हुए पाप का फल है , अभी किये हुए पूण्य का फल नही ,
ऐसे ही अभी पापात्मा जो सुख भोग रहा है यह भी किसी पूर्व के जन्म में किये हुए पूण्य का फल है अभी किये हुए पापका नही |
{ जय जय श्री राधे }